नई दिल्ली। प्रधानमंत्री जी फाइटर जेट तेजस पर सवार थे। बहुत सी फोटो वायरल हुई। किसी फाइटर जेट पर सवार होने वाले वह पहले पीएम घोषित हुए। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल भी एक बार मिग फाइटर जेट पर सवार हो चुकी है। ऐसे कृत्य सेना और जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए किए जाते हैं।
तेजस नाम अटल बिहारी वाजपेई जी का दिया हुआ है। यह प्रोजेक्ट धरातल पर साल 2001 में शुरू हुआ था, हालांकि इसकी योजना उसके पहले से चल रही थी। ऐसी दीर्घकालीन योजनाएं, सरकार निरपेक्ष होती हैं और अनवरत रूप से चलती रहती हैं, जब तक कि कोई सरकार जानबूझकर उसे किसी विशेष कारणवश बाधित करने की कोशिश न करे।
एक तर्क अक्सर दिया जाता है कि सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में सरकार को क्लीन चिट दी है। लेकिन, क्लीन चिट जैसा शब्द कानून में कहीं नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि “सरकार के खरीद प्रक्रिया में कोई अनियमितता नहीं है।” यानी कागज का पेट भरा है। प्रोसीजर लागू किया गया है। कागज के अंदर झांक कर विवेचनात्मक रुचि और निगाह से झांक कर देखेंगे तो, घोटाले के गंभीर संकेत मिलेंगे। यह तभी उजागर होगा जब उसकी तह में जाया जाय। तह में जाकर तफ्तीश करने का हुनर सीबीआई का है और सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी किसी तफ्तीश पर रोक नहीं लगाई है।
याद कीजिए, तभी पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण ने तत्कालीन सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा से मिलने गए थे और एफआईआर दर्ज कर जांच करने का अनुरोध किया था और आलोक वर्मा को सरकार ने उसी रात बदल दिया था। यह डर, घोटाले के अपराध के खुल जाने का था।
घोटाले का आरोप अब भी है। और यह तब तक बना रहेगा जब तक कि, इसकी जांच न हो जाय। अपराध काल बाधित नहीं होता है। अब आप राफेल सौदे की क्रोनोलॉजी पढ़ें…
राफेल सौदे में कुछ ऐसे बिंदु हैं जो इस सौदे में घोटाले के आरोप की ओर शक की सूई ले जाते हैं। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स और राफेल मामले में सरकार या प्रधानमंत्री की भूमिका के बारे में कहे और लिखे गए अनेक लेखों और बयानों के आधार पर कुछ महत्वपूर्ण बिंदु मैं नीचे प्रस्तुत कर रहा हूं, जिनसे घोटाले का शक उभरता है।
संदेह के बिंदु तब उपजते हैं, जब नियमों का पालन किए बगैर, मान्य और स्थापित कानून तथा परम्पराओं को दरकिनार कर के, कोई मनमाना निर्णय ले लिया जाता है और किसी को, या बहुत से लोगों को अनुचित लाभ पहुंचाया जाता है। यहां भी अनुचित लाभ पहुंचाने के कदाशय को ही, घोटाले के अपराध का मुख्य बिंदु माना गया है।
अब उन बिन्दुओं की चर्चा की जा रही है, जिनसे इस सौदे में शक की गुंजाइश बन रही है।
बोफोर्स घोटाला, रक्षा सौदों में, अब तक का सबसे चर्चित घोटाला रहा है। हालांकि 1948 में ही रक्षा से जुड़ा जीप घोटाला सामने आ चुका था। पर बोफोर्स घोटाले के आरोप ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। इस घोटाले के बाद ही सरकारें सतर्क हो गयीं और उसके बाद आने वाली सरकारों ने रक्षा सौदों के लिए एक बेहद पारदर्शी प्रक्रिया और नियम बनाये, जिसके अंतर्गत सेना, रक्षा मंत्रालय, संसदीय समिति और सरकार, सभी की सहमति से ही किसी प्रकार का कोई रक्षा सौदा सम्बंधित समझौता हो सकता है। सबकी स्पष्ट और उपयुक्त भागीदारी के साथ-साथ पारदर्शिता को इन रक्षा सौदों के लिये अनिवार्य तत्व माना गया है। लेकिन मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार ने, जब राफेल के सम्बंध में समझौता किया तो उसने इन नियमों और प्रक्रिया का पालन नहीं किया।
रक्षा सौदों के प्रारंभिक नियमों और प्रक्रिया के अनुसार, किसी भी रक्षा खरीद का फैसला भारतीय सेनाओं की मांग के आधार पर शुरू होता है। राफेल खरीद के मामले की भी शुरुआत, वायुसेना द्वारा 126 विमान की आवश्यकता और उससे जुड़े, मांगपत्र से हुई थी। यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार ने वायुसेना के इसी 126 विमानों की आवश्यकता के आधार पर, अपनी बातचीत शुरू की थी। लेकिन उसके बाद आने वाली एनडीए की नरेंद्र मोदी सरकार ने 126 विमानों की आवश्यकता को घटा कर, मात्र 36 विमानों का सौदा फाइनल किया। इस बदलाव पर यह आरोप लगता है, कि वायुसेना की जरूरतों को नजरअंदाज करके उसे मजबूत बनाने की जगह उसके मूल मांग 126 लड़ाकू विमानों की उपेक्षा की गयी। वायुसेना ने कभी नहीं कहा कि उसे 126 की जगह अब केवल 36 ही विमान चाहिए, जबकि सेना की मांग ही रक्षा सौदे का मुख्य आधार बनती है। सेना अपनी आवश्यकताओं को घटा बढ़ा सकती है। पर इस जोड़ घटाने का भी कोई न कोई तर्क और आधार होना चाहिए। वायुसेना ने 126 से अपनी ज़रूरतों को कैसे 36 तक सीमित कर दिया, इस पर न तो वायुसेना ने कभी कोई उत्तर दिया और न ही रक्षा मंत्रालय ने।
यूपीए सरकार ने, डसॉल्ट कम्पनी से वायुसेना के लिये 126 राफेल विमानों के साथ उनके तकनीकी हस्तांतरण के लिये, ट्रांसफर आफ टेक्नोलॉजी की शर्त भी रखी थी, जिसके तहत यह तकनीक यदि भारत को मिल जाती तो यह विमान भविष्य में स्वदेश में ही बनता, लेकिन, नरेन्द्र मोदी सरकार में जो सौदा हुआ है, उसमे, ट्रान्सफर ऑफ टेक्नोलॉजी की शर्त ही हटा दी गई है।
सरकार या प्रधानमंत्री ने अपने स्तर पर सौदे में जो बदलाव किये उन्हे, कैटेगराइजेशन कमेटी के पास अनुमोदन के लिए नहीं भेजा गया। कैटेगराइजेशन कम डिफेंस एक्यूजीशन कॉउंसिल में, रक्षा मंत्री, वित्तमंत्री और तीनों सेनाओं के प्रमुख होते हैं। जो किसी भी प्रस्तावित प्रस्ताव परिवर्तन का परीक्षण कर के उसे प्रधानमंत्री के पास भेजते हैं। लेकिन इस मामले में यह प्रक्रिया नहीं अपनाई गयी। बिना कैटेगराइजेशन कम डिफेंस एक्यूजेशन काउंसिल की सहमति के लिया गया यह फैसला स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन है।