नई दिल्ली। बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) सुप्रीमो मायावती ने हाल ही में आगामी लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने की घोषणा की है। वह इसकी वजह बेशक यह बता रही हैं कि चुनाव पूर्व गठबंधन उनकी पार्टी की संभावनाओं को कमजोर करेगा और सहयोगियों को फायदा पहुंचाएगा, लेकिन यह बात गले नहीं उतरती और उनकी मजबूरी को ही दर्शाती है।
मायावती आगामी लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने की वजह कुछ भी बताएं, सच यह है कि विपक्षी गठबंधन के सहयोगियों और खुद अपनी पार्टी के लोगों को संशय में डालने वाली उनकी अप्रत्याशित राजनीति के चलते एक ऐतिहासिक अतीत वाली पार्टी राजनीतिक फलक पर तेजी से अप्रासंगिक होती दिख रही है।
रअसल, कभी बसपा के गढ़ माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में न तो सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और न ही विपक्षी दलों का समूह ‘इंडिया’ गठबंधन अप्रत्याशित व्यवहार करने वाली बहनजी के साथ गठजोड़ करने के लिए तैयार है; जिनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा राज्य में उनकी घटती लोकप्रियता से तालमेल नहीं बैठा पा रही है। कुछ दूसरे राज्यों में भी यही कहानी है, जहां बसपा की मौजूदगी तो है, लेकिन उसका प्रभाव तेजी से क्षीण हो रहा है। फिर भी, संभावित सहयोगियों के साथ सीट बंटवारे के लिए कड़ी सौदेबाजी जारी है।
भाजपा के नेतृत्व वाले राजग ने, जो इस वक्त लोकसभा चुनाव के मद्देनजर पूरी तरह से मजबूत स्थिति में दिख रहा है, बसपा के साथ गठबंधन करने में कोई रुचि नहीं दिखाई है। इसके बजाय, पिछले संसदीय और विधानसभा चुनावों की तरह सत्तारूढ़ दल की रणनीति तो यही है कि ज्यादा से ज्यादा दलित और मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में करने और विपक्ष के एकीकरण की कोशिशों को कमजोर करने में कैसे बसपा का उपयोग किया जाए।