उस्ताद जाकिर हुसैन भारत भवन में थे और उनका तबला शिवधाम यानी कैलाश में। कैलाश की रचना ध्वनि रूप में कैसी रही होगी, जैसा उस्ताद अल्लारखा बताते थे, वैसा ही जाकिर ने भी जीवंत किया। पहले उस्ताद की उंगलियों ने शिव तांडव रचा। फिर तांडव के ‘ता’ और उसे शांत करने के लिए गौरी के लास्य नृत्य का ‘ल’ लेकर ताल का उद्गम बताया। तांडव के दौरान तबला में बजा डमरू। पहले धीरे-धीरे। फिर गड़बड़ाहट के साथ। बीच-बीच में जब शंख की ध्वनि उठी तो लगा, वहां बैठे लोग भारत भवन में नहीं, कैलाश पर ही हों।
शंख-डमरू के बीच गणेश और गौरी की उपस्थिति की भावुकता जिस तरह उस्ताद की उंगलियों ने सुनाई, आश्चर्य में डालने वाली थी। इसके बाद अपने पिता उस्ताद अल्लारखा साहब का कायदा आया। पहले कायदे के ‘तिरकिट’ को उल्टा कर ‘किट तक’ भी किया। इसके बाद कुछ लाहौरी ‘गत’ यहां साकार हुई और फिर आई हिरण-परन।
हिरण-परन में पहले हिरण सहमा, फिर तरन्न की आवाज के साथ कूदा और शिकारी को देखकर कैसे ओझल हो गया, या तो वहां बज रही तालियों ने जाना या उस्ताद की उंगलियों ने। श्रोता हतप्रभ थे और उस्ताद की उंगलियां अभ्यस्थ।
गायन में जैसे भैरवी होती है, तबला में वैसे ही रेला। रेला चला और चलता गया। ऊपर आसमान से बूंदें टपक रही थीं और उस्ताद के तबले ने घनघोर बारिश कर दी। टिप-टिप से शुरू होकर झमाझम तक। बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़कड़ाहट तबले में रेले के साथ सुनाई दी।
पीछे बड़ा तालाब खाली-ताली दे रहा था और उस्ताद की उंगलयों ने रेले को जीवंत कर इति कर दी। इसके पहले ‘महिमा’ कार्यक्रम में आते ही उस्ताद ने सारंगी पर संगत कर रहे दिलशाद खान का परिचय कराया। दिलशाद, जोधपुर वाले उन्हीं सुल्तान खां साहब के भतीजे हैं, जिन्होंने ‘पिया बसंती रे’ गाया है।