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किसके साथ, किसका विकास?

प्रदीप शर्मा, संयोजक, छत्तीसगढ़ कृषक बिरादरी

जब देश का नेतृत्व देशज यथार्थताओं की जमीनी समझ की अवहेलना करने के साथ ही ‘उत्पादन के माध्यमों का विकास’, ‘प्रति व्यक्ति उत्पादकता गुणांक’ और ‘प्रति व्यक्ति रचनात्मक समय का रोजगार में परिवर्तन’ जैसे आधार-भूत पैमानों के बदले ‘प्रति व्यक्ति निवेश’, ‘प्रति व्यक्ति विद्युत खपत’ तथा ‘सड़कों की लम्बाई’ जैसे दिखावे वाले हवा-हवाई सूचकांकों पर अधिक ध्यान केन्द्रित कर लेता है तब मजबूत से मजबूत अर्थ-व्यवस्था भी ढहने की कगार तक लुढ़क जाती है।

वैसे तो पिछले छह महीनों में दुनिया भर में ऐसी अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ घटी हैं जिनके निहितार्थ पर बहस की गुंजाइश बनी और बची हुई है लेकिन जिन दो घटनाओं की धमक लगातार बरकरार है उसमें पहली घटना 15 अगस्त को घटी जब देश के किसी प्रधान मन्त्री ने लाल किले की प्राचीर से देश को सम्बोधित करते हुए पहली बार स्वच्छ भारत के साथ-साथ ग्रामीण स्कूलों में शौचालय की अनिवार्यता की भी बात कही। इस नग्न सत्य को राज प्राचीर से उद्धृत किये जाने पर सारा देश एक झटके के साथ आश्चर्य मिश्रित सकते में आ गया।

कभी-कभी ही ऐसा मौका आता है जब राज-भवन की प्राचीर गाँव की पीड़ा को भी ध्वनित करती दिखे। वह भी, बिना किसी लाग-लपेट के। गांधी की 150 वीं जयन्ती पर उनके चरणों में ‘स्वच्छ भारत’ अर्पित करने का मोदी का संकल्प भी ऐसा ही विरला क्षण रहा। यदि सच में ही पूरा हो गया तो इस संकल्प को बापू के प्रति अर्पित की गयी अब तक की सर्वाधिक महत्वाकांक्षी, साथ ही साथ सार्थक भी, श्रद्धांजलि के रूप में याद रखा जायेगा। 


किसके साथ, किसका विकास? दूसरी घटना ठीक अगले महीने, सितम्बर में, घटी। तब न्यूयार्क शहर में संयुक्त राष्ट्र संघ की इकॉनॉमिक एण्ड सोशल काउन्सिल (ECOSOC) आर्थिक एवं सामाजिक काउंसिल की बैठक आयोजित हुई। बैठक में इस सहस्राब्दि के उदय-काल में अपने समय से बेहतर विश्व में जीने के संकल्प के साथ निर्धारित हुए पन्द्रह वर्षीय विकास-लक्ष्यों तथा उस दिशा में हुई उपलब्धियों का मूल्यांकन तथा पुनर्निधारण किया जाना था। सन्‌ 2000 में निश्चित किये गये इन लक्ष्यों का नाम-करण तब ‘मिलिनियम डेव्हलपमेण्ट गोल’ (MDG) किया गया था। सितम्बर की वैश्विक बैठक में सभी देशों के सरकारी प्रतिनिधियों के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले विशेषज्ञों ने भी भाग लिया और अपने-अपने अनुभवों को परस्पर साझा किया। इसी बैठक में यूनिसेफ की स्टेटस रिपोर्ट आई जिससे पता चला कि विश्व के, कम आय वाले, 126 देशों ने सन्‌ 2000 में संकल्पित उपरोक्त सामाजिक सरोकारों के लिए अपनी-अपनी योग-दान राशि में 44 प्रतिशत्‌ तक की कटौती कर दी है।

सितम्बर की बैठक में शामिल हुए अधिकांश नीति-निर्धारकों की राय थी कि आज के खस्ता हाल वैश्विक अर्थ-व्यवस्था के दौर में ‘सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों’ (एमडीजी) को पूरा कर पाना मुश्किल ही नहीं लगभग असम्भव ही है क्योंकि ये लक्ष्य इस अवधारणा पर निर्धारित किये गये थे कि इस बीच दुनिया के सभी देश, औसतन, विकास की समान दर पा लेंगे। उनकी राय थी कि, ऐसा होने पर, विकास की योजनाओं से उपजी तमाम अ-समानताओं को केवल सामान्य जन की निःशुल्क भागीदारी के सहयोग से दूर किया जा सकता है। भारतीय सन्दर्भ में देखें तो, सामान्य जन की इस भागीदारी को स्वयंसेवा कहा जा सकता है। और, यही एमडीजी को पाने का इकलौता रास्ता बचा है।

