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योजनाबद्ध झूठ का विस्तारवाद

रघु ठाकुर, सागर.
 
अंग्रेजी भक्तों/प्रचारकों ने एक नया भ्रम अभियान शुरु किया है कि देवनागरी के बजाए रोमन लिपि अपना कर हिन्दी भाषा को वैश्विक रुप दिया जा सकता है। श्री चेतन भगत अंग्रेजी के युवा लेखक हैं जो देश के अंग्रेजी समर्थक तबके में, जो तबका नव धनाढ्यों का है, काफी चर्चित हैं तथा उन्हें अंग्रेजी समर्थक जगत के मीडिया मे निरन्तर प्रमुखता से छापा जाता है और इसीलिए देश की अंग्रेजी के प्रभाव से मानसिक रुप से ग्रसित पीढ़ी उनके उपन्यासों या किताबों को कुछ पढ़ती भी है और न भी पढ़े तो घर में सजाकर रखती है। श्री चेतन भगत ने अब यह ख्याल पेश किया है कि हिंदी के लिए रोमन लिपि का इस्तेमाल किया जाए। यह पक्ष प्रस्तुत करते हुए उन्होंने जो आधार या तर्क दिए हैं उन पर विचार जरुरी है- 


चेतन भगत
1-सरकार के द्वारा हिन्दी को प्रोत्साहित करने के बावजूद भी अंग्रेजी लगातार बढ़ती जा रही है। प्रचार तंत्र के अनुसार उनका यह कथन कुछ हद तक सही भी लगता है, परन्तु उसका कारण सरकार की अनेच्छिक पहल है। अगर सरकार रोजगार और भविष्य की बेहतरी का विकल्प (केरियर) हिंदी में उपलब्ध कराये तो अंग्रेजी में इस्तेमाल करने वालों की संख्या नगण्य हो जायेगी। अंग्रेजी विश्व की भाषा नहीं है, बल्कि दुनिया के एक छोटे से हिस्से की ही भाषा है। अंग्रेजी का विस्तार कोई भाषा की क्षमता के कारण नहीं हुआ था बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कारण हुआ था। तय यह है कि अब विश्व तो छोड़ें यूरोप के भी अधिकांश देश अपनी ही भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं न कि अंग्रेजी का। विश्व व्यापार संगठन जो वैश्विक पूंजीवाद का कार्यकारी संगठन है और अप्रत्यक्ष रुप से नव-आर्थिक साम्राज्यवाद का दस्तावेज है, ने अवश्य अंग्रेजी को अपनी भाषा के रुप में स्वीकार कर लिया है। यह अंग्रेजी की स्वीकार्यता कमजोर व गरीब देशों द्वारा संपन्न और ताकतवर देशों के सामने दुम हिलाऊ प्रवृत्ति का कारण है। 

2-श्री चेतन भगत लिखते हैं कि ‘‘समाज में अंग्रेजी को अधिक सम्मान प्राप्त है तथा अंग्रेजी सूचनाओं और मनोरंजन की बिलकुल ही नई दुनिया खोलती है, अंग्रेजी के जरिए नई टेक्नालाजी तक पहुंच बनाई जा सकती है।‘‘ श्री भगत को जानना चाहिए कि अंग्रेजी को या अंग्रेजी जानने वालों को विशेष सम्मान दिया जाना मानसिक दासता का ही प्रतीक है। आज भी देश का एक हिस्सा ब्रिटिशा साम्राज्यवाद और अंग्रेजी की श्रेष्ठता की हीन ग्रंथि से उबर नहीं पाया है। उन्हें यह गलतफहमी है कि सूचनाएं या मनोरंजन केवल अंग्रेजी से ही मिल सकते हैं। हर समझदार और आत्म सम्मान प्रेमी देश अपनी ही भाषा में सूचनाएं देता-लेता है। चीन मेंडोरिन में सूचनाओं का आदान-प्रदान करता है और आज वह अमेरिका के मुकाबले सम्पन्न और शक्तिशाली अपनी मातृभाषा का इस्तेमाल करके बना है, यह एक खुला तथ्य है। नई टेक्नालाजी को बेचने वाले व्यापारी वर्ग का उद्देश्य कोई भाषा का प्रचार नहीं होता है बल्कि व्यापार और मुनाफा होता है। अगर उन्हें यह बाध्यता लगेगी कि भारतीय बाजार में प्रवेश और लाभ के लिए हिन्दी जरुरी है तो वे तकनीक की भाषा हिन्दी कर लेंगे। यह काम भारत भी कर सकता है कि हम दुनिया से तकनीक लेकर उसे अपनी भारतीय भाषाओं में तब्दील कर लें ताकि देश की बहुसंख्य आबादी सरलता व शीघ्रता के साथ तकनीक का ज्ञान प्राप्त कर सके और उपयोग कर सके। 


