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आदर्श ग्राम पर आदर्श सवाल : 1

डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.
सच में ही एक छोटे से आदर्श की स्थापना से उसके दोहराव की सम्भावना स्वत: ही उत्पन्न हो जाती है। इसलिए ‘प्लान मोदी’ की वास्तविक सफलता योजना के इस मूल्यांकन पर निर्भर होगी कि सांसद आदर्श ग्राम योजना में ‘ग्राम’ भी और ‘आदर्श’ भी कहाँ है? और अगर कहीं है तो, यथार्थ में, कितना है? योजना की समीक्षा इसी धुरी पर केन्द्रित होनी चाहिए।

दो महीने हुए जब, 11 अक्टूबर को, प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ आरम्भ की थी। तभी उन्होंने दो बातें स्पष्ट कर दी थीं। पहली यह कि इस ‘आदर्श’ योजना की धुरी यह होगी कि ‘योजना’ से लाभान्वित होने वाले ग्राम का चयन सासंदों को ही करना है। कुछ-कुछ अर्थों में यह सोच मोरार जी देसाई की जनता पार्टी वाले ‘प्लानिंग फ़्रॉम बिलो’ जैसे उस सोच का परिवर्धित स्वरूप है जिसमें ‘सरकार’ कर्ता नहीं बल्कि सेवक की भूमिका में देखी गयी थी। और, दूसरी धुरी यह है कि योजना तो होगी किन्तु इस मद में सरकार की, अलग से, कोई भी ऐसी ‘योजना-निधि’ नहीं होगी जिसके व्यवस्थापन का अधिकार सांसदों के हाथ हो। यही नहीं, सांसदों पर नैतिकता का दबाव बनाने के लिए अपनी तरह की इस अनोखी सरकारी योजना की अपनी घोषणा में ही मोदी ने सुझाव का यह नुक़्ता भी जोड़ दिया कि एक महीने के भीतर-भीतर सांसदों को कम से कम एक ग्राम का चयन तो कर ही लेना होगा।

इन दो महीनों में योजना की नब्ज कैसी रही इसके जमीनी लेखे-जोखे को गाँव जा कर परखने का समय अभी नहीं आया है। फिर भी, इसे सांसदों की भावनाओं में उतर कर तो जाना ही जा सकता है। ‘सांसद की भावना’ योजना के भविष्य का सबसे प्रबल पक्ष है। क्योंकि, योजना को लागू करना किसी सरकारी विभाग की नहीं बल्कि सांसद की जिम्मेदारी है। इतना ही नहीं, सांसदों को छूट भी है कि वे चाहें तो इसे लागू करें और अनिच्छा रखें तो इससे अपना पल्ला झाड़ लें। मोदी का सारा खेल भी इसी ‘सांसद की इच्छा-शक्ति’ में है। 


आदर्श ग्राम पर आदर्श सवाल : 1कांग्रेस के उपाध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी की वह टिप्पणी इस ज्ञान-यात्रा का पहला महत्व-पूर्ण पड़ाव है जिसमें उन्होंने आश्चर्य से भर कर यह सवाल किया था कि बिना सरकारी निधि के यह कैसी योजना है? अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि वह समझ नहीं पाये हैं कि इसमें ‘योजना’ क्या है? इस ज्ञान-यात्रा का दूसरा पड़ाव इस सामान्य ज्ञान में है कि योजना की घोषणा के 30 दिन बीतने तक गिनती के ही सांसदों ने कोई गाँव गोद लिया था। और, ११ नवम्बर तक लोक सभा के 430 तथा राज्य सभा के 135 सांसदों ने अपनी पसन्द सार्वजनिक कर दी है। अर्थात्‌, देश के कुल 771 सांसदों में से 206 ने किसी गाँव को नहीं चुना है। तीसरा महत्व-पूर्ण पड़ाव यह है कि भाजपा नेतृत्व ने निर्णय लिया है कि उसके सांसद उन्हीं गाँवों को गोद लेंगे जिनके लिए पार्टी की स्थानीय इकाई उन्हें निर्देशित करेगी। उदाहरण के रूप में, राज्य सभा की उपाध्यक्ष रह चुकी और वर्तमान में मध्य प्रदेश से भाजपा सांसद नजमा हेपतुल्ला द्वारा योजना के अन्तर्गत्‌ प्रदेश की राजधानी भोपाल में आने वाले फन्दा के गोद लिये जाने को देखा जा सकता है।

दरअसल, ‘प्रयोग’ की शक़्ल में राजनीति की बिसात बिछा कर आरम्भ किये गये सांसद आदर्श ग्राम योजना नामक अपने इस एक-दम खुले खेल पर मोदी यदि कायम ही रहे तो लाभ ही लाभ है। कोई खेले तो, और ना खेले तो भी। सारा का सारा जोखिम ‘जन-सेवा’ का तमगा लटकाये घूमते जन-प्रतिनिधियों का है। इसमें भाजपा के ‘पथ-भ्रष्ट’ हो चुके नेता-गण भी शामिल होंगे। योजना में भागी-दारी से ‘ना’ करने के अपने नुकसान हैं। जबकि, भागी-दार बन कर टेढ़े-मेढ़े चलने के भी उतने ही गहरे नुकसान होंगे। जाहिर है, भागी-दारी भी और नियमों का पालन भी बन्धन-कारी हो गया है। कोई चाहे तो, और ना चाहे तब भी।

