तेलंगाना। 2024 आम चुनाव के पूर्व हो रहे 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों की श्रृंखला में तेलंगाना में सबसे अंत में 30 नवम्बर को वोट पड़ेंगे। दक्षिण में कर्नाटक के बाद तेलंगाना वह राज्य था जहाँ भाजपा बड़ी दावेदार बनकर उभर रही थी।
लेकिन चंद महीने पहले की तुलना में तेलंगाना के चुनावी परिदृश्य में अब नाटकीय उलट-फेर हो चुका है। भाजपा वहां हाशिये पर खिसक चुकी है और शीर्ष नेताओं द्वारा ध्रुवीकरण की लाख कोशिशों के बावजूद अब वह मुख्य लड़ाई से बाहर है।
2018 विधानसभा चुनाव में KCR की प्रचण्ड जीत के तुरंत बाद हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 19.7% मतों के साथ लोकसभा की 4 सीटें जीत ली थीं। कांग्रेस को 3 सीट ही मिली थी। बाद में हैदराबाद म्युनिसिपल कारपोरेशन में TRS की 56 सीटों के सामने 48 सीटें जीत कर भाजपा ने अपने आक्रामक अभियान को और आगे बढ़ाया। उसने असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM को तीसरे नंबर पर ( 44 सीट ) धकेल दिया था। कांग्रेस सिर्फ 2 सीटें जीत पाई।
एन्टी-इंकम्बेंसी और भ्रष्टाचार तथा misgovernance के आरोपों से घिरे KCR के ख़िलाफ़ भाजपा main challenger बनती जा रही थी। 2018 में जीते अपने इकलौते विधायक राजा सिंह और पिछड़े कापू समुदाय से आने वाले बंडी संजय कुमार जैसे नेताओं के आक्रामक साम्प्रदायिक अभियान और सोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से वह एक समय तो unstoppable लग रही थी।
लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस की प्रभावी जीत, विशेषकर हैदराबाद-कर्नाटक इलाके में उसके जोरदार प्रदर्शन ने तेलंगाना के राजनीतिक माहौल पर नाटकीय असर डाला। दरअसल भारत जोड़ो यात्रा के समय से ही कांग्रेस का आकर्षण बढ़ने के संकेत मिलने लगे थे जिसे कर्नाटक की जीत ने ठोस रूप दे दिया। भाजपा को replace करते हुए वहां कांग्रेस तेजी से KCR के विरुद्ध उभरती चली गयी। अब चुनाव आते आते KCR और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर मानी जा रही है और भाजपा काफी पीछे तीसरे स्थान पर है।
हालांकि भाजपा अभी भी ध्रुवीकरण और सोशल इंजीनियरिंग में लगी हुई है।18 नवम्बर को अमित शाह ने कर्नाटक की तर्ज़ पर वहां एक चुनावी रैली में बयान दिया कि भाजपा मुसलमानों को मिला हुआ 4% आरक्षण खत्म कर देगी और उसे SC-ST, OBC समुदायों के बीच बांट देगी। ‘हैदराबाद मुक्ति दिवस ‘ के नाम पर वह रियासत के भारत में विलय और सशस्त्र किसान संघर्ष की ऐतिहासिक विरासत को सांप्रदायिक रंग देने में लगी है।