Type Here to Get Search Results !

बांसो की कमी से दम तोड़ रहा बांस कला का पुश्तैनी धंधा

मोहम्मद शब्बीर, बेगमगंज.
 
जब से शासन ने बांस का राष्टयकरण किया है और रेंज से बांस मिलना बंद हुए है, तब से बांस से विभिन्न उत्पाद तैयार करने वालों का पुश्तैनी धंधा दम तोड़ता नजर आ रहा है। रही सही कसर प्लास्टिक से बने सूपों एवं डलियों आदि ने पूरी कर दी है, जिस कारण वंशकार लोग मजदूरी कर अपने परिवार का पालन पोषण करने के लिए मजबूर है। 


बांसो की कमी से दम तोड़ रहा बांस कला का पुश्तैनी धंधा
सूपे डलिए बाजार में बेचते वंशकारों को ग्राहकों का इंतजार
मजदूरी करने को मजबूर हैं डलियां, सूपा, टोकरी और पिटारियां बनाने वाले 
मजदूरी करने को मजबूर

नगर सहित ग्रामीण क्षेत्रों में बांस से डलिए, सूपे, टोकरियों, पिटारी आदि तैयार करने वाले परिवारों की स्थिती ठीक नहीं है। करीब पांच वर्ष से वन विभाग से भी उन्हें बांस प्राप्त नहीं हो रहे है, जिस कारण दस गुना अधिक दामों पर बांस क्रय कर उक्त वस्तुएं निर्मित कर रहे है। इससे लागत अधिक आने से खरीदार कम कीमत में खरीदते है, जिससे कम लाभ होने से मजदूरी नहीं निकल पाती। जहां वन विभाग से एक बांस ढाई रु पए से लेकर पांच रु पए तक में मिलता था, वहीं अब वही बांस कछवाड़ों आदि से खरीदने पर तीस रु पए से लेकर साठ रुपए तक मिल रहा है।
जहां एक ओर शासन लोगों को स्व रोजगार उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रही है, वहीं वंशकार समाज अपना पुश्तैनी धंधा बचाने के लिए जद्दोेजहद कर रहे है। बांस से सामग्री तैयार करने वाले हदाईपुर निवासी करोड़ीलाल एवं शिवचरन तथा खिरिया नारायण दास टेकरी निवासी मुन्ना का कहना है कि हमारे परिवारों का पालन पोषण बांस से निर्मित सामग्री के विक्रय से होता है, जिसे हम दोनों पति पत्नि तैयार करते है। मंहगा बांस खरीदना पड़ता है दाम बढ़ने से लोग प्लास्टिक से बने सूपे, डलिएं व पिटारी खरीदना अधिक पंसद करते है। अब तो मात्र किसान ही बड़े डले खरीदते है, वह भी एक बार खरीद लिया तो कई वर्ष तक जरूरत नहीं पड़ती। शासन हमें कोई अन्य रोजगार उपलब्ध कराए या फिर रेंज से कम कीमत पर बांस उपलब्ध करवाए, ताकि हम लोगों का पुश्तैनी धंधा बरकरार रहे।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.