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महिलाओं को संवैधानिक रूप से सशक्त करेगी समान नागरिक संहिता

भारत के सभी वर्गों की महिलाओं को अधिक सशक्त करने का काम करेगा 'समान नागरिक संहिता कानून'। जब बात आती है महिलाओं को बराबरी के अधिकार मिलने की तब वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करने मे कही ना कही कमतर दिखाई पड़ती हैं। क्योंकि भारत में विभिन्न धर्मों को मानने वालें लोग निवास करते हैं।

किंतु संविधान के आधार पर हिंदू सहित सभी भारतीय धर्म जिसके अंतर्गत जैन, सिख, बौद्ध धर्म आते है। ऐसे सभी धर्मों के मानने वालों के लिए संवैधानिक कानूनों का निर्माण कर दिया गया। जिसके अंतर्गत हिंदू मेरिज एक्ट, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकारी अधिनियम, हिंदू अवयस्कता और संरक्षक अधिनियम जैसे कानूनों का निर्माण कर महिलाओं को बराबरी के अधिकार देने का प्रयास किया गया।

जबकि हिंदू धर्म में सांस्कृतिक आधार पर एवं भारतीय शास्त्रों में प्रारंभ से ही स्त्री-पुरूष को समान माना गया हैं। और दोनों ही वर्गों को अपने समान अधिकार भी प्रदान कियें गयें हैं। भगवान शिव और माता पार्वती के संयुक्त अर्द्धनारीश्वर स्वरूप का दर्शन ही समानता का भाव जागृत करता हैं। ऐसे में हिंदुओं सहित सभी भारतीय मूल धर्मों में संवैधानिक समानता को सहर्ष स्वीकार किया गया है।

किंतु बाकि अन्य धर्मों को जिसके अंतर्गत मुस्लिम, ईसाई, पारसी और यहूदी आते है। उन्हें उनके धार्मिक नियमों के आधार पर पर्सनल लॉ बोर्ड बनाने की व्यवस्था संविधान में की गयी हैं। परंतु लगातार वर्षों से समय समय पर एक बात निकलकर आती हैं कि महिलाओं को उनके नैतिक संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा हैं। और मुख्यतः जिन धर्मों के अपने पर्सनल लॉ बोर्ड हैं। उनमें परेशानी अधिक दिखाई पड़ रही है। इसका एक उदाहरण 'तीन तलाक' के रूप मेन सभी के सामने में स्थापित हैं।

मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंतर्गत तीन तलाक और हलाला जैसी प्रथाओं को मान्यता प्राप्त हैं। जबकि संवैधानिक रूप से तीन तलाक और हलाला जैसी प्रथाएं गैर कानूनी हैं। ऐसे ही ईसाई में भी बाईबल को आधर मानकर चर्च के नियमों को सर्वोपरि माना जाता रहा हैं। हिंदूओं सहित जैन, बौद्ध और सिख समुदाय में हिंदू विवाह अधिनियम के आधार पर लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 18 वर्ष हैं।

किंतु मुस्लिम समुदाय में विवाह की आयु तय नही हैं उनके धर्म के अनुसार जब भी लड़की अपने मासिक धर्म के चक्र में प्रवेश करती हैं। तभी से वह विवाह योग्य मानी जाने लगती हैं। ऐसे ही अनेक उदाहरण है जिनके आधार पर संवैधानिक व्यवस्था के चलते भी महिलाओं को असमानता का सामना करना पड़ता हैं और स्त्रीयों को अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ता हैं।

भारत के प्रत्येक समुदाय की महिलाओं के सशक्तिकरण को मजबूती देगा UCC कानून। महिलाओं में विवाह की न्यूनतम आयु की समानता से लेकर संतान गोद लेने तक के अधिकारों में समानता प्रदान करने का काम होगा। इसी के साथ उत्तराधिकार के आधार पर महिलाओं को मिलने वाली पारिवारिक सम्पत्ति में बराबर भागीदारी के अधिकार को भी संरक्षित करने का काम हो सकेगा।

तलाक के मामलों में भी महिलाओं को संवैधानिक समानता का अधिकार प्राप्त रहेगा। इसी के साथ प्रत्येक वर्ग के अंतर्गत जनजाति समुदाय की महिलाओं के अधिकारों को अधिक सशक्त और सुरक्षित किया जा सकेगा। UCC के लागू होने के बाद भी वर्तमान में जनजाति वर्ग को मिलने वालें सभी अधिकार और सुविधाएं यथावत चलती रहेगी। बल्कि उनके विशेष अधिकार अधिक सशक्त और संरक्षित हो जाएंगे।

इसी के साथ जनजाति समुदाय की महिलाओं को भी भारत की अन्य महिलाओं के समान पारिवारिक सम्पत्ति में बराबरी की भागीदारी मिल सकेगी। जनजाति महिलाओं में भी विवाह की न्यूनतम आयु सभी के समान मानी जाने लगेगी। जिससे जनजाति वर्ग की लड़कियों को अधिक अधिकार मिल सकेंगे। जिसके चलते जनजाति वर्ग की महिलाओं के द्वारा शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ रहने वाली महिलाओं को संबल प्रदान किया जा सकेगा।

समान नागरिक संहिता के आने पर किसी भी वर्ग के धार्मिक एवं नागरिक अधिकारों हनन नहीं हो सकेगा। सभी वर्ग के अधिकारों को अधिक सशक्त और संरक्षित करने में संवैधानिक प्रावधान लागू हो सकेंगे।

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