3-श्री भगत ने स्वत: को हिंदी प्रेमी घोषित किया है, मैं उनके इस कथन को चुनौती देने का अधिकारी नहीं, क्योंकि प्रेम एक निजी मामला है परन्तु यह एक अन्तरविरोधी कथन है कि उन्हें प्रेम हिन्दी से है और वे प्रचार अंग्रेजी का कर रहे हैं। यह कुछ-कुछ ऐसे लाचार युवक की कहानी है जो प्रेम कहीं करता है परन्तु दहेज के लालच में शादी कहीं और करता है। उनके द्वारा वर्णित अवसर और केरियर तकनीक यह सब दहेज के ही समान विशेष सुविधाएं हैं। 


4-हिंग्लिश का भी कोई औचित्य नहीं हैं। जो लोग हिंग्लिश की चर्चा या वकालत करते हैं वे भी भयभीत मानस के समझौता परस्त लोग हैं और जो जाने-अनजाने धीरे-धीरे हिन्दी में अंग्रेजी की मिलावट कर अंग्रेजी को हिन्दीभाषियों को स्वीकार्य बनाना चाहते हैं। कई बार ऐसा होता है कि जिसे सामने से परास्त करना संभव नहीं है उसे सेना में शामिल होकर कुछ मानसिक हताशा पैदा कर और कुछ षडयंत्र कर हराया जाए। अंग्रेजी की व्यवस्था भी हिंग्लिश के नाम से मिलकर और अंदर घुसकर हिन्दी और भारतीय भाषाओं को परास्त करने का षडयंत्र कर रही है। मैंने किसी चीनी को आज तक चिंग्लिश बोलते नहीं सुना यानी चीनी और अंग्रेजी का घोल, मैंने किसी जर्मनी या फ्रेंच को जर्मलिश या फ्रेंचलिश बोलते नहीं सुना। मैं भाषा का शुद्धतावादी नहीं हूं, बल्कि भाषा का व्यापकतावादी व सरलतावादी हूं। भाषा को जितना सरल और व्यापक बनाया जाएगा, भाषा उतनी ही मजबूत और जनोन्मुखी होगी। जो भारत में हिन्दी के अलावा अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द हैं उन्हें हिन्दी भाषा में समाविष्ट करना उचित होगा और उससे हिन्दी का फैलाव भी होगा। 


अशोक वाजपेयी
अशोक वाजपेयी
5-श्री भगत लिखते हैं कि हिन्दी को जितना थोपते हैं उतना युवा उसके खिलाफ विद्रोह करता है। श्री भगत के लेखन और समझ में गहराई तो मुझे पहले भी नहीं दिखी परन्तु अब उसमें योजनाबद्ध झूठ भी नजर आता है। भारत का स्वभाव और परम्परा विद्रोही की नहीं रही, न विदेशी गुलामी के क्षेत्र में न विदेशी भाषा के क्षेत्र में। हिन्दी को कौन थोप रहा है, बल्कि हिन्दी तो चौतरफा हमलों का शिकार हो रही है। कुछ दिनों पूर्व इसी स्वर में एक बयान श्री अशोक वाजपेयी का रायपुर से छपा था कि हिन्दी तानाशाह भाषा है। उन्होंने इसका खंडन भी नहीं किया न ही स्पष्ट किया कि हिन्दी तानाशाह कैसे है। मुझे तो हिन्दी ताकत व सत्ता की दृष्टि से फिलहाल सबसे असहाय नजर आती है, जिसे हिन्दी लेखन के माध्यम से जाने जाने वाले श्री अशोक वाजपेयी, श्री नामवर सिंह जैसे लोग भी यदाकदा दुत्कारते रहते हैं। 

