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भारतीय रेल का निजीकरण नहीं तो यह क्या है..?

रघु ठाकुर, सागर.
 
श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से निरंतर रेलवे में पूंजी निवेश के नाम पर विदेशी पूंजी निवेश की चर्चा चलती रही है। पिछले कई दशकों से यह चलन रहा है कि हर रेल मंत्री आर्थिक संसाधनों के अभाव का रोना रोता है तथा बताता है कि रेल्वे के आधुनिकीकरण या लंबित योजनाओं को पूरा करने के लिये कितने लाख करोड़ रूपये की आवश्यकता है। कभी-कभी रेल यात्री किराया बढ़ाने के उपाय भी नौकरशाही के द्वारा सुझाए जाते हैं और मंत्री सुश्री ममता बनर्जी के रेल मंत्री के पद से हटने के बाद लगभग सभी रेल मंत्री इस किराया वृद्धि की दवा का प्रयोग करते रहे हैं। पिछले रेल बजट में जब मोदी सरकार ने एक मुश्त 14 प्रतिशत किराया बढ़ाया था तब यह तर्क दिया था और प्रचार किया था कि यात्री सुविधा और विकास के लिये रेल किराया बढ़ाया जाना जरूरी है, परंतु रेल किराया बढ़ने के बाद भी यात्री सुविधायें या तो जस की तस है या और बदतर हो गई हैं। 


भारतीय रेल का निजीकरण नहीं तो यह क्या है..?
शताब्दी जैसी गाड़ियों में जो भारतीय रेल्वे की विमान सेवा की नकल गाड़ियां थी की हालत यह है कि संडासों के दरवाजें उखड़े पड़े है, कुर्सियां टूटी है, कांच टूटे है और ढांचा इतना कमजोर हो चुका है कि पूरी यात्रा भर यात्रियों को जोरदार झटकों को सहना पड़ता है। नल टूटे पड़े है तथा अब तो वातानुकूलित शयनयान में भी स्थितियां बदतर हो चुकी हैं। वातानुकूलित शयनयान में यात्रियों को दिये जाने वाले कंबल धुलते नहीं है और कई गाड़ियों में इतने जरजर कंबल दिये जाते हैं कि जेल में मिलने वाले कंबल उनसे बेहतर होते हैं। मैं जानता हूं कि कंबल का धुलना जल्दी संभव नहीं है, परंतु नये तरीकों से उन्हें साफ और कीटाणु मुक्त किया जा सकता है। आजकल कई प्रकार के दवायुक्त छिड़काव के उपाय दुनिया में है, जिनके माध्यम से उनकी सफाई हो सकती है और बहुत पुराने कंबलों को बदला जा सकता है। परंतु रेल का लक्ष्य यात्री सुविधा के बजाय केवल पैसा कमाना और और अफसरषाही की विलासिता पर खर्च करना हो गया है।