इसकी पृष्ठ-भूमि में जायें तो सन् 2000 में निर्मित हुए इस एमडीजी में विश्व के सभी देशों ने यह तय किया था कि अगामी 15 वर्षों में शिक्षा, स्वास्थ्य, लिंग-भेद, मातृत्व स्वास्थ्य, शिशु एवं मातृ मृत्यु-दर और टिकाऊ विकास जैसे सात विषयों में विकसित तथा विकास-शील देशों के बीच की स्थितियों एवं आँकडों की वर्तमान भयानक असमान खाई को पाटा जाना चाहिए। तभी, उसके लिए निर्धारित लक्ष्य भी तय किये गये। लेकिन, ये स्वर्णिम घोषणाओं के वे दिन थे जब उस अमरीकी स्टॉक एक्सचेंज का डाऊ जोन्स इण्डेक्स 1994 के 3600 अंक से ऊपर चढ़ कर सन्‌ 2000 के 11000 अंक को छू रहा था। जब अमरीका में बे-रोजगारी की दर 4 प्रतिशत्‌ और जीडीपी का विकास 5 प्रतिशत्‌ था। और जब विश्व अर्थ व्यवस्था को ‘डॉट कॉम इकानॉमी’ ने अ-प्रत्याशित उछाल दे दी थी।.

भले ही वे इस बहाने राजनैतिक इतिहास के भविष्य में अपनी छवि के लिए स्थायी स्थान हेतु वैचारिक निवेश कर रहे थे, ‘ब्रिक्स बैंक’ जैसी अव-धारणा के पहले के वैश्वीकरण के उस दौर के बिल क्लिंटन एवं टोनी ब्लेयर जैसे दो पॉलिटिकल चियर लीडर, गरीबी से लड़ने के एक ‘तीसरे रास्ते’ की वकालत कर रहे थे जिसका नाम-करण ‘सामाजिक मूल्य वादी पूंजीवाद’ किया गया था। वह 2000 के सितम्बर का एक ऐसा दौर था जब सिवाय चीन के, जिसने उप मन्त्री जैसे मामूली से स्तर के अपने प्रतिनिधि को अमरीकी राष्ट्रपति एवं अनेक राष्ट्राध्यक्षों के इस सम्मेलन में शिरकत करने के लिए भेजा था; जी-8 का प्रत्येक आशावादी नेता इस दूर-गामी अभिपत्र पर अपने हस्ताक्षर करने को उत्सुक था।

आज 14 वर्षों बाद, जब पश्चिमी अर्थ-व्यवस्था का डबल-बबल इफेक्ट फूट चुका है, जब पश्चिमी अर्थ-व्यवस्था सर्वाधिक खस्ता हाल दौर से गुजर रही है और जब अमरीका जैसे देशों में बे-रोजगारी का स्तर दो अंकों के दर को पार कर रहा है; तब यूनिसेफ की 2014 की यह स्टेट्स रिपोर्ट चौंकाती नहीं कि विश्व के 126 कम आय वाले देशों ने उपरोक्त सामाजिक सरोकारों के लिए उपलब्ध धन राशि में लग-भग आधे की कटौती कर दी है। ऐसे ध्वस्त अर्थ-व्यवस्थाओं के ऐसे दौर में जब नया सहस्राब्दि विकास लक्ष्य लिखा जाना हो तब न केवल ‘मनरेगा’ को चलाना बल्कि पूरे देश में व्यापक तौर पर साधे रखना, निश्चित ही विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत की एक बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि रही है। 


किसके साथ, किसका विकास? महात्मा गांधी के नाम पर चल रहे इस सबसे बड़े रोजगार कार्य-क्रम को सिकोड़ते हुए, देश के अन्तिम आँगन में शौचालय एवं गलियों से लेकर कार्यालयों की धूल झाड़ने की बात को महात्मा गांधी से जोड़ने एवं प्राथमिकता देने से नयी सरकार ने अपने अभिप्रायों तथा प्राथमिकताओं को वैश्विक फलक पर नये आयाम के साथ स्पष्ट कर दिया है। सामान्यतः आविष्ट नेतृत्व अपनी मजबूरियों को, उत्तेजित घोषणाओं एवं महत्वाकांक्षी लगने वाले कार्य-क्रमों में बदल दिया करता है। कई बार यह रण-नीति निश्चित तौर पर राजनैतिक छवि में भारी पूँजी-निवेश भी साबित होती दिखती है। खास कर, जब आपके पीछे दूर तक राजनैतिक विकल्प-हीनता हो।