नामवर सिंह
नामवर सिंह
6-देशी बोलियों के समर्थक अब अंग्रेजी के षडयंत्र में फंसकर बोलियों को भाषा कहने लगे हैं और उन्हें भारतीय संविधान में भाषा की सूची में शामिल कराना चाहते हैं। ऐसी मांगें कभी-कभी भोजपुरी, अवधी, मगही, बुंदेली आदि बोलियों की ओर से कुछ लोग कर रहे हैं। परन्तु जब आगामी जनगणना होगी तब इसके परिणाम स्वरुप उन्हें अपनी मातृभाषा हिन्दी के बजाए बोली लिखना होगी और इसका परिणाम हिन्दीभाषियों की संख्या अत्यन्त अल्प में दर्ज होगी। हिन्दी को राष्ट्रभाषा या केन्द्र सरकार की भाषा बनाने की बात के पीछे एक मजबूत तर्क उसके संख्यात्मक उपयोगकर्ताओं की अधिकता भी है। स्वत: महात्मा गांधी ने यह कहा था कि चूंकि हिन्दी बोलने व समझने वालों की संख्या देश में सर्वाधिक है इसलिए हिन्दी राष्ट्र भाषा की पात्र है, जबकि गांधीजी स्वत: गुजराती भाषी थे। दूसरे बोलियों को भाषा में बदलने के इस षडयंत्र से अंग्रेजी समर्थकों को एक और तर्क मिल जाएगा तथा वे कहेंगे कि जिस प्रकार इन नई बोलीरुपी भाषाओं की लिपि देवनागरी हो सकती है उसी प्रकार हिन्दी की लिपि रोमन हो सकती है और एक बार इस लिपि की स्वीकार्यता का मतलब हिन्दी का अवसान व अंग्रेजी का समग्र विस्तार हो जाएगा। 

7-श्री भगत अपने अंग्रेजी के समर्थन के उत्साह में यह भी भूल गए कि रोमन लिपि को वही पढ़ सकेगा जिसे अंग्रेजी का ज्ञान होगा। उन्होंने उदाहरण के लिए ‘‘एएपी, केईएसई, एचईआईएन‘‘ लिखकर बताया है कि यह आप कैसे हैं, पढ़ा जाएगा, परन्तु इसे रोमन लिपि में वही पढ़ सकेगा, जिसे अंग्रेजी का अक्षर ज्ञान होगा। कम्प्यूटर के की-बोर्ड या मोबाइल की टच-स्क्रीन को हिन्दी में बदलना कोई कठिन काम नहीं है, जिस प्रकार टंकण यंत्र ‘‘टाइपराइटर‘‘ पहले अंग्रेजी में आया फिर हिन्दी में भी आ गया। बाजार की जरुरतों को समझकर ही अब कम्प्यूटर में अंग्रेजी से हिन्दी तर्जुमा और शब्द लेखन के उपयंत्र लगा दिए गए, जिन्हें साफ्टवेयर कहा जाता है। अगर एक बार भारत सरकार यह निर्णय कर ले कि-
-छ: माह के बाद देश में केवल उन्हीं कम्प्यूटर्स या चलित दूरभाष यंत्रों को बिक्री की अनुमति देंगे, जिनमें देवनागरी लिपि की तकनीक हो तो सभी कंपनियां दौड़कर यह करेंगी।
-सरकार देश के तकनीकी संस्थानों और वैज्ञानिकों को यह समयबद्ध लक्ष्य तय करे कि वे छ: माह के अंदर हिन्दी की-बोर्ड वाले कम्प्यूटर, मोबाइल आदि तैयार करें।
दरअसल रोमन लिपि वाले कम्प्यूटर या चलित फोन का इस्तेमाल करना भारतीयों के सामने लाचारी है, क्योंकि हिन्दी में वह उपलब्ध नहीं है और इसमें सरकार की संकल्पहीनता या इच्छा बड़ा कारण है। 


8-श्री भगत स्वत: यह स्वीकारते हैं कि देवनागरी में भी डाउनलोड उपलब्ध है परन्तु थोड़े ही लोग उसका उपयोग करते हैं, इसकी वजह अगर वे यह समझ रहे हैं कि भारतीय मानस अपनी भाषा रोमन लिपि में चाहता है तो यह उनकी गलतफहमी है। दरअसल भारत का मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाला एक बड़ा हिस्सा अभी उसे केवल दूरभाष यंत्र के रुप में ही इस्तेमाल कर रहा है तथा रोमन लिपि का इस्तेमाल करने वाला बड़ा हिस्सा उसे किसी उत्साह या सुविधा से नहीं बल्कि अज्ञानता, लाचारी और कुछ हद तक लापरवाही के कारण कर रहा है। 


