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महाराष्ट्र में साफ होती समाजवादी पार्टी...!

विजय यादव, मुंबई.

महाराष्ट्र का चुनाव बिता, चुनाव परिणाम भी आ गया, अब नई सरकार का गठन भी हो गया, लेकिन इन सबके बीच उन दलों के भविष्य का क्या होगा, जो आक्रामकता और अपने विध्वंसक बयानों के दम पर सत्ता हासिल करने का दिवा स्वप्न देखती थी। इस कड़ी में आज हम समाजवादी पार्टी की बात करेंगे। अस्सी के दशक में उत्तर प्रदेश से चलकर मुंबई पहुंची सपा करीब 25 साल बाद भी एक अपाहिज की तरह चलने पर मजबूर है।  

महाराष्ट्र में साफ होती समाजवादी पार्टी...!
प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी की नीतियों से दूर होते हिन्दीभाषी 
 
मुद्दों के बजाय सिर्फ एक ही चेहरे तक सिमट गई है पार्टी


जाहिर है कि, इसके पीछे कही ना कहीं इसकी नीतियों में दोष रहा है। उत्तर प्रदेश में जो, पार्टी अपने आपको समाजवादी बताती है, वही दल महाराष्ट्र पहुंच कर एक कौम विशेष का होकर क्यों रह गई ? यह ऐसा सवाल है, जिसका सही-सही जवाब पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ही दे सकते है। मुंबई सहित राज्य के अन्य हिस्सों में सपा की नजर अब तक सिर्फ मुस्लिम और हिन्दीभाषी मतों पर रहा है। राज्य इकाई के प्रमुख अबु आसिम आजमी के मजहबी और भाषावादी बयानों ने कभी महाराष्ट्र के भूमिपुत्रों (मराठी भाषी) को पार्टी से जुड़ने नहीं दिया, जिसका सीधा-सीधा लाभ अब तक शिवसेना को मिलता रहा और नुकसान कांग्रेस को झेलना पड़ता था। जिस हिन्दीभाषी और मुस्लिम वोटों का बंटवारा सपा करती रही है, वह खासकर कांग्रेस के पारंपरिक वोट माने जाते रहे है। अगर पार्टी के भीतरी सूत्रों पर भरोसा करें तो, सपा मुंबई और ठाणे में बड़ी पार्टियों के हानि-लाभ को ख्याल में रख कर उम्मीदवार उतारती रही है। इतना ही नहीं चुनाव के दौरान किस उम्मीदवार के प्रचार अभियान में ज्यादा जोर लगाना है, या किसको खानापूर्ति के लिए ही लड़ाना है, इस विषय को ध्यान में रखकर सभाएं तय की जाती रही। मुंबई और महाराष्ट्र में नेता के नाम पर सिर्फ अबु आसिम आजमी ही है, जो समय-समय पर खुर चलाते रहते है। कहने के लिए इनके पास और भी कई नेता है, लेकिन सभी की हालत पिंजरे में बंद शेर की तरह है। बिलगु यादव, उमापति दुबे, अजय यादव, आदि। सपा के पुराने नेताओं में एक नाम कुबेर मौर्या का भी था, जिसे अब पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया है। ऐसे पार्टी मुखिया मुलायम सिंह को बताने के लिए महाराष्ट्र की कमिटी में 27 और मुंबई इकाई में 52 लोगों का काफिला है। खास बात यह है कि, दोनों ही कमेटियों के अध्यक्ष अबु आसिम आजमी है। अब इसके पीछे पार्टी की कोई मजबूरी है या रणनीति का कोई हिस्सा यह पार्टी नेता ही बता सकते है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो, सपा मुंबई में अच्छे लीडरों को जोड़ना तो दूर बल्कि मजबूत नेताओं को खोने में ज्यादा यकीन रखती है। लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस छोड़कर सपा में आये पश्चिम उपनगर के मजबूत नेता कमलेश यादव को भी पार्टी अपने साथ नहीं रख सकी और उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया। कमलेश यादव कांग्रेस के नगर सेवक भी रहे है। इसी तरह सपा पश्चिम उपनगर से एक और नेता असलम शेख को भी पार्टी संभाल नहीं सकी। असलम आज कांग्रेस के मालाड विधानसभा से विधायक है। उन्होंने ऐसे समय पर जीत हासिल की जब पूरे प्रदेश में कांग्रेस विरोधी लहर चल रही थी। 