हो सकता है कि महात्मा गांधी ने भी ऐसा ही महत्व-पूर्ण तथा महात्वाकांक्षी प्रयोग अपने जीवन-काल में किया हो। परन्तु तब, शायद, उन्हें इस बात का अनुमान हो चुका था या फिर उनके वर्षों के संघर्ष की समझ ने उनके अन्तस्‌ में इसका स्पष्ट आँकलन करा दिया था कि उनके ‘आम आदमी’ के पास, देश-हित में स्वयं-सेवकत्व की क्षमता का देश को समर्पित किये जाने वाला, कितना जन-समय उपलब्ध होगा? उन्होंने पास इसका भी पर्याप्त आँकलन किया था कि उसका यह योग-दान सके अपने स्वावलंबन को सीधे-सीधे तौर पर कितना मजबूत करेगा? शायद इसी ने न केवल एक तरफ चरखा और खादी को खड़ा किया बल्कि दुनिया की सबसे बडी अनुशासित स्वयं-सेवकों की फौज को भी कांग्रेस के झण्डे के तले खड़ा कर दिया था।

भले ही देश के राजनैतिक क्षितिज पर काबिज नये नेतृत्व के दिन बहुत ज्यादा नहीं बीते हों, और ‘मेक इन इण्डिया’ का रॉयल टाइगर, अभी-अभी ही माँद से बाहर आया हो; देश के लिये थोड़ा सुकून तो है ही कि अपनी सत्ता के पहले 100 दिनों में देश का नया नेतृत्व, लगातार चुनौतियों के साथ, पिछली सरकारों की तुलना में कम से कम संवाद करता तो दिखाई दे रहा है। और यह अपने आप में, सच-मुच ही, भारतीय नेतृत्व के परिदृश्य पर अनेक दशकों बाद घटी घटना है। यद्यपि यह भी अकाट्य सचाई है कि ‘मेक इन इंडिया’ के उस कार्यक्रम में सरकार की नई योजना के साथ सहयोग की कसमें खाते ज्यादातर चेहरे वही दिखाई दे रहे थे, जिन्हें देश ने पिछले कार्य-कालों में घटे 2-जी स्पेक्ट्रम और कोल ब्लॉकों के आबण्टन के समय इसी तरह ‘नया भविष्य’, ‘नई छलाँग’, ‘नया आर्थिक नेतृत्व’ जैसे गरिष्ठ जुमलों की जुगाली करते देखा था.। नये नेतृत्व के नये संवादों में स्वयं-सेवा तथा स्वावलम्बन का वह अन्तर्सम्बन्ध अभी तक झलका नहीं है जो करोड़ों ग्रामीणों एवं बीपीएल लोगों की भागीदारी व प्राकृतिक संसाधनों के न्याय-पूर्ण सदुपयोग के दौर में देखने में आया था।

ऐसे समय में जब जीडीपी आधारित विकास के पैमानों पर हिन्दुस्तान के विकास की आज की दर अमरीका के 2000 के दौर के आर्थिक सूचकांकों की याद दिलाती है, हमें अभी डिजिटल इण्डिया के ख़्वाब में ‘वर्चुअल गाँव’ से पहले ‘वास्तविक गाँव’ की पेय-जल की समस्याओं का हल निकालना पड़ेगा। नहीं तो, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या हम उसी रास्ते पर देश को ले जा रहे हैं जिस पर चल कर 2014 में यूरोप और अमरीका कंगाली की वर्तमान कगार पर आ पहुँचे हैं।

सामान्यतः ऐसा तब होता है जब देश का नेतृत्व देशज यथार्थताओं की जमीनी समझ की अवहेलना करने के साथ ही ‘उत्पादन के माध्यमों का विकास’, ‘प्रति व्यक्ति उत्पादकता गुणांक’ और ‘प्रति व्यक्ति रचनात्मक समय का रोजगार में परिवर्तन’ जैसे आधार-भूत पैमानों के बदले ‘प्रति व्यक्ति निवेश’, ‘प्रति व्यक्ति विद्युत खपत’ तथा ‘सड़कों की लम्बाई’ जैसे दिखावे वाले हवा-हवाई सूचकांकों पर अधिक ध्यान केन्द्रित कर लेता है तब मजबूत से मजबूत अर्थ-व्यवस्था भी ढहने की कगार तक लुढ़क जाती है। विकास के ऐसे ही स्वप्निल पैमानों पर चल कर, कभी शेर रहे, एशियाई देश अब घायल और ढेर पड़े हैं और किसी न किसी अन्तर्राष्ट्रीय उप-निवेश की छाँव तले पड़े अपने घाव चाट रहे हैं। चिन्ता की बात यह है कि एशियाई शेरों के घावों तथा अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की छाँवों, दोनों में उत्तरोत्तर वृद्धि ही हो रही है। ‘सबके साथ सबके विकास’ का यह दृश्य काफी डरावना है। कहीं यह एक चिर-स्थाई सच न बन जाये।

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