श्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद देश को गति देने के लिये बुलेट ट्रेन का लक्ष्य रखा और बुलेट ट्रेन के सपने मध्यमवर्गीय और उच्च वर्गीय लोगों के मन में जगा दिये। इन बुलेट ट्रेनों के ढाचों के निर्माण के लिये जापान और चीन से भारी भरकम कर्ज और तकनीक लेने की योजनाऐं बनाई गई। जब प्रधानमंत्री और भारत सरकार बुलेट ट्रेन की चर्चा कर रहे है, तभी हमने समाचार पत्रों और जनसभाओं के माध्यम से आगाह करना शुरू किया था कि बुलेट ट्रेन कभी भारत की प्राथमिकता नहीं हो सकती। जिस देश में हालात यह हों कि जब दिल्ली से बिहार और उत्तरप्रदेश जाने वाली यात्री गाड़ियों में तीन-तीन माह तक का टिकिट मिलना संभव नहीं हो, तथा गाड़ी छूटने के छह-छह घंटे पहले से यात्री कई-कई किलोमीटर लंबी कतार लगाकर मय सामान के प्लेटफार्म पर खड़े होने को लाचार हो। जहां आम यात्रियों को सामान्य डिब्बे में घुसने के लिये पुलिस को सौ रूपये रिश्वत देना पड़ती हो, जहां लाखों यात्रियों को स्लीपर का पैसा देने के बाद भी केवल डिब्बे में घुसने का पट्टा मिलता हो। उस देश में पहले कौन सी गाड़ियां चलना चाहिये? बुलेट ट्रेन या सामान्य यात्री गाड़ियां? इस समय 45 हजार सामान्य यात्री डिब्बों की आवश्यकता है, हर यात्री गाड़ी में अगर 5 से 10 सामान्य डिब्बे लगाए जाए, तब जाकर कुछ राहत मिल सकती है। और इसलिये सरकार की प्राथमिकता नई रेल लाईनों का निर्माण, सामान्य यात्री गाड़ियों की वृद्धि होना चाहिये। अगर भारत सरकार जापान से प्रस्तावित 60 हजार करोड़ का कर्ज लेकर अहमदाबाद से मुंबई के बीच बुलेट ट्रेन चलायेगी तो इससे केवल उन संपन्न लोगों को ही विकल्प मिलेगा जिनके पास हवाई जहाज से चलने की सुविधा और क्षमता है जो हजारों रूपया किराये में दे सकते है। यह देश में आबादी के मुश्किल से 3 प्रतिशत लोगों की सुविधा देनी और 97 प्रतिशत जनता भारतीय रेल के नक्षा और कल्पना से जुदा कर दी जायेगी। इसके साथ ही इस विदेशी कर्ज के ब्याज के रूप में प्रतिवर्ष हजारों करोड़ रूपया देश की उस गरीब जनता को चुकाना होगा जिसको इस बुलेट ट्रेन में बैठना तो दूर दर्षन करना भी कठिन है। 


भारतीय रेल का निजीकरण नहीं तो यह क्या है..?
रेल्वे विकास के नाम पर भारत सरकार जहां एक तरफ अपने आर्थिक संसाधनों का रोना रोती है, वहीं दूसरी तरफ विदेशी पूंजी पतियों को पूंजी निवेश के लिये आमंत्रित करती है। ऐसा वातावरण बनाया जाता है जैसे रेल का सारा घाटा आम यात्री गाड़ियों और आम यात्रियों की वजह से है। रेल्वे में सुधार आधुनिकीकरण आदि के नाम पर जब-जब भी विशेषज्ञ समितियां बनाई जाती है या आयोग बनाये जाते है तो वे या तो रेल्वे के सेवा निवृत्त नौकरशाहों की अध्यक्षता में बनाये जाते है या फिर प्रशासनिक अधिकारियों की अध्यक्षता में। जबकि तय यह है कि यही नौकरशाह रेल्वे को घाटे में लाने और डुबाने के जिम्मेदार या सहभागी होते हैं। मैने अनेक बार भारत सरकार के पूर्व व वर्तमान प्रधानमंत्रियों तथा रेल मंत्रियों को निम्न सुझाव दिये-

1. रेल्वे के आर्थिक संसाधनों का एक बढ़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में जाता है। यह लोग अभी भूले नहीं होगें कि पिछले रेल मंत्री पवन बंसल के कार्यकाल में उनके परिवारजन, रेल्वे बोर्ड की मेंबरी और महत्वपूर्ण विभाग के लिये दस-दस करोड़ रूपया रिश्वत लेते थे। यह अलग बात है कि यूपीए के आखिरी रेल मंत्री पवन बंसल, चूंकि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के करीबी थे अत: सीबीआई ने उन्हें बचाने का अपराध किया। वरना एक मंत्री का परिजन मंत्री के सरकारी फोन से फोन करता है, सरकारी निवास में भ्रष्टाचार की राशि तय करता है और सीबीआई मंत्री को दोषमुक्त तथा केवल परिजन को अपराधी मान लेती है। अगर रेलवे की खरीदी और निर्माण कार्य के भ्रष्टाचार को रोक दिया जाये तो हजारों करोड़ रूपये की बचत हो सकती है। 


