पंकज चतुर्वेदी, भोपाल.
आलेख का शीर्षक पढ़कर निश्चय ही मोदी समर्थकों को पीड़ा हो सकती है, किन्तु उस से बड़ी पीड़ा देश को है, जिस पर विचार होना जरुरी है। विगत 16 मई को जब भारत की वर्तमान सरकार के रूप में मोदी जी की टीम ने विधिवत कार्य सम्हाला था, तो निश्चय ही देश को मोदी जी के अच्छे दिन के नारे के यथार्थ रूप में आने की आस में थी। किन्तु अल्प समय के इन आर्थिक संकेतों ने मोदी सरकार की अर्थ नीति को स्पष्ट कर दिया है कि वह कुछ काम की नहीं है। अब यह कहकर भी नहीं बचा जा सकता कि अभी तो काम सम्हाले कम समय गुजरा है।
हमारी अर्थव्यवस्था में एक बड़ी भूमिका विदेशी संस्थागत निवेशकों की है, जो अभी भारत में अधिक ब्याज की दरों के कारण निवेश किये हुए है। किन्तु जैसी कि सम्भावना है यदि रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कमी की, तो इस मोर्चे पर भी सरकार के अर्थ के उत्तरदायी लोगों को तकलीफ हो सकती है। वैसे भी जब विदेशी लोगों को उनके देश में ही निवेश पर पर्याप्त लाभ मिलता है तो वे भारत में नहीं आते। इस सबके मध्य यह भी चर्चा है कि अमरीका ब्याज दर बढ़ा सकता है। यदि ऐसा कुछ हुआ तो उसका प्रत्यक्ष प्रभाव भारत और भारत की अर्थ वयवस्था पर पड़ेगा।
महंगाई में यह कमी सरकार के प्रयासों से नहीं अपितु वैश्विक संयोगों के कारण आयी है। यदि सरकार के प्रयास होते तो लोग महंगाई कम होने से बचे, धन का उपयोग अन्य उत्पादों की खरीदारी में करते किन्तु ऐसा नहीं हुआ और देश में कारखानों का उत्पादन कम हो गया अर्थात देश के औद्योगिक उत्पादन में भारी कमी आई। इस के अतिरिक्त भारत में आम उपभोक्ता को महंगाई में आई कमी से जो थोडा-बहुत लाभ हुआ भी, उस धन का उपयोग उसने सिर्फ सोना खरीदने में किया, बाकि उत्पादों के प्रति वह उदासीन रहा।
यह सर्व विदित है कि हम सोने का शत-प्रतिशत आयत करते है। उस के बाद भी सोने के आयात को मोदी सरकार नियंत्रित नहीं कर सकी। सोने की इस चमक के आकर्षण ने देश के बढे हुए व्यापार घाटे को .6 प्रतिशत बढ़ा दिया है। सोने का आयात भारी मात्रा में 5.1 प्रतिशत बढ़ा गया, जिसने देश के चालू खाते के घाटे को और बढ़ा दिया है। कांग्रेस सरकार ने सोने पर आयात शुल्क में वृद्धि कर यह सफल प्रयास किया था कि सोने का आयात भारत में कम हो सके। मोदी सरकार इस बिंदु पर भी प्रभावहीन रही है। देश के कुल आयात व निर्यात की चर्चा की जाए तो निर्यात सिर्फ ।.2 प्रतिशत बढ़ा, जबकि आयात में 26.01 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई है। निर्यात यानी विदशी मुद्रा भंडार में बढ़ोत्तरी और आयात यानि विदशी मुद्रा भंडार में कमी।
सरकार विनेश के मोर्चे पर भी असफल नजर आई सेल के शेयर विनिवेश के नाम पर बेचे तो उन शेयरों की सबसे बड़ी खरीददार सरकारी की कम्पनी भारतीय जीवन बीमा निगम रही अर्थात विनेवेश की प्रक्रिया आम आदमी को सरकारी कंपनी के शेयर बेचने के मूल उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकी। अपितु हुआ यह की सरकार की एक कंपनी के शेयर सरकार की ही दूसरी कम्पनी ने खरीद लिए यानि सरकारी पैसे की अदला-बदली हुई विनिवेश नहीं हुआ। ऐसा ही कुछ द्वन्द सरकार में विदेशी निवेश को लेकर है, जिस बीमा कम्पनी ने विनिवेश में सरकार की नाक बचाई है, उस एलआईसी के कर्मचारी ही बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश 49 फीसदी किये जाने का विरोध खुलकर कर रहे है। मूल रूप से वामपंथी विचारधारा वाले इस कर्मचारी संगठन का कहना साफ है कि बीमा के क्षेत्र में विदेशी निवेश विगत डेढ़ दशक से होने के बाद भी बीमा लेने वालों की संख्या 1 प्रतिशत बढ़ी, जबकि बीमा करने वाली कम्पनियों की संख्या लगभग 9 प्रतिशत बढ़ चुकी है। ऐसे में मोदी सरकार से अच्छे दिनों की उम्मीद अब बेमानी हैं।
दिवा स्वप्न सी है अच्छे दिन की बात..?
दिसंबर 25, 2014
0
Tags