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धर्मातंरण और घर वापसी

रघु ठाकुर, सागर.

पिछले कुछ दिनों से धर्मातंरण व घर वापसी के सुझाव व स्वर कुछ तीखे स्वर में तथा सामूहिक आयोजनों या प्रदर्शनों के रुप में, सुनने में ज्यादा आ रहे है। धर्मातंरण एक विचार परिवर्तन या नये विचार के रुप में, मानव इतिहास व सभ्यता के विकास के साथ जुड़ी हुई स्थिति रही हैं। कौन सभ्यता दुनिया में कब आयी-कौन पहले आयी या कौन बाद में, ये प्रश्न, धार्मिक जगत के बौद्धिक कसरत व कुछ अर्थों में आजीविका से जुड़े प्रश्न है। आखिर जो धर्म अपने आपको सबसे प्राचीन मानता है, हम तर्क के लिये उसे ही सबसे प्राचीन मान ले तो उसके पूर्व क्या था? क्या व्यक्ति बगैर किसी धार्मिक या ईश्वरीय कल्पना के था? तथा अगर ऐसा था तो वह कितना सुंदर अहिसंक व गैर झगड़ालू रहा होगा? जब मानव जीवन का अस्तित्व दुनिया में, आया होगा तो उस प्रथम मानव का धर्म क्या रहा होगा? 

धर्मातंरण और घर वापसी
धर्म मानव जीवन के वगैर तो हो नही सकता, इसका अर्थ ही यह हुआ कि धर्म मानव सृजित विचारधारा है जिसे, इंसान ने अपने युग-समझ-काल के अनुरुप बेहतर जीवन बेहतर भविष्य व बेहतर इन्सान के निर्माण के लिये सोचा। कभी-कभी मानव मस्तिष्क, मानव के दुनिया में आने की क्रिया, उसके शरीर के निर्माण प्रकृति और मानव के रिष्तों जीव-जंतुओं का जन्म या पुन निर्माण और इसी के आधार पर पुर्नजन्म आदि पर भी चिंतन विचार करता रहा है। विष्व या ब्रम्हांड के खोजो के, मानवीय प्रयासों को भी कुछ लोग धर्म के रुप में या, फिर सनातन धर्म के रुप में देखते है। अग्नि, जल, वायु, आदि को भी प्राचीन चिंतन के आधार पर धर्मतत्व के रुप में, जाना व माना जाता रहा है। विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ, विज्ञान व इन धार्मिक मान्यताओं में कुछ टकराव या मतभेद उभरे है। परंतु धर्म के थोक विक्रेता, विज्ञान की नई खोजों या मान्यताओं को, तर्क के आधार पर नही, वरन अधार्मिक या धर्म विरोधी कहकर अस्वीकारते हैं। यह स्वाभविक ही है क्योंकि अगर वे इन विज्ञान की नई मान्यताआें को, जो आज तार्किक नजर आती है, स्वीकार कर लेगें तो इसका प्रभाव, उनके समर्थक तबके पर होगा, जिसका परिणाम उनके धर्म व्यापार कार्य पर भी विपरीत होगा। आज, देश में, एक मोटे अनुमान के अनुसार 4-5 करोड़ लोग है, जिनकी रोजी-रोटी धर्म के माध्यम से (पंडा, पुजारी, मौलाना, इमाम, फादर, ग्रंथी के रुप में) या पूजापाट धार्मिक क्रियाओं के सामान विके्रता के रुप से या अन्य कई रुप में चल रही है और इसे जारी रखने के लिये, उन्हें धर्म की स्थापनाओं, परंपराओं या कर्मकांडो की आध्यमिकता, प्राचीनता, सर्व कालिकता व विश्वसनीयता सिद्ध करना जरुरी है। भला कौन सा प्रंबधक, अपनी कंपनी को बंद करना चाहेगा?