महाराष्ट्र में साफ होती समाजवादी पार्टी...!
सपा के वोट बैंक पर एमआईएम का हो गया कब्जा
ज्यादा पीछे जाने की बजाय सिर्फ पिछले दो विधानसभा के परिणामों पर नजर डाले तो, पता चलता है कि, पार्टी का जनाधार और भी नीचे गिरा है। 2009 के विधानसभा में समाजवादी पार्टी महाराष्ट्र में कुल 0.74 प्रतिशत वोट पाकर 4 सीट जीती थी, जबकि 2014 में उसे सिर्फ 0.2 प्रतिशत वोट मिले। सीटों की संख्या 4 से खिसककर 1 पर पहुंच गई। इससे ज्यादा मत अकबरुद्दीन ओवैसी की पार्टी आॅल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) को 0.9 प्रतिशत मिले। एमआईएम दो सीटें हासिल करने में भी सफल रही। माना जाता है कि, इस बार के चुनाव में ओवैसी ने सपा सहित कांग्रेस को भी नुकसान करने में सफल रहे। अकबरुद्दीन ओवैसी की मुंबई में उस समय इंट्री हुई है, जब सपा महाराष्ट्र अध्यक्ष अबु आसिम आजमी कांग्रेस-राकांपा की गोद में बैठने की फिराक में थे। ओवैसी को अबु आसिम आजमी का तोड़ भी माना जा सकता है। यह सभी जानते है कि, समाजवादी पार्टी अबतक मुंबई सहित पुरे महाराष्ट्र में खुद जीतने के बजाय सिर्फ कांग्रेस-राकांपा को नुकसान करने के लिए चुनाव लड़ती रही है। ओवैसी ने भी महाराष्ट्र की उन सीटों को अपना निशाना बनाया, जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक की भूमिका में थे और ओवैसी के प्रति मुसलमान लगातार खिंचा चला गया। 

महाराष्ट्र में साफ होती समाजवादी पार्टी...!
कांग्रेस की चालबाजी भी नहीं समझ सकी सपा
मुंबई में कुल 19 प्रतिशत मुस्लिम वोट है, जो परंपरागत तरीके से कांग्रेस को मिलते रहे है। इनमे कुछ वोट सपा झटक ले जाती थी। 1990 के बाद से सपा महाराष्ट्र में मुस्लिमों की इकलौती पार्टी समझी जाती थी। मुस्लिम समुदाय में अपनी पैठ के कारण हमेशा कांग्रेस को नुकसान भी पहुंचाती रही यही वजह है कि, इस बार कांग्रेस ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया और सपा को आठ सीटें देने की घोषणा की। लेकिन नामांकन के अंतिम दिन अचानक समझौता तोड़ लिया। सपा के लिए यह करारा झटका था, क्योंकि इस बार महीनों पहले से महाराष्ट्र में घुसने की तैयारी कर रही एमआईएम करीब 31 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर चुकी थी। ये ज्यादातर वही क्षेत्र हैं, जहां से सपा ठीक-ठाक वोट खींचकर सूबे में अपना मत प्रतिशत ठीक करने में कामयाब हो जाती थी। कांग्रेस से धोखा खाने के बाद सपा ने 21 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। इनमें मानखुर्द से सपा प्रदेश अध्यक्ष अबू आसिम आजमी स्वयं खड़े हुए तो, उनके बेटे फरहान आजमी भिवंडी (पूर्व) से चुनाव मैदान में उतरे। दोनों सीटों पर उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी प्रचार करने आए। लेकिन मालेगांव, औरंगाबाद से लेकर मुंबई तक इस बार एमआईएम के फायर ब्रांड नेता अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषण अबू आसिम आजमी पर भारी पड़े। नतीजतन सबसे ज्यादा लाभ भाजपा और शिवसेना उम्मीदवारों को हुआ। 

महाराष्ट्र में साफ होती समाजवादी पार्टी...!
जमीन से जुडे मुद्दों से कभी नहीं जुड़ सकी सपा
भिवंडी (पूर्व) की सीट सपा जीत सकती थी , लेकिन उसे सबसे ज्यादा क्षति एमआईएम ने पहुचाया। यहां से सपा को 17541 मत मिले, जबकि एमआईएम के हिस्से 14577 वोट आये। जीत हासिल करने वाले शिवसेना उम्मीदवार को कुल 33541 मत मिले। अगर यहां सपा और एमआईएम के मत जोड़े तो, 32118 मत होते है, जो शिवसेना से सिर्फ 1423 वोट काम है। मतदान के आखिरी वक्त में कुछ मतदाता ऐसे होते है, जो लहर में बह जाते है। कुल मिलकर सपा ने भिवंडी की जीतती हुई सीट एमआईएम की वजह से खो दी। जिस भिवंडी (पश्चिम) सीट पर 2009 में सपा जीती थी वहां इस बार सपा 12 वें स्थान पर थी, जबकि एमआईएम चौथे नंबर पर रही। सपा का मुंबई में अब तक कोई मजबूत एजेंडा नहीं रहा, वह सिर्फ क्षणिक नारों और घोषणाओं के बल पर चुनाव लड़ती रही है। 2009 के चुनाव में सपा ने उत्तर भारतीयों में लाठी बांटने की घोषणा कर ऐसा तूफान खड़ा किया, जिसका सीधा लाभ राज ठाकरे को मिला। 2009 के विधानसभा चुनाव भी में सपा और मनसे एक दूसरे पर लगातार वार करते रहे। परिणाम में सपा को 4 तो मनसे को 13 सीटें मिली। इस बार दोनों दलों का यह फंडा काम नहीं आया और दोनों को एक-एक सीटों पर संतोष करना पड़ा।

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