2. रेल्वे के विकास की मूल कल्पना में ही कुछ त्रुटियां है। आजकल बड़े-बड़े स्टेशनों पर विधुत स्वचलित सीढ़ियां (एक्सक्लेटर) लगाये जा रहे हैं। एक-एक एक्सक्लेटर का लागत खर्चा करोड़ों रूपये में होता है और दूसरी तरफ देश में हजारों रेल्वे क्रािसंग ऐसे है जहां पर न कोई पुल है, न कोई फाटक जिससे आये दिन दुर्घटनायें घटती है। प्लेटफार्म पर पैदल पार पुल नहीं है जिसके परिणामस्वरूप यात्रियों को पैदल पटरी पार करना पढ़ती है जिससे कितने लोग कटकर मर जाते है और भीड़ आक्रोशित होकर निर्दोष रेल कर्मचारियों को मार देती है। मध्यप्रदेश के गुलाबगंज रेल्वे स्टेशन पर इसी प्रकार की घटना के कारण निर्दोष रेल कर्मचारी मारे गये। परंतु सरकार की दृष्टि में इन करोड़ों गरीबों के जीवन का कोई महत्व नहीं है उन्हें तो केवल संपन्न तबके के लिये स्वचलित सीढ़ियां लगाना है, क्योंकि इन स्वचलित सीढ़ियों के निर्माता कंपनियों के बड़े-बडे ठेकेदार है जिनके चंदे से सरकारें बनती और बिगड़ती है और सत्ताधारी राजनेताओं को कमीशन मिलता है।


3. रेल्वे के स्क्रेप की नीलामी में भारी भ्रष्टाचार होता है जिसमें एक पूरा माफिया का तंत्र काम करता है। रेल्वे के विषाल ढांचे में स्क्रेप का सही हिसाब किताब नहीं हो पाता और भ्रष्टाचार तथा बाहुबल नौकरशाही और सत्ता के संरक्षण में प्रतिवर्ष अरबों-खरबों रूपया कमाते हैं। 