एक धर्म के अनुयायिओं में, कालांतर में, जो नये प्रश्न या विचार जन्मे, जिन्होंने, धर्म पर चढ़ी धूल-पंरपराओं की कट्टरता-कर्मकांडो के व्यवसाय, व प्रचार की ताकत व तार्किकता को, चुनौती दी, तथा उसे, दृढ़ता के साथ, जोखिम उठाकर नये पर बड़े वर्ग ने स्वीकार कर लिया तो, वह नया धर्म हो गया। हांलाकि पुराने धर्म गुरु या धर्म की व्यवस्था, उन्हें धर्म नहीं वरन पंथ, याने सड़क के बाजू से निकलने वाली गली ही बताते है। हिन्दु सनातन धर्म को धर्म तथा, वैष्णव-शैव-जैन-बुद्ध-सिख आदि को पंथ बताते है तथा इतिहासकार भी अमूमन इन्हें कई बार सुधार का पंथ बताते है। जिन्होंने धर्म के ऊपर चढ़े कर्म कांडों के बोझ व आवरण को उतारकर, फिर कुछ नया रास्ता या तर्क दिखाया। हांलाकि यह भी वे (हिन्दू) कोई मन से नहीं स्वीकारते बल्कि लाचारी में तार्किक कारणों से तात्कालिक तौर पर स्वीकर कर लेते है तथा समय-स्थितियों के बदलने का इंतजार करते रहते है ताकि उपयुक्त समय पर, पुन: इन पंथों से, अपनी जमीन वापिस हासिल कर सकें। यह बुद्ध धर्म के साथ भी हुआ। हांलाकि अब, इन पंथों के अनुयायियों में भी, अपने सूदूर अतीत को भूलकर, पृथक अस्तित्व की भावना जोर पकड़ रही है तथा उसे, कुछ बाहय आर्थिक षाक्तियां भी अपने हितों के लिये बल पहॅचा रही हैं। धार्मिक एकता ही, राष्ट्रीय एकता का साधन है ऐसा कुछ लोग मानते हैं। हांलाकि एक धर्म को मानने वाले राष्ट्रो के बीच ज्यादा युद्ध व विभाजन हुए है वनिस्वत अनेकों धर्मवालों के अनेकता-सहनषीलता व समन्वय के साथ जीना सिखलाती हैं। धर्म का स्वरुप तो वैष्विक होना चाहिये, क्योंकि धर्म के लिये, कोई क्षेत्रीय या राष्ट्रीय सीमायें नहीं खीची जा सकती। विचार तो, वैष्विक ही होेगा। कर्मकान्ड या पंरपराओं के आग्रह क्षेत्रीय हो सकते है। इसलिये धार्मिक अनेकता राष्ट्रीय ऐकता के लिये कोई चुनौती या प्रतिस्पर्धा नहीं होना चाहिये। परंतु वर्चस्व वाला समाज या वर्ग अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिये, छोटी-छोटी सीमा रेखायें खींचता जाता है। यह मानवीय सत्ता लिप्सा ही है चाहे वह सत्ता की हो, राज्य की हो, या धर्म की। दुनिया में, धर्म के नाम पर ज्यादा युद्ध हुए है बजाय किसी अन्य कारणों के। कुछ लोग धार्मिक श्रेष्टता के पीछे, नस्लीय या जातीय श्रेष्ठता के विचार भी छिपाये रखते है तथा धर्म के नाम पर इन्हें कायम करने का स्वपन देखते है। निसंदेह पंथ या, किसी धर्मावंलवियों के बीच से जन्मे नये धर्मो ने, उन धर्मो में, जमी हुई धूल और जकड़न को साफ किया तथा, नये विचार सामने रखे। चाहे वह बुद्ध हो या जैन, सिख हो या कोई अन्य। आर्य समाज जैसे संगठनों ने भी हिन्दु धर्म में, आई जाति प्रथा, मूर्ति पूजा कर्मकांड आदि को नकार कर एक नई चेतना पैदा करने का प्रयास किया था। वैदिक काल से लेकर आर्य समाज तक वन्य जीवन से पशुपालन के रास्ते कृषि युग तक की यात्रा है। जैसे आंरभिक दौर में अग्नि व पशुबलि की पंरपरा शायद कृषि ज्ञान के अभाव में जरुरी भी रही हो, परन्तु कांलातर में यह कृषि काल आते-आते, प्रतीक पंरपराये बन गये। प्रतीक, पंरपराओं का विकास व स्वीकार्य लगभग सभी धर्मों या पंथो में किसी न किसी रुप में हुआ है। इस्लाम में, बकरीद के समय अपने प्रिय की बलि दी जाती है पर यह प्रिय बकरा ही क्यों है, बकरे को तो, केवल ईद के लिये खरीदकर खिलाया जाता है, जबकि इन्सान को सबसे पहले प्रिय तो अपना परिवार व संतान होता है। जिसे वह बचपन से, आखिरी क्षण तक पालने बचाने, व जिंदा रखने का उपक्रम करता है। इसका अर्थ हुआ कि इस्लाम ने भी धर्म को मानव, बलि परंपरा से मुक्त किया। तथा पशु वध को स्वीकारा। इसकी शायद एक वजह यह भी रही हो कि इस्लाम के उदयकाल में, कृषि, पहाड़ों, रेतीले या बंजर भूमि टीलो आदि की वजह, से सुविधाजनक न रही हो। यह पशुवध की परंपरा कई भारतीय धर्म परंपराओं या समाज परंपराओं में भी रही है। क्रामाख्या देवी मंदिर में देवी को पशु बलि तो चढ़ाई जाती रही है। कृषि काल ने, पशुवध की पंरपराओं को बदला तथा, गाय भैस, बैल,पाड़ आदि का प्रयोग, कृषि के लिये, उपकरण के रुप में, आरंभ किया। जिससे इन पशुओं के संरक्षण का विचार पनपा व मजबूत हुआ। जैसे आजकल जानवरों की नस्लो को संरक्षित करने के लिये,षेर चीतल, तेदुआ आदि वन्य प्राणियों तथा पक्षियों के वध पर, वैधानिक रोक लगाई गई है।

