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मजदूरों को बचाने में आखिर मजदूर ही काम आए

नई दिल्ली। जो जानकारी मिल रही है, उसके मुताबिक ‘रेट होल माइनिंग’ पद्धति ही आखिर काम आई। भारत सरकार की तमाम एजेंसियां, अत्याधुनिक तकनीक और हॉरिजॉन्टल ड्रिलिंग, वर्टिकल ड्रिलिंग की कवायद तो अभी न जाने कितने दिनों तक और चलती रहती। लेकिन 12 श्रमिकों ने दो दिन पहले आकर जिस प्रकार से देशी जुगाड़ पद्धति से 10-12 मीटर मलबे, सरिया और कंक्रीट की दीवार को पार करने में हाड़तोड़ मेहनत की है, उस मेहनत को शायद आज करोड़ों लोग समझ रहे हों।

लेकिन सोशल मीडिया में टनल के बाहर एक अलग ही नजारा चर्चा का विषय बना हुआ है। टनल के लिए जाने वाली सड़क को पाटकर समतल और सफेदी छिड़की जा रही है। ऐसा जान पड़ता है कि शायद टनल में 17 दिनों से फंसे 41 श्रमिकों के सकुशल बाहर निकलने पर उनके स्वागत में रास्ते को सजाया जा रहा है। लेकिन लोग इसके उलट सोच रहे हैं। उन्हें आशंका है कि आपदा में अवसर की तलाश में रहने वाला कोई बड़ा खिलाड़ी ऐन मौके पर प्रकट हो सकता है।

सोशल मीडिया पर चर्चा है कि इस मौके को भी बड़ा इवेंट बनाकर बड़ा राजनीतिक लाभ उठाने का मौका भला कैसे चूक सकता है कोई। लेकिन मैं तो यही मानकर चल रहा हूं कि ये सब श्रमिकों के सम्मान में ही हो रहा होगा। जब सब सामने आएगा तो पता चल जायेगा।

लेकिन यह मौका हमें एक बार फिर से याद दिला रहा है, हमारे जीवन को आसान बनाने वाले उन श्रमिकों को याद करने का, जो किसी भी मध्यवर्ग की जिंदगी में बेहद मामूली अहमियत रखते हैं। ताजा मामला रेट होल माइनर्स का है, जिन्हें कानून की निगाह में गैर-सामाजिक समझा जाता है। आगर मशीन के दो-दो बार फेल हो जाने पर सरकार की तमाम एजेंसियों का दिमाग ही काम करना बंद कर दिया था। ऑस्ट्रेलियाई एक्सपर्ट ने तो ईमानदारी से सार्वजनिक घोषणा पहले ही कर दी थी कि क्रिसमस तक हम इस बाधा को पार कर लेंगे।

करीब 50 मीटर अंदर जाकर आगर मशीन के ब्लेड टूट गये थे, क्योंकि मलबे के भीतर मशीनरी और सरिये के सामने आ जाने से मिट्टी-पत्थर काटने के लिए डिजाइन ब्लेड ही टूट गया था। जो लोग कंस्ट्रक्शन के बारे में जानकारी रखते हैं, उन्हें पता है कि ड्रिलिंग, कटिंग की मशीनों के ब्लेड या ड्रिल टिप को या तो मिट्टी-पत्थर काटने या आरसीसी/सरिया काटने के लिए अलग से डिजाइन किया जाता है। एक तरह की मशीनरी दूसरे पदार्थ को नहीं काट सकतीं।

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