मुझे आश्चर्य है कि क्या ऐसा कोई सुझाव ब्रिटेन, चीन या अन्य देशों में दे सकता है..? अगर ब्रिटेन में कोई यह कहे कि अंग्रेजी भाषा की लिपि देवनागरी हो तो शायद उसे लोग पागल समझेंगे। यूरोपीय एकीकरण जो अब पूर्ण होने के पहले ही बिखराव की स्थिति में है, इन देशों में लिपियों या भाषा के एकीकरण का मुद्दा कभी नहीं रहा। इंडोनेशिया और मलेशिया में भी अगर रोमन लिपि कुछ दूर तक पहुंची है तो वह केवल भूमंडलीयकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारण। 


मैं तो खुद चाहता हूं कि समूची दुनिया की एक भाषा विकसित हो, उसकी एक लिपि हो, परन्तु केवल हिन्दी के लिए रोमन लिपि का तर्क उचित नहीं है। आखिर इसका भी उत्तर रोमन लिपि के समर्थकों को देना होगा कि जब दुनिया में चीनी भाषा बोलने वालों की व हिन्दी बोलने वालों की संख्या अंग्रेजी बोलने वालों से बहुत ज्यादा है तो फिर दुनिया में इन लिपियों का विस्तार क्यों न हो, यह रोमन लिपि का नया रोम साम्राज्यवाद किसलिए। यह भूलना नहीं चाहिए कि आज भी दुनिया के कुछ इलाकों में भाषा नस्ल व सभ्यता का मिलाजुला साम्राज्यवाद सक्रिय है। 9-श्री भगत ने उर्दू की शेर-शायरी देवनागरी में लिखे जाने और स्वीकार्यता की चर्चा की है, इसकी वजह यही है कि श्री भगत को हिन्दी, उर्दू और देवनागरी तथा भारत के अतीत के बारे में पर्याप्त जानकारियां नहीं हैं। उर्दू केवल भारतीय भू-भाग में ही विकसित हुई, यहीं पैदा हुई भारतीय भाषा है। मराठी, गुजराती आदि की लिपि भी देवनागरी ही है। मुगलकाल में भी नवाबों की भाषा अरबी और फारसी थी, उर्दू तो भारतीयों की मिलीजुली भाषा थी जिसे लश्करी भाषा कहा गया। जब श्री भगत उर्दू शायरी को देवनागरी में विस्तार मिला यह मानते हैं तो इसका मतलब है कि वे लिपि की सीमाओं को समझते हैं, क्या यह संभव नहीं हो सकता कि अंग्रेजी को भी देवनागरी में पढ़ा जाए और लिखा जाए। उदाहरण के लिए ‘‘हाऊ आर यू‘‘ हो सकता है। मुझे आशा है कि भाषा की स्वीकार्यता और व्यापकता की चिन्ता उन्हें इस प्रस्ताव पर भी विचार के लिए प्रेरित करेगी।
जहां तक रोमन लिपि में हिन्दी के प्रिंट मीडिया और किताबों के व्यवसाय का सवाल है तो मैं कह चुका हूं कि व्यापारी का धर्म तो मुनाफा कमाना होता है। अगर उसे देवनागरी में व्यापार मिलेगा तो वह बाखुशी उसका इस्तेमाल करेगा। अंग्रेजी का आक्रमण दरअसल केवल अंग्रेजी का आक्रमण नहीं है बल्कि अंग्रेजी के पीछे छिपी हुई सत्ताधीषों और श्रेष्ठी वर्ग की मानसिक दासता और सामंतवाद का हमला है। अंग्रेजी तो शिखंडी है, उसके पीछे छिपकर हमला करने वाली साम्राज्यवादी और गुलामी की मानसिकताएं हैं।


मैं यह कहते हुए समाप्त करुंगा कि भाषा को शुद्धतावादी दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि उसकी जन-उपयोगिता, संख्यात्मक बहुलता और बोधगम्य व्यापकता की संभावनाओं के साथ देखना चाहिए। बदलाव जरुरी है, परन्तु वह किसके लिए और कितना, यह भी देखा जाना चाहिए। ‘‘चेन्ज एकार्डिंग टू नीड एण्ड टाइम’’ आशा है कि यह वाक्य श्री चेतन भगत को देवनागरी अंग्रेजी में ठीक से समझ में आ जायेगा।

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