बहरहाल,आजकल धर्म के दार्शनिक पक्ष के बजाय, कर्मकांड व परंपराओं पर ज्यादा जोर होता है। न केवल भारत में, बल्कि समूची दुनिया में, केवल प्राचीन आदिवासी समाजों को छोड़कर धर्म एक जन्मना वंषानुगत उत्तराधिकार जैसा बन गया है। मैं इसलिये हिन्दू हॅ क्योंकि मेरे पिता हिन्दु थे और वे भी इसलिये हिन्दु थे क्योंकि उनके पिता हिन्दु थे लगभग यही स्थिति, इस्लाम, ईसाई, सिख, बुद्ध, जैन आदि सभी धर्मो की है इस अर्थ में भी व अन्य कई रुपों में, भी धर्म दार्शनिक पक्ष के चयन के बजाय सांपत्तिक अनिवार्य उत्तराधिकार जैसा हो गया है। दरअसल, धर्म व धार्मिक संस्थाओं का जनतंत्रीकरण जरुरी है। अगर यह हो जाय तो, ये धर्म परिवर्तन, गृहवापिसी आदि सभी समस्याओं का निदान हो जायेगा। सभी धर्म समूहों के नियंत्रक और समाज अगर यह व्यवस्था चुन लें कि व्यक्ति के 18 वर्ष के होने पर, उसे अपना मजहब चुनने का अधिकार होगा, वह चाहे तो किसी भी मजहब को चुने या किसी को भी न चुने तो यह विवाद ही खत्म हो जायेगें। धार्मिक संस्थाओं में भी भारी सुधार होगें तथा धर्म के नाम पर सत्ता के खेल जो संघर्ष व सांप्रदायिकता पैदा करते है, अपने आप समाप्त हो जायेंगे।