प्रतीकों में बात करें तो, सफ़ेद हाथियों को ‘ऐरावत’ में परिवर्धित करने या फिर प्रजा-तन्त्र की कचरे वाली पेटी में पटक देने की चाल है यह। चल गयी, अर्थात्‌ आम जन को ठीक से समझ आ गयी, तो अगले पाँच ही सालों में सोने के बीच पीतल की छँटाई जैसी राजनैतिक शुचिता की आस सुनिश्चित हो सकती है। सरल शब्दों में, मोदी की यह चाल चल पड़ी हमारा प्रजा-तन्त्र सदा के लिए सुरक्षित हो सकता है। लॉटरी लूटने के अवसर सभी दलों के लिए समान रूप से खुले होंगे। शर्त केवल यह है कि सांसद अपनी प्राथमिकताओं की पोल खुलवाने को तैयार हों। वह भी सांसद के रूप में सांसद-निधि के नाम से मिले विशेषाधिकार की कीमत पर। और, मजा यह कि पोल तो खुल कर ही रहने वाली है। यही अधिकांश सांसदों की, और उनके दलों की भी, परेशानी है।

सालों तक कांग्रेसी परम्परा का जुआ अपने कन्धे पर ढोती आयी और अब, ब-रास्ता भाजपा, राज्य सभा सदस्य बनी बैठी नजमा हेपतुल्ला के उदाहरण को ही लें तो, कभी गाँव रहे हेपतुल्ला के दत्तक ग्राम फन्दा में ‘गाँव’ अब कहीं से भी नहीं बचा हुआ है। इसके कदम एक अध-कचरे शहरी क्षेत्र बनने की दिशा में पर्याप्त आगे बढ़ चुके हैं। केवल यही नहीं, बीते समय में कदाचित्‌ ही ऐसी कोई शासकीय योजना रही होगी जिसे इस गाँव में लागू नहीं किया गया होगा। और, परिणाम वही ‘ढाक के तीन पात’ वाले रहे हैं। योजना और योजना-निधि को लीलते-लीलते फन्दा अब तक ‘ब्लैक-होल’ बन चुका है। ऐसा ब्लैक होल जो खुद-ब-खुद ही सरकारी योजनाओं को अपनी ओर आकृष्ट करता है। निर्माण के लिए नहीं बल्कि उन्हें लीलने के लिए। ताकि, और अधिक योजना-निधियों को पूरी ताकत से अपनी ओर खींच कर उन्हें लील सके। फन्दा एक ऐसा ‘आदर्श’ ब्लैक-होल बन चुका है जो दूसरे समर्थ ग्रामों और उनके राजनैतिक-प्रशासनिक संरक्षकों को केवल अपना-अपना निजी ब्लैक-होल बनाने को ही प्रेरित कर सकता है; आदर्श गाँवों की उत्तरोत्तर व्यापकता के विस्तार की ओर तो कतई नहीं।

यहीं मोदी की इस ताजी योजना से जुड़ा यह आधार-भूत प्रश्न पूरी गम्भीरता से खड़ा हो जाता है कि इसमें ‘ग्राम’, और वह भी, ‘आदर्श ग्राम’ जैसा कोई तत्व कहाँ है?

आम आदमी की इस सहज उत्सुकता के प्रत्युत्तर में, मोदी-समर्थक लहरा-लहरा कर उन उद्बोधनों के बैनर दिखला सकते हैं जो बतलायेंगे कि अपनी इस योजना के बारे में बतलाते हुए प्रधान मन्त्री ने कहा था कि इसके कारण जब देश के सांसद विभिन्न शासकीय योजनाओं को स्वयं ही, और गाँव जैसे छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में, लागू करेंगे तो उन्हें एकाधिक शासकीय योजनाओं के एक ही क्षेत्र में ‘कन्वर्जेन्स’ से उपजने वाली ढेरों व्यवहारिक कठिनाइयों का भी ठीक-ठीक भान होगा। इससे योजनाओं को ले कर उनकी जमीनी समझ का ठीक-ठीक विकास होगा और तब परिपक्व हो चुके ये सांसद, अधिक से अधिक संख्या में, योजनाओं से जुड़ी संसदीय बहसों में भाग लेने के लिए तत्पर होंगे। इस पूरी कवायद से, संसद्‌ में होने वाली चर्चाओं के स्तर में भी खासा सुधार होगा।

