भोपाल। पृथ्वी पर प्राणी मात्र के अस्तित्व के आधार जंगल और स्वच्छ पर्यावरण को बचाने की एक अनूठी अलख जगी है, मध्यप्रदेश के भोपाल से। गो-काष्ठ मेन ऑफ इंडिया कहे जाने वाले सेंट्रल पॉल्यूशन बोर्ड के वैज्ञानिक डॉ. योगेन्द्र कुमार सक्सेना द्वारा 5 साल पहले भोपाल में शुरू की गई मुहीम से अब तक 5 लाख 10 हजार क्विंटल लकड़ी और तकरीबन 3400 एकड़ का वन क्षेत्र बच सका है। वहीं गोबर के आय परक होने से गो-शालाओं में बेसहारा, वृद्ध और अनुपयोगी गायों की पूछ-परख बढ़ गई है। शव दहन, होलिका दहन, औद्योगिक बायलर, होटल के तंदूर एवं अलाव आदि में लकड़ी का स्थान गो-काष्ठ लेने लगा है।
डॉ. सक्सेना ने बताया कि गो-काष्ठ के जलने से 24.80 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइन का उत्सर्जन कम होता है। नमी कम होने के कारण गो-काष्ठ जल्दी जल जाता है और आम की लकड़ी देर तक जलती रहती है। सामान्य लकड़ी से शव दहन को 8 से 9 घंटे लगते हैं, जबकि गो-काष्ठ से यह प्रक्रिया 4-5 घंटे में पूरी हो जाती है। सामान्य लकड़ी की खपत 4 से 5 क्विंटल के विरूद्ध गो-काष्ठ केवल ढ़ाई से 3 क्विंटल ही लगता है। हिन्दु मान्यता के अनुसार यह पवित्र होने के साथ सस्ता भी पड़ता है।
भोपाल के 10 श्मशान घाट में आमजन गो-काष्ठ का प्रयोग स्वेच्छा से करने लगे हैं। भोपाल ही नहीं दिल्ली, बनारस, कानपुर, नागपुर, मुम्बई, जयपुर, अमरावती, रोहतक, रायपुर, इंदौर, कटनी, छिंदवाड़ा, नासिक, प्रयागराज आदि शहरों में भी भोपाल के गो-काष्ठ का प्रयोग अंतिम संस्कार के लिये किया जा चुका है।