दरअसल पिछले 7-8 सौ वर्षो में, धर्म के पीछे के तर्क चेतना आदि लगभग समाप्त हो गये है। धर्म एक रुढ़ि जड़ हिसंक व कठोर संस्था बनता जा रहा है कभी-कभी वैचारिक अतिवाद के कारण या कभी-कभी वैचारिक प्रतिवाद के कारण। दुनिया में जितने युद्ध धर्म के नाम पर लड़े गये है वे सामान्य युद्धों से कहीं ज्यादा तथा, एक मोटे अनुमान के अनुसार इन धर्म के नाम के धर्म युद्धों में, मरने वालों की संख्या करोड़ों में है। ये भिन्न-भिन्न धर्मो में भी हुए है। तथा एक धर्म के ही अनुयायियों, के खडों, उपखंडों में भी हुए है। कभी इनके कारण धार्मिक आग्रह या धार्मिक वर्चस्व, कभी राजपाट, कभी संपत्ति या नारी विवाद आदि रहे है। धर्म के ज्ञात इतिहास में, आरंभ में तो भी धर्म एक ही धर्म रहा होगा, या हो सकता है कि न भी रहा हो,याने (जब, मानव रुपी जीव अस्तित्व में आया वह ईश्वर जन्मा हो या विकास क्रम हो) दरअसल धर्म की अवधारणा कि, कई करोड़ योनियों के बाद मानव जन्म मिलता है जहां एक विरक्ति भोग विरोधी हिन्दु दर्शन है, वहीं विकासवाद की भी कल्पना है जिसमें जीव जंतुओं का, रुपान्तर होता रहता है। डार्विन का विकास वाद (केवल आत्मा या पाप-पुण्य के पक्ष को छोड़े जो शायद तत्कालीन समाज को, मानसिक भय दंड से डराकर, सामाजिक बने रहने के लिये कल्पित कल्पनायें हो) भी, लगभग वहीं कल्पना अनुमान या विश्लेषण है। 
धर्मातंरण और घर वापसी
जब दुनिया में, दूसरे धर्मो की या पंथो की शुरुवात हुई होगी तभी तो, धर्म परिवर्तन चाहे स्वैच्छिक या बाध्यकारी शुरु हुआ होगा। इस्लाम के उदय के बाद इस्लाम का फैलाव हुआ ईसा के बाद ईसाई मत का फैलाव हुआ, तथा, आरंभ में तो यह वैचारिक मतांतर या दार्शनिक कल्पना रही जिसे कुछ लोगों ने अपने से पहले के प्रचलित धर्मो या मान्यताओं को त्यागकर, नया पंथ अपनाया होगा पंरतु, कालांतर में यह भी जन्मना उत्तराधिकार के धर्म बन गये। यही स्थिति अब सिख, बुद्ध या जैन व अन्य धर्मो की भी है।

भारत में धर्मान्तरण इसलिये भी लोगों के लिये चिंता का विषय रहा है, क्योंकि, धर्म आस्था के आरंभ में कुछ ऐतिहासिक केन्द्र थे, जो अब उक्त धर्मावांलबियों की धार्मिक राजधानी या धर्म नियंत्रण केन्द्र जैसे बन गये है। और अगर धर्म और राज्य के बीच व्यक्ति धर्म को प्रथम मानेगा तो स्वाभाविक है कि वह अपनी आस्था के केन्द्र, उसकी ताकत व नियंत्रण को भी किसी न किसी रुप में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में स्वीकारेगा। ईसाई के लिये पोप व वेटिकन सिटी-मुस्लिम के लिये मक्का,मदीना, सिख के लिये अकाल तख्त व अमृतसर का स्वर्ण मंदिर हिन्दुओं के लिये चारो मठ आस्था, विश्वास व अपनत्व के केन्द्र रहेगे। फिर शुरु होती है धर्मवालंवियों की बिरादराना एकता। तथा अमूमन यह इतनी कट्टर हो जाती है कि अपने मजहब वाले राष्ट्रों के अपराधों पर चुप्पी साध लेती है तथा उल्टे समर्थन करती है। यह एक प्रकार से अपनी वैचारिक आस्थाओं या तरीकों व पंरपरा की श्रेष्ठता का साम्राज्यवाद है जो, राष्ट्रवाद से टकराता है तथा कई बार राष्ट्रीयता को कमजोर भी करता है। हाल ही में फ्रांस में घटी घटना, जिसमें ‘‘शार्ली एब्दो’’ पर आंतकवादी हमला हुआ या बामियान में हजारों वर्ष पुरानी बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़ना आदि ऐसी ही विकृत घटनाएं है। दुनिया में इन विकृतियों, अपराधों तथा संघर्षों के पीछे एक ही अहम कारण है वह है श्रेष्ठता का भाव, याने हमारा विचार तरीका व इतिहास अतीत पुरखे ही सर्वश्रेष्ठ है। 