4. रेल्वे नौकरशाही का व्यवहार अभी भी राजतंत्रीय है। आजादी के 67 साल के बाद भी रेलवे के बड़े-बड़े अधिकारियों को लाने ले जाने के लिये विशेष ट्रेन और कूपे या डिब्बे चलाये जाते हैं। जिस प्रकार राजाओं की सवारियां निकलती थी उसी प्रकार इन उच्च अधिकारियों की यह विशेष गाड़ियां/सेलून होते हैं जिनमें वे सपरिवार सदल-बल यात्रायें करते हैं। एक महाप्रबंधक महोदय ने माधुरी दीक्षित की फिल्म सूटिंग के लिये राजस्थान में एक छोटे से स्टेशन को लगभग फिल्म निर्माता टीम के हवाले कर दिया तथा आर.पी.एफ., जी.आर.पी. को उनकी सुरक्षा और रेल्वे कर्मचारियों को उनकी व्यवस्था पर लगा दिया। इसके बदले में हीरोईन ने अपनी वापसी के दिन महाप्रबंधक के परिवार को मुलाकात और फोटो के लिये कुछ समय देकर उन्हें कृतार्थ किया। जयपुर से उक्त स्टेशन पर आने के लिये सरकारी साधनों के खर्च का कोई बहाना चाहिए था और इसलिये वहां एक छोटी सी पुलिस चैकी का निर्माण किया गया तथा उसके उद्घाटन के लिये महाप्रबंधक और उनके साथ मंडल प्रबंधक तथा तमाम अधिकारी पहुंचे। एक महाप्रबंधक महोदय ने रेल्वे परिसर में स्वीमिंग पुल बनाने की योजना मंजूर कर दी और तर्क यह दिया कि यह कर्मचारियों के स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है। आमतौर पर जो कर्मचारी तृतीय या चर्तुथ वर्ग के है, उनके सरकारी घरों की हालत यह है कि बरसात में उनके घर पोखर बन जाते हैं, ठंड में पहाड़ी क्षेत्र बन जाते है यानि ठंडी हवाओं के केन्द्र बन जाते है और गर्मी में भट्टी बन जाते हैं। उनके घरों के पास कीचड़ भरा रहता है, जानवर और इंसान सदभाव के साथ-साथ समय गुजारते हैं। मैने इन दोनों घटनाओं के बारे में तत्कालीन रेल मंत्री और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखा परंतु इन राजा-महाराजाओं के खिलाफ कोई शिकायत कैसे सुन सकता है। हमारे सांसदों को भी इन सवालों पर संसद में चर्चा करने की न तो फुर्सत है, न दिलचस्पी और न ही जरूरत। क्योंकि अमूमन यह सांसद अपने पद का इस्तेमाल अधिकारियों से निजी लाभ जैसे अपने रिश्तेदारों, परिचितों और जातीय बंधुओं के तबादलों, पदोन्नतियों और ठेकों आदि के लिये करते हैं। उन्हें मतदाताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण मनीदाता अफसरशाही होती है।
24-25 दिसम्बर 2014 को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी सभाओं के माध्यम से यह सफाई दी कि वे या उनकी सरकार रेल्वे का निजीकरण नही कर रहे हैं। यह सफाई उनके पूर्व उनकी सरकार के रेलमंत्री और रेल राज्य मंत्री भी दे चुके हैं। परंतु क्या यह सफाई तार्किक और विश्वसनीय है। रेल्वे की 17 शाखाओं यथा कैटरिंग, सफाई, मालढुलाई, निजी कोच खरीदी आदि क्षेत्रों में निजीकरण हो चुका है। और यह सारे कार्य निजी ठेकेदारों को दिये गये हैं। स्वत: प्रधानमंत्री ने कहा है कि भारतीय रेल्वे में 13.5 लाख कर्मचारी है। अच्छा होता कि वे यह पता करने का प्रयास भी करते कि जब 40 साल पूर्व भारतीय रेल्वे में 22 लाख कर्मचारी थे तो यह घटकर 13.5 लाख कैसे रह गये? यह कैसा रेल्वे का विकास है कि रेल का विकास हो रहा है और कर्मचारी घट रहे हैं। अफसरों की फौज बढ़ रहीं है और नीचे के कर्मचारियों की संख्या में कटौती हो रही है। कुछ श्रेणियों के कर्मचारियों पर काम का इतना बोझ है कि वे शारीरिक और मनसिक रूप से अस्वस्य हो रहे हैं और कुछ एक ने तो आत्महत्या भी कर ली है। प्रधानमंत्री का यह कहना कि वे रेल्वे को समाप्त नहीं कर रहे है कुछ ऐसा ही है जैसे कोई व्यक्ति किसी के हाथ पैर, नाक कान काटता चला जाये और कहे कि मै उसे मार नहीं रहा हूं। आखिर जब शरीर के अंग पर अंग कटते चले जायेगें तो जीवन का अंत तो अवश्यमभावी है। ऐसा ही कुछ सरकार भारतीय रेल्वे के साथ कर रही है। दूसरी और प्रधानमंत्री जी ने कहा है कि वे तो रेल्वे में धन्ना सेठों का पैसा लगवा रहे हैं। क्या मोदीजी इतने भोले है कि उन्हें यह नहीं पता कि धन्ना सेठ तभी पैसा लगाते है जब उन्हें स्पष्ट लाभ हो। कोई धन्ना सेठ धर्मादा में पैसा नहीं लगाता यहां तक कि धन्ना सेठ तो मंदिर में भी तभी पैसा लगाते है जब मंदिर का नामकरण उनके नाम पर हो। मोदीजी ने देश के विभिन्न हिस्सों में बने बिड़ला मंदिर, मोदी मंदिर आदि के नाम जरूर सुने होगें और इन नये भगवानों के बारे में उन जैसे योग्य व्यक्ति को पूरा ज्ञान होगा। जिन धन्ना सेठों को वे पैसा लगाने के लिये वे आमंत्रित कर रहे है वे किस मद में पैसा लगायेगें इसका खुलासा प्रधानमंत्री जी को करना चाहिये। रेल्वे प्लेटफार्म के प्रबंधन को जो नीलामी में लेगें वे रेल्वे की भूमि का इस्तेमाल निजी व्यापार के लिये करेगे और प्लेटफार्म के टिकिट की दर भी वे ही तय करेगें तब ये रेल्वे प्लेटफार्म आम आदमी के लिये राष्ट्रपति के निवास के मुगल गार्डन जैसे बन जायेगें। 


