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नारी दुनिया की जननी है, कन्या भ्रूण हत्या रोकने का इस नवरात्रि संकल्प लें -शास्त्री

पण्डित जी

बेगमगंज।  नवरात्रि के पावन अवसर पं.कमलेश कृष्ण शास्त्री  ने  कहा - माँ ही आद्यशक्ति है, सर्वगुणों का आधार, राम-कृष्ण, गौतम, कणाद आदि ऋषि-मुनियों, वीर-वीरांगनाओं की जननी हैं। नारी इस सृष्टि और प्रकृति की ‘जननी’ है। नारी के बिना तो सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जीवन के सकल भ्रम, भय, अज्ञान और अल्पता का भंजन एवं अंतःकरण के चिर-स्थायी समाधान करने में समर्थ हैं – विश्वजननी पराशक्ति श्री माँ दुर्गा जी की उपासना। नवरात्रि ईश्वर के स्त्री रूप को समर्पित है। दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती स्त्री-गुण यानी स्त्रैण के तीन आयामों के प्रतीक हैं। “माँ” यह वो अलौकिक शब्द है, जिसके स्मरण मात्र से ही रोम−रोम पुलकित हो उठता है, हृदय में भावनाओं का अनहद ज्वार स्वतः उमड़ पड़ता है और मनोमस्तिष्क स्मृतियों के अथाह समुद्र में डूब जाता है। ‘माँ’ वो अमोघ मंत्र है, जिसके उच्चारण मात्र से ही हर पीड़ा का नाश हो जाता है। ‘माँ’ की ममता और उसके आँचल की महिमा को शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता है, उसे मात्र अनुभव किया जा सकता है। माँ सिर्फ आसमान में कहीं स्थित नही हैं, उसे कहते हैं कि “या देवी सर्वभुतेषु चेतनेत्यभिधीयते …” – अर्थात्, “सभी जीव-जन्तुओं में चेतना के रूप में ही माँ देवी तुम स्थित हो”। नवरात्रि माँ के अलग-अलग रूप को निहारने का सुन्दर त्यौहार है। काम, क्रोध, मद, मत्सर, लोभ आदि जितने भी राक्षसी प्रवृति हैं, उसका हनन करके विजय का उत्सव मनाते हैं। हर एक व्यक्ति जीवनभर या पूरे वर्षभर में जो भी कार्य करते-करते थक जाते हैं तो इससे मुक्त होने के लिए इन नौ दिनों में शरीर की शुद्धि, मन की शुद्धि और बुद्धि में शुद्धि आ जाए, सत्व शुद्धि हो जाए; इस तरह के शुद्धिकरण करने का, पवित्र होने का त्योहार है – यह नवरात्रि। शास्त्री‌ जी कहा करते हैं कि शारदीय नवरात्रि का यह उत्सव हमें मातृशक्ति की आराधना करने की प्रेरणा देता है।  भारतीय संस्कृति में यह मान्यता है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता विचरण करते हैं। इस पर्व में आत्म-संयम और शुद्धि के लिए व्रत-उपवास का विशेष महत्व है। इस पर्व पर हम सभी समाज में महिलाओं की समान भागीदारी, उनके गौरव को बनाये रखने और 'कन्या भ्रूण-हत्या' रोकने का संकल्प लें। नवरात्रि नवनिर्माण के लिए होती है, चाहे आध्यात्मिक हो या भौतिक। आदिकाल से ही मनुष्य की प्रकृति शक्ति साधना की रही है। शक्ति साधना का प्रथम रूप दुर्गा ही मानी जाती है। मनुष्य तो क्या देवी-देवता, यक्ष-किन्नर भी अपने संकट निवारण के लिए 'माँ दुर्गा' को ही पुकारते हैं। हमारे देश में ‘माँ’ को ‘शक्ति’ का रूप माना गया है और वेदों में ‘माँ’ को सर्वप्रथम पूजनीय कहा है। इस श्लोक में भी इष्टदेव को सर्वप्रथम ‘माँ’ के रूप में ही उद्बोधित किया गया है – “त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या, द्रविणम त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देव देव …”।। हमारे वेद, पुराण, दर्शनशास्त्र, स्मृतियाँ, महाकाव्य, उपनिषद आदि सब ‘माँ’ की अपार महिमा के गुणगान से भरे पड़े हैं। असंख्य ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, पंडितों, महात्माओं, विद्वानों, दर्शनशास्त्रियों, साहित्यकारों आदि ने भी ‘माँ’ के प्रति पैदा होने वाली अनुभूतियों को कलमबद्ध करने का भरसक प्रयास किया है। इन सबके बाद भी ‘माँ’ शब्द की समग्र परिभाषा और उसकी अनन्त महिमा को आज तक कोई शब्दों में नहीं पिरो पाया है, क्योंकि माँ अनन्त है, माँ महान है, माँ सर्वोपरि है।


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