दरअसल धर्म ने भी दुनिया में एक जातिवादी स्वरुप ले लिया है और अब दुनिया, इस श्रेष्ठता के अहम के संघर्षों को झेलने के लिये, शापित हो रही है। हटिंगटन का विश्लेषणात्मक सिद्धांत ’’सभ्यताओं का संघर्ष’’ वस्तुत: श्रेष्ठताओं के अहम व साम्राज्यवाद का ही संघर्ष है। श्रेष्ठता का भाव ही विषमता का मूल है जो एक में अपने प्रति श्रेष्ठता तथा दूसरे के प्रति हिकारत या हीनता का भाव पैदा करता है। वर्चस्व का प्रयास तथा वर्चस्व से मुक्ति के प्रयास दोनो युद्ध व संघर्ष के कारक बनते हैं। अगर वास्तव में इन्सान को आजाद या मुक्त होना है तो वर्चस्व अधिपत्य श्रेष्ठता व हीनता के विचारों या मनोभावों से उबरना होगा। व्यक्ति को आधिपत्यों से मुक्त करने की क्रिया ही तो धर्म या समाजवाद है इस अर्थ में, आधिपत्य के प्रयास ही अधर्म व पूंजीवाद है।

यह एक तय है कि दुनिया में, कई बार धर्म भी ताकत व सत्ता के कारण फैले हैं। कई इतिहासकार बताते है कि भारत में इस्लाम या ईसाई मजहब विदेशी हमलों या शासकों के साथ आया। भले ही कालांतर में कुछ लोगों ने उसे समझ बूझ कर स्वीकारा हो परतुं ऐसे धर्मावलंबियों की संख्या सीमित ही है। धर्मान्तरण अगर कोई व्यक्ति अपने वास्तविक विचारों के परिवर्तन से करते है तो किसी को आपत्ति नही होना चाहिये। परंतु जब धर्मान्तरण सत्ता को टिकाने या सत्ता हथियाने का हथियार बन जाता है तो धर्म-धर्म न रहकर स्वत: हिंसा व तानाषाही का अलोकतांत्रिक हथियार बन जाता है। अगर व्यक्ति का धर्म परिवर्तन उसकी समझ ज्ञान व अनुभव से हुआ है तो उसके लिये किसी जलसे की सार्वजनिक घोषणा की क्या आवष्यकता है? यह एक नितांत निजी क्रिया होगी जिसमें कोई सामूहिक प्रदर्शन नहीं होगा। हांलाकि कुछ लोग धर्मपरिवर्तन के पक्ष में बाबासाहब अंबेडकर का नाम जरुर लेगे। परंतु बाबा साहब के सामूहिक धर्म परिवर्तन के इन पहलुओं को ध्यान में रखना होगा:-

1. उनका धर्म परिवर्तन अपने दीर्घ अतीत से विद्रोह तथा अपने बीच के अतीत से मिलन दोनों एक साथ थे। वे हिन्दु संस्था से हटकर, एक जन्मना हिन्दू द्वारा मानव मुक्ति के लिये कथित दूसरी संस्था बुद्ध धर्म में शामिल हो रहे थे।

2. उन्होंने किसी लालच में नहीं, वरन हिन्दु समाज को एक मानसिक आघात पहुंचाकर सुधारने के लिये चेतावनी के रुप में, वह कदम उठाया था।

3. हिन्दु धर्मावंलबियों का धार्मिक परिवारवाद भी इसे बर्दाश्त करने के पीछे कारण रहा है। क्योंकि आम हिन्दु बुद्ध, सिख, जैन, आदि को अपने ही व्यापक पुराने परिवार का अंग मानता है तथा, इन धर्मो को प्रथक धर्म नही बल्कि हिन्दु सुधार आग्रह मानता है। इसलिये धर्मान्तरण के विरोध में, जो तीखी प्रतिक्रिया इस्लाम या ईसाई आदि के मत (धर्म)परिवर्तन करने पर होती हैं, वह बुद्ध- जैन-सिख आदि धर्मो में परिवर्तन पर नहीं होती या उतनी तीखी नहीं होती। इसीलिये गुजरात व अन्य राज्यों में राष्ट्रीय स्ंवय सेवक संघ के विचारों से, लेस, भाजपा सरकारों ने, जो धर्मांतंरण विरोधी कानून पारित करने के प्रयास किये, उनमें, मुस्लिम व ईसाई धर्मों में, परिवर्तन को ही रोकने का उपक्रम किया गया। हो सकता है कि, इस प्रकार संघ, भाजपा गैर हिन्दु मतावंलबियों को विभजित रखना चाहती हो।

