कृषि संकट अब कृषि से आगे जाकर पूरे समाज और सभ्यता का संकट हो गया है। इंसानियत का संकट हो गया है। ये मत देखो कि कृषि उत्पादन कितना गिर गया, ये देखो कि इंसानियत कितनी गिर गई है। 20 साल में तीन लाख दस हजार किसान ने आत्महत्या कर चुके हैं। ये सब सरकार की नीतियों से पैदा हुआ संकट है। भारतीय कृषि व्यवस्था को कॉरपोरेट ने हाईजैक कर लिया है। 1991 से 2011 के बीच 20 साल में फुल टाइम किसानों की संख्या डेढ़ करोड़ घट गई। हालांकि खेतिहर मजदूरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
अब तक अलग-अलग सरकारों ने 16 कर्जमाफी की हैं, लेकिन इसमें सिर्फ 3 अकाल के साथ जुड़ी हैं, बाकी सारी कर्ज माफियां चुनाव से जुड़ी हैं। सरकारों ने एग्रीकल्चर क्रेडिट बढ़ाया, लेकिन इसका फायदा किसानों को कम कंपनियों को ज्यादा मिला। महाराष्ट्र में कुल कृषि ऋण का 53% हिस्सा मुंबई शहर को मिला, यहां कौन से किसान हैं। सिर्फ 39% ऋण ही ग्रामीण बैंकों से बांटा गया। ये भी देखने की जरूरत है कि खेती के नाम पर किस तरह के ऋण बढ़े? 50 हजार रुपए और पांच लाख रुपए तक के लोन घटे हैं, लेकिन एक से 10 करोड़ तक के कृषि ऋण बढ़ रहे हैं। साफ है एग्री बिजनेस बहुत हो रहा है, लेकिन एग्रीकल्चर नहीं। खेती की बदतर स्थिति के लिए सिर्फ मोदी सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
- खेती के घाटे को ऐसे समझिए...
1973 में विदर्भ का किसान एक क्विंटल कपास बेचकर 15 ग्राम सोना ले सकता था, लेकिन आज 8 क्विंटल कपास बेचकर भी 10 ग्राम सोना नहीं पाता। 1991 में उर्वरक के लिए इस्तेमाल की जाने वाली डीएपी (डाई अमोनियम फॉस्फेट) 1050 रुपए में 50 किलो मिलता था, अब 1450 रुपए में 45 किलो मिलता है। रेट बढ़ गया है और वेट घट गया है।
- सरकार का रुख जानिए...
14 साल से स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट पर बहस नहीं हुई। कॉरपोरेट के कहने पर सरकार ने 4 घंटे में जीएसटी को काूनन बना दिया। रात में संसद का विशेष सत्र बुलाया गया। राष्ट्रपति भी पहुंच गए। किसानों के मसले पर कुछ नहीं हुआ। स्वामीनाथन कमेटी ने 2004 में अपनी पहली रिपोर्ट संसद को दी। 2006 में अंतिम रिपोर्ट भी दे दी, लेकिन 14 साल बाद भी संसद में इस मुद्दे पर एक घंटे की बहस नहीं हुई।
- फसल बीमा योजना...
रफाल डील से भी ज्यादा भुगतान करती है सरकार फसल बीमा के लिए बीमा कंपनियों को। यह कैसा बीमा है कि प्रीमियम व्यक्तिगत ले रहे हैं, लेकिन क्लेम पूरे गांव का नुकसान होने पर ही मिलेगा। फसल बीमा के नाम पर सरकारें 66 हजार करोड़ रुपए का प्रीमियम भर चुकी हैं। ये 58 हजार करोड़ रुपए की रफाल डील से भी ज्यादा है। फसल बीमा के नाम पर सरकार हर साल 20 हजार करोड़ रुपए का प्रीमियम भरती है, फिर भी किसानों को कुछ नहीं मिलता।
- मध्यप्रदेश में कर्जमाफी पर...
कर्जमाफी अहम है, लेकिन यह पहला कदम है। पूरा समाधान नहीं है। देश में 6% किसान एक्सेस करते हैं एमएसपी। करोडों किसानों का एमएसपी तक एक्सेस ही नहीं है। अभी मप्र में अच्छा चांस है किसानों के लिए काम करने का। कर्जमाफी के अलावा क्रेडिट सिस्टम रिवाइवल की जरूरत है। इसके रीस्ट्रक्चरिंग की जरुरत है। ऐसा नहीं हुआ तो अगले साल फिर यही हालात बन जाएंगे। किसानों को साहूकार से ही कर्ज लेना पड़ेेगा। टाइमली किसान को क्रेडिट मिलता रहे। मेरी अपील है सरकार से कि मनरेगा कि तहत तालाब बनाएं।
कर्जमाफी से मध्यमवर्ग की नाराजगी पर...
12 कंपनियों का एनपीए किसानों के एनपीए से भी दोगुना है। आप विजय माल्या, मेहुल चौकसी, नीरव मोदी को पकड़ो। किसान के एनपीए का प्रतिशत ज्यादा नहीं है। आप उन लोगों के बारे में बात कर रहे हैं, जो आपको टेबल पर खाना देते हैं। मध्यम वर्ग को भी तो हाउसिंग लोन के नाम पर सब्सिडी मिलती है। अब मध्यमवर्गीय लोग भी सरकार की नीतियों को समझ गए हैं और वे किसानों के समर्थन में आगे आ रहे हैं।