Type Here to Get Search Results !

भारत एवं दुनिया भर में महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा एक बड़ी समस्या

भोपाल। सत्तर के दशक में अमेरिका और यूरोप में व्यापक रूप से नारीवादी आंदोलनों की शुरूआत हुई, विशेष रूप से फ्रांस में महिला एक्टिविस्ट और लेखिका सिमोन द बबुआर की पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ के प्रकाशन के बाद ही दुनिया भर में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव और हिंसा के ख़िलाफ़ विश्व के लोगों और सरकारों का ध्यान गया।

अगर हम विश्व का इतिहास देखें तो- विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक और मानवीय त्रासदियां हों, विभिन्न देशों के बीच युद्ध हो या गृहयुद्ध हो, इसमें सबसे ज़्यादा शिकार महिलाओं को ही होना पड़ा था और आज भी यही हो रहा है, इसीलिए यह भी कहा जाता है कि “सभी युद्ध औरत के शरीर पर ही लड़े गए तथा औरत अंतिम उपनिवेश है और अभी इसकी मुक्ति का कार्यभार शेष बचा है।”

दुनिया भर की सरकारों ने महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के कड़े कानून तो बनाए हैं, लेकिन वे इसको लागू करने में इसलिए असफल रहीं, क्योंकि कानून लागू करने वाली एजेंसियां खुद ही महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा में लिप्त पाई जाती हैं। महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा का मतलब केवल शारीरिक हिंसा नहीं है, यह बहुत व्यापक है:- इसमें यौन, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और वित्तीय शोषण शामिल है।

अगर हम देश के अंदर देखें, तो दो मुख्य प्रकार की हिंसा देखने में आती है। पारिवारिक हिंसा और यौन उत्पीड़न। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने निम्नलिखित परिभाषा दी है:- ”महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा शब्द का अर्थ लिंग आधारित हिंसा का कोई भी काम शामिल है, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं को शारीरिक, यौन या मनोवैज्ञानिक क्षति या पीड़ा होती है, जिसमें ऐसे कृत्यों की धमकियां अथवा ज़बरदस्ती संबंध बनाना शामिल है।”

ऐसा नहीं है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा की परिघटना केवल एशिया, अफ्रीका या लैटिन अमेरिका के पिछड़े देशों की समस्या है। यह अपने अन्य दूसरे रूपों में दुनिया के विकसित देशों में भी बहुत सूक्ष्मता के साथ मौजूद है। उदहारण के लिए यूरोप-अमेरिका में महिला और पुरुष के समान वेतन की व्यवस्था है, परन्तु वहां भी मज़दूर और महिला संगठन के ये आरोप बिलकुल वास्तविक हैं कि वहां पर भी महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन नहीं दिए जाते हैं।

कार्यस्थल पर महिलाओं से यौन शोषण की घटनाएं वहां आम हैं। हिंसा और बलात्कार की घटनाएं भी होती रहती हैं, लेकिन तीसरी दुनिया के देशों की तरह वहां पर एक बात अच्छी है कि वहां पर यौन शुचिता का मामला वैसा नहीं है, जैसा भारत जैसे देशों में है। यहां पर बलात्कार की शिकार महिला को समाज बहुत ही हेय दृष्टि से देखता है, उसके विवाह होने में दिक्कत आती है, कभी-कभी तो उसे आत्महत्या तक करनी पड़ती है।

तीसरी दुनिया के देशों में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा अपने हर रूपों में मौजूद है। हर धर्म स्त्रियों के ख़िलाफ़ भेदभाव करता है इसलिए जिन देशों में धर्म पर आधारित शासन है, वहां पर महिलाओं को व्यापक रूप से भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद महिलाओं को स्कूल-कॉलेज में जाकर पढ़ाई करने पर रोक लगा दी गई। वे नौकरी करने के लिए घर से बाहर नहीं जा सकतीं।

ईरान में हिजाब के ख़िलाफ़ चले आंदोलन में कई महिलाओं की हत्याएं की गईं। सउदी अरब में महिलाओं को काफ़ी संघर्षों के बाद अभी हाल में कार चलाने का अधिकार मिला। इन देशों में महिला की गवाही पुरुषों की गवाही की आधी मानी जाती है।

भारत के हालात इस मामले में काफ़ी खराब हैं। हमारे देश में यद्यपि महिलाओं को वोट डालने का अधिकार यूरोप-अमेरिका से बहुत पहले ही मिल गया था, लेकिन यहां आज भी पितृसत्तात्मक सामंती रूपों की त्रासदियों को औरत को जन्म से लेकर मृत्यु तक झेलना पड़ता है। एक कट्टरपंथी हिन्दूवादी सरकार के आने पर ये समस्याएं और भी बढ़ गई हैं।

हमारे देश में स्त्रियों के ख़िलाफ़ हिंसा के विरोध में कड़े कानून बनाए गए हैं। निर्भया बलात्कार और हत्याकांड के बाद इनकी अनेक धाराओं को और भी कठोर बना दिया गया, परन्तु यह भयावह सच्चाई है कि इन सबके बावज़ूद स्त्रियों के ख़िलाफ़ हिंसा; चाहे वह भ्रूणहत्या हो, घरेलू हिंसा, बलात्कार अथवा हत्या हो, उनमें काफ़ी बढ़ोतरी हो गई है। 2012 का महिला हिंसा का आंकडा इस प्रकार है, जो भारत की विशाल आबादी को देखते हुए कमतर नहीं आंका जा सकता।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.