जो लोग धर्मान्तरण के, सामूहिक आयोजन कर रहे है, वे मत परिवर्तन या दार्शनिक परिवर्तन नही, वरन दिखावा तथा अन्यों को चिढ़ावा ज्यादा है। इन धर्मान्तरणों के विरोध के पीछे कुछ विरोधकर्ता संस्थाओं या व्यक्तियों के, संस्थागत-सांपत्तिक हित व कभी-कभी कुछ राष्ट्रीय चितायें भी होती है। जिन्हें इन घटनाओं के पक्ष व विपक्ष दोनों समूह जानते हैं, तथा इस विचार के प्रति सचेत भी हैं कि धर्म विचार से कम सत्ता से ज्यादा व शीघ्र फैलना है। हालांकि धार्मिक एकता कोई, राष्ट्रीय निष्टा का पर्याय नहीं है। कई बार धर्म के ही खण्डों उपखण्डों में भी संघर्ष हुए हैं शिया-सुन्नी-हिन्दु-सिख, हिन्दु-जैन, हिन्दु-बुद्ध कैथोलिक-प्रोटेस्टेट आदि धर्म खंड समूहों में भी संघर्ष हुए हैं। फिर भी अगर सामूहिक प्रदर्शन-कारी धर्मांतरणों के आयोजन न हो तो दूसरे धर्म समूहों की भय से उपजी एकता व प्रतिक्रिया भी कुछ कम होगी।

अभी कुछ दिनों से जब धर्मान्तरण को ले कर देश में ज्यादा वाद-विवाद छिड़ा तो स्वंय राष्ट्रीय स्वय सेवक संघ के मुखियायों ने (मुखिया तथा संघ की षाखाओं ने) इस धर्म परिवर्तन को ‘‘गृहवापिसी’’ का नाम देकर चलाना शुरु किया है। परंतु यह गृह कौन या क्या है? एक अर्थ में या उनकी परिभाषा को अगर मानें तो ‘‘हिन्दु धर्म से निकले जो लोग है उनकी गृह वापिसी याने उनकी हिन्दु धर्म में वापिसी’’। तो फिर यह गृह वापिसी कहां तक जायेगी। अभी तो इस्लाम से ईसाईयत से हिन्दु धर्म में वापिसी फिर क्या यह गृहवापिसी सिख, जैन बुद्ध आदि पर भी लागू होगी? सिख व्यक्ति रुपी ईश्वर की पूजा.में विष्वास नहीं करना वरन उनका विश्वास गुरुग्रंथ तथा गुरुओं की पूजा में है। वास्तविक जैन दर्शन के अनुसार महावीर या अन्य तीर्थंकर जैन दर्शन के श्रेष्ठ ज्ञाता व पालनहार है। भले ही आज अधिकांष जैन बधुओं ने अपनी सुविधा की दृष्टि से, महावीर जी की प्रतिमा में जैन दर्शन को या बुद्ध को मानने वाले ने बुद्ध प्रतिमा में बुद्ध धर्म को कल्पित और सीमित कर लिया हो। आजकल तो, सिखों, जैन,व बुद्ध धर्मावंलवियों में, एक नये विचार व पीढ़ी का उदय हो रहा है, जो तार्किक-अतार्किक ज्ञात या अज्ञात कारणों से, या कुछ विदेशी साहित्य प्रचार के प्रभाव में अपने अतीत को, हिन्दु से प्रथक कर देखने लगा है। तथा निजी बातचीत मेंं, खुलकर कहने लगा है कि हिन्दु, से हम पूर्णत: प्रथक है। पहले कुछ सिख विद्धान कहते व लिखते थे कि सिख धर्म की स्थापना, हिन्दुओं की रक्षा या जाति प्रथा के विरुद्ध हुई थी। जैन या बुद्ध दर्शन का भी हिन्दु में पैदा हुई जड़ताओं के विरुद्व सुधार पंथ के रुप में उदय हुआ था परतुं अब एक नया विचार अपने अतीत से सम्पूर्ण रुप से विलग होकर देखने का है। विचार और अतीत की ऐकता, संबधों में भाई चारा प्रेम और सौहार्द का सृजन करते है, तथा पृथकता के भाव को कम कर एक व्यापक ऐकता के सूखी जड़ों के साथ-साथ कल्पना लोक का सृजन करते है। पर अतीत से सम्पूर्ण अलगाव जड़ों से दूर होकर रसदार जड़ों से भी दूर होना होता है। हो सकता है गृह वापिसी के नारे, धर्मान्तरण के सामूहिक आयोजनों व 2025 तक भारत को पूर्ण हिन्दू राष्ट्र में बदलने की घोषणाओं का संसदीय पक्षो या राजनैतिक पक्षों द्वारा विरोध जिस तीव्रता से हुआ तथा जो निंरतर राज्यसभा में प्रतिपक्षीय दलों के (गैर सरकारी दलों) बहिष्कार का कारण बना, उसके आघातों से केन्द्र सरकार को बचाने को नये नारे को नये शब्दों में गढ़ा गया हो।