योजना के उपर्युक्त ‘सदाशय’ पर पूरा भरोसा कर भी लिया जाये, तब भी यह यक्ष-प्रश्न तो अनुत्तरित ही रहता है कि मोदी की इस योजना में ‘ग्राम’ नामक सार-तत्व आखिर कहाँ है? यही नहीं, मोदी द्वारा स्वयं गोद लिये गये बनारस के ग्राम जयापुर से जुड़ी खबरें ‘आदर्श ग्राम’ के आधार-भूत सोच पर भी गहरा सवालिया निशान लगाती हैं। खबरें हैं कि इस गाँव को विकसित बनाने के लिए पूरी दुनिया उमड़ पड़ी है। और इसलिए, सम्भव है कि यह सच में ही एक अति-विकसित गाँव बन जाये। परन्तु यक्ष-प्रश्न यही है कि क्या इतनी ही सारी फौज देश के प्रत्येक तथा-कथित अविकसित गाँव के विकास के लिए भी स्व-प्रेरणा से जुटेगी? इसी का पूरक प्रश्न यह है कि सारे जोड़-घटाने के बाद जयापुर का जो नया स्वरूप होगा क्या वह, सच में ही, देश के किसी गाँव के आदर्श हो जाने की पुष्टि कर पायेगा? एक गम्भीर सवाल यह भी किया जा सकता है कि क्या गांधी ऐसे ‘विकसित ग्राम’ को ‘गाँव ही बने रहने’ का तमगा दे पायेंगे? गांधी का नाम लेना विवशता इसलिए बनती है क्योंकि अपनी योजना को सामने लाते समय मोदी ने उनके नाम का भर-पूर दोहन किया था।

दरअसल गांधी हों या जेपी, इनकी आड़ लेना मोदी की राजनैतिक विवशता है। इनका नाम ले कर वह अस्वीकार्यता के अपने ऊपर थोपे गये ठप्पे की किसी सीमा तक धुन्धला दी गयी स्याही को और आगे भी धुन्धलाना चाहते हैं। कोई देखना चाहे तो चाल की दोहरी मार देख सकता है — कांग्रेस और समाज-वादियों के रूप में भाजपा के मुख्य प्रतिद्वन्द्वियों पर भी तथा भाजपा के भीतर, मन ही मन, उन पर झल्ला रहे स्वयं अपने ही प्रतिद्वन्द्वियों पर भी। किन्तु, ‘प्लान मोदी’ की सफलता योजना के इस मूल्यांकन पर भी उतनी ही निर्भर होगी कि सांसद आदर्श ग्राम योजना में ‘ग्राम’ भी और ‘आदर्श’ भी कहाँ है और अगर कहीं है तो, यथार्थ में, कितना है? और, योजना की आलोचना-समालोचना इसी धुरी पर केन्द्रित होनी चाहिए।

इस बिन्दु पर खुली समीक्षा की सम्भावनाएँ अनन्त हैं। जैसे, योजना के आरम्भ की औपचारिकता को पूरा करते हुए मोदी ने जो उद्बोधन दिया था उसका आरम्भ इन शब्दों में हुआ था — 


“…देश आजाद हुआ तब से अब तक ग्रामीण विकास के सन्दर्भ में सभी सरकरों ने अपने-अपने तरीके से प्रयास किये हैं। और ये प्रयास निरन्तर चलते रहने चाहिए। समयानुकूल परिवर्तन के साथ चलते रहने चाहिए। बदलते हुए युग के अनुकूल योजनाएँ बननी चाहिए, बदलते हुए विश्व की गति के अनुसार परिवर्तन की गति भी तेज होनी चाहिए। और, ये एक न रुकने वाली प्रक्रिया है…”

सारा संकट इस ‘बदलते हुए युग’ में है। गांधी की माला जपते हुए भी नेहरू से ले कर राहुल तक की कांग्रेस, बदलते हुए युग की भर-पायी में, गांधी को तिलांजलि देती आयी है। अपने जीवन-काल में ही गांधी कांग्रेस ले लिए एक उपयोगी ढाल से अधिक कुछ नहीं बचे थे। मोदी भी ऐसे ही संकेत दे रहे हैं। क्योंकि गांधी उनके आधार-भूत आदर्श नहीं हैं इसलिए, अचूक शस्त्र के रूप में, गांधी का दोहन करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होगी। पुरानी वैश्विक ताकतों से इतर, सारे ही विकास-पुरुष का एजेण्डा सब-दूर एक ही रहता आया है। पश्चिम के लिए पूरब की अस्मिता को न्यौछावर करते जाना। और, अनुभव सिखलाता है कि गाँव इसके सबसे सुलभ बलि के बकरे होते हैं। इसलिए, मोदी की योजना की समीक्षा इसी धुरी पर केन्द्रित होनी चाहिए कि क्या नये मुखौटे वाले अब गाँवों को फिर से चट करने वाले हैं?

परन्तु, दुर्भाग्य से, आलोचनाओं का अधिकांश स्वरूप क्षुद्र साम्प्रदायिकता के घिस-पिट चुके आंकड़ों पर ही केन्द्रित हो रहा है। पूछा-बतलाया जा रहा है कि योजना से लाभान्वित होने वाले किस जाति के हैं, किस धर्म के हैं? योजना की ऐसी आलोचना का प्रचार-प्रसार करते हुए आदर्श का यह आधार-भूत पक्ष सिरे से दबाया जा रहा है कि सच में ही एक छोटे से आदर्श की स्थापना से उसके दोहराव की सम्भावना स्वत: ही उत्पन्न हो जाती है।

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