मैं पिछले कई वर्षों से लगातार भारत सरकार और योजना आयोग को यह सुझाव दे रहा हूं कि मनरेगा की राशि को नई रेल लाईन के निर्माण पर खर्च करने का प्रावधान करें। इससे जहां एक तरफ हाथ को काम मिलेगा और नई रेल लाईन बिछेगी वहीं दूसरी तरफ भ्रष्टाचार भी सिकुड़ेगा। इस राशि को उसी अंचल में रेल लाईन के निर्माण पर र्खच किया जाना चाहिये जहां के लिये वह निर्धारित है ताकि क्षेत्रीय न्याय हो और सभी हिस्सों मेंं रेल का विकास हो। 


भारतीय रेल का निजीकरण नहीं तो यह क्या है..?यह विचित्र है कि भारत सरकार की प्राथमिकता उन अंचलों में रेल लाईन बिछाने की है जहां किसी न किसी प्रकार की हिंसा है या उग्रवाद है। यह क्षेत्रीय अन्याय अन्य अंचलों की जनता को भी हिंसा और उग्रवाद की ओर मोड़ सकता है। इसलिये सरकार को समान व्यवहार करना चाहिये। बुलेट ट्रेन चलायेगें तो बुलेट (गोली) भी चलाना होगी। जितनी राशि में अहमदाबाद से मुंबई बुलेट ट्रेन की सुरंग तैयार होगी उतनी राशि में देश में 20 हजार किलोमीटर रेल लाईन बिछ सकती है जो 20 करोड़ जनता के लिये उपयोगी होगी। अब तय सरकार को करना है कि वे 20 करोड़ जनता की कीमत पर 2-4 लाख लोगों को सुविधा देना चाहते हैं या फिर वे इस नीति को बदलना चाहते हैं। मोदीजी यह न भूलें कि लोकलुभावन और झूठ की उम्र अल्पकालिक होती है। गरीबी हटाओ का इंदिराजी का नारा और फीलगुड का अटल-अडवाणी का नारा कितना अल्पकालिक हुआ है, यह उन्हें भूलना नहीं चाहिये। देश के रेल कर्मचारियों आम नागरिकों और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी संगठनों को भारतीय रेल को अदाणी-अंबानी या मोदी-बिड़ला रेल बनने से रोकने के लिये सामूहिक संघर्ष करने की आवष्कता है। अगर एक बार सब मिलकर भारतीय रेल के निजीकरण और अंग-भंग को रोक लेगें तो समूचे देश की राजनीति की दिषा और धारा बदल जायेगी। पूंजीवाद और मजदूरवाद का यह एक निर्णायक संघर्ष देश और दुनिया में नये बदलाव का सूत्रधार बन सकता है।

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