बहरहाल एक बात तय है कि, धर्मान्तरणों के जश्न को पर्व या विजय पर्व मनाने के बजाय, निम्न पहल की जानी चाहिये ताकि:-

1-देश में हरहाल में भावनात्मक मानसिक एकता कायम रहे तथा किसी पक्ष को न अपमान महसूस हो, न आघात पहुचे।

2- जो धर्म समूह अपना फैलाव चाहता है, वह विचार दर्शन व कर्म को अपना आधार बनाये। आत्मचिंतन व आत्म सुधार करें ताकि उससे भिन्न विचार वालों की वैचारिक दूरियां कम हो।

3-लोभ-लालच-भय आदि से धर्मातंरणो पर रोक लगाएं। गृह वापिसी के बाद, आंगतुकोें को किस जाति कक्ष में रहना होगा यह भी स्पष्ट करें। कहीं ऐसा तो नहीं कि जहां से चले वे वहीं पहुंच जाये, याने उसी जाति विषमता की पीड़ा के फिर शिकार हो। क्योंकि अभी भी लगभग सभी धर्मो में जाति प्रथायें जारी है तथा शादी-ब्याह-सामाजिक स्तर के निर्धारण की कसौटी है। धर्म समूह या जाति समूह अपनी अन्य कमियों या बुराईयों के बावजूद भी सामाजिक संबन्धों का अवसर देते है। शादी ब्याह का आधार होते है। इन नये घर वापिसी वालों की शादियां किस जाति समूह में होगी या उनका भी एक प्रथक जाति समूह बन जयेगा, यह अनुत्तरित ही है? तथा यह उनका भय भी है। अगर हिन्दुधर्म के तथाकथित प्रचारक व रक्षक वर्ण व जाति को नकार कर स्वेच्छा से अपने परिजनों की शादियां, दलितों-पिछड़ों, आदिवासियों में करना शुरु करें तो एक अच्छी शुरुआत होगी। वरना अभी तो आमतौर पर हिन्दुओं का बहुमत इस धर्मांतरण विरोधी-घर वापिसी मुहिम को जातिवाद के पुनरोदय के रुप में ही महसूस कर रहा है।

एक शंकराचार्य पद प्राप्त महानुभाव, शिरडी के साई बाबा की प्रतिमा स्थापना-मंदिर निर्माण या उन्हें भगवान माने जाने के विरुद्व अभियान चला रहे हैं। उनका कहना है कि हिन्दु धर्म में तीन ही भगवान माने गये है। अब प्रश्न ये उठते है कि अगर कोई किसी को भगवान मानता है, तो उस पर, शंकराचार्य रोक किस अधिकार से लगाते है यह तो मानने वाले व्यक्ति के श्रद्वाभाव पर ही निर्भर है, कि वह किस की मूर्ति लगाये? किस की न लगाये? यह उसका निजी अधिकार है क्या शंकराचार्य के द्धारा, शिरडी के साई बाबा की मूर्ति स्थापना पर रोक, कुछ वैसी ही घटना नहीं है। जैसी सोमनाथ के मंदिर की मूर्तियों को आक्रमकों ने तथा, अफगानिस्तान में, बुद्ध की मूर्तियों को तालिबानों ने तोड़ा था। जिस प्रकार मूर्ति पूजा करना या न करना व्यक्ति का अपना निर्णय है। उसी प्रकार किसे भगवान मानना या नही मानना व्यक्तिगत निर्णय है। अब उन्हीं शंकराचार्य ने, शिरडी की संपत्ति को गरीबों में बांटने की मांग की है। हांलाकि उन्होंने ऐसी इच्छा कभी हिन्दु मंदिरों की संपत्ति को बॉटने या अपने स्वत: के मठों व केन्द्रों की संपत्ति को बांटने की नहीं की। क्या ऐसा प्रतिक्रियावाद व अंतर्मन की कट्टरता किसी हिन्दु की हो सकती है? या होना चाहिये। तुलसी तो कहते है ‘पर पीड़ा सम नही अधिमाई’। अच्छा होता कि शंकराचार्य जी पहले अपने आश्रम की फिर हिन्दु मंदिरों की संपत्ति बंटवाते तब फिर शिरडी पर जाते, तथा ‘चेरिटी बिगन ऐट होम’ पर अमल करते।

5. धर्म समूह अपने विचार दर्शन व कर्म कांड को इतना आदर्श उदार व साफ रखें कि वह व्यक्तियों को स्वत: प्रेरणा बने। इन थोक बंद धर्मपरिवर्तन के आयोजन से, भय कट्टरता और अलगाव ही बढ़ेगा जो देर सबेर आंतकवाद को तर्क व प्रेरणा देगा।

6. अच्छा हो कि, सभी धर्मो के प्रचारक स्वत: निर्णय करें कि किसी भी प्रकार के प्रलोभन (पैसा-सत्ता-शाही सुविधा) से, धर्मपरिवर्तन न करायेगें, न उसे स्वीकार करेंगे। शादी के लिये धर्म परिवर्तन की अनिवार्यता को रद्द करें तथा सब स्वत: एकमतेन ऐसे धर्मान्तरणों पर, देश में तथा दुनिया में कानूनी या स्वैच्छिक रोक के लिये, पहल करें। पकिस्तान के या अन्य इस्लामिक देशों के ईशनिन्दा जैसे कानून भी समाप्त किये जाने की पहल करना होगी। श्री जकारिया जी लिखते है कि ईशनिन्दा का प्रावधान इस्लाम में नहीं है वरन ईसाई मत में है। परंतु क्या यह अंतर्विरोधी नहीं है कि ईशनिन्दा जैसे कानून दुनिया में केवल इस्लामिक देशों में बने है?  ईसाई बहुमत वाले देशों में नहीं। इस्लाम मानने वालो के बहुमत वाले देशों में, इस्लामिक राज्य तथा ईसाई बहुमत वाले देशों में, धर्म निरपेक्ष राज्य सत्तायें है क्या वे इस तथ्य को आत्मसात व परिभाषित कर दुनिया के इस्लामिक देशों को सुधार के लिये प्रेरित करेंगे ? अच्छा हो कि एक धार्मिक राष्ट्र के बजाय विविधता वाले लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाने की पहल करें तथा भारत के विहिप, बंजरग दल जैसे संगठनों के नेता भी धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के महत्व को समझे। अगर वे हिन्दु राष्ट्र की बात करेगें तो दुनिया के दूसरे देशों की आलोचना या उनके बदलने का, कहने का, उनका नैतिक अधिकार नहीं रहेगा। आशा है कि हाल के धर्मान्तरण, घर वापिसी जैसे नारों व आयोजनों की विफलता से कुछ सबक इन्होंने सीखा होगा। तथा ऐसे कामों से वे अपने धर्म को प्रचारित कर रहे है या बदनाम, यह उन्हें ही तय करना है।

सबसे अच्छा तो यही होगा कि सभी धर्म समूह अपने धार्मिक नियंत्रण व जन्मना धर्म परंपरा से इन्सान को आजाद कर दे। बालिग होकर वह अपना धर्म स्वत: चुन लेगा या बगैर धर्म की संस्थाओं के रह लेगा। मुक्ति एकता है बंधन कैद। मुक्ति ज्ञान समझ व प्रेम है बंधन दासता व घृणा। धर्म मुक्ति मार्ग है बंधन अधर्म मार्ग। अब ये धर्म के स्वयभू ठेकेदार तय करें कि वे धर्म चाहते है या अधर्म । पर लोकतंत्र में निर्वाचित सरकारों को इन्सान की आजादी की रक्षा के लिये, कठोर हाथों के इस्तेमाल की जरुरत होती है।

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