मंदिरों की नगरी पन्ना में दिवारी नृत्य की धूम रही। पन्ना सहित पडोसी जिलों के ग्रामीण अंचलों से सैकडों की संख्या में ग्वालों की टोलियां दीपावली के दूसरे दिन प्रथमा को भगवान जुगल किशोर के दरबार में माथा टेकने और उनके साथ दिवारी नृत्य करने के लिए यहां आते हैं। ग्वालों की टोलियां जुगल किशोर मन्दिर के अलावा बलदाऊ जी मन्दिर सहित शहर के अन्य सभी मंदिरों के प्रांगण में भी दिवारी नृत्य का हैरत अंगेज करतब का प्रदर्शन करते हैं।
बुन्देलखण्ड में दीवाली के दूसरे दिन दिवारी नृत्य की धूम |
दिवारी नृत्य के करतब देखकर मंत्रमुग्ध हुए लोग
सुबह 9 बजे से ही हांथों में मोर पंख लिए तथा रंग बिरंगी पोशाक पहने ग्वालों की टोलियों का जुगल किशोर जी मंदिर में आने का सिलसिला शुरू हो गया था। ग्वाले पूरे भक्ति भाव के साथ भगवान जुगल किशोर जी की नयनाभिराम छवि के दर्शन करने के उपरान्त पूरी मस्ती के साथ नगडिया, ढोलक और मंजीरों की धुन में दिवारी नृत्य प्रस्तुत करते हैं। ग्वालों का दिवारी नृत्य व रोमांचकारी लाठी बाजी को देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग यहां खिंचे चले आते हैं। मालूम हो कि पन्ना नगर के सुप्रसिद्घ जुगल किशोर जी मंदिर में दिवारी नृत्य प्रस्तुत करने की पुरानी परंपरा है, जिसका निर्वहन बुन्देलखण्ड के ग्वाले आज भी करते हैं। पन्ना जिले के ग्रामीण अंचलों से ग्वालों की दर्जनों टोलियां दीपावली के दूसरे दिन प्रथमा को यहां पर दिवारी नृत्य करने के लिए जहां आती हैं, वहीं पडोसी जिला छतरपुर, दमोह व बांदा से भी बडी संख्या में ग्वाले दिवारी नृत्य करने व जुगल किशोर जी के दर्शन पाने के लिए हर वर्ष पन्ना आते हैं। यहां आने वाली ग्वालों व मौनियों की टोलियां पूरे भक्ति भाव व मस्ती के साथ नृत्य का प्रदर्शन करती हैं, जिसे देखने के लिए जन समूह उमड़ पड़ता है।
दिवारी नृत्य का प्रदर्शन करने वाले ग्वाले पूरे अधिकार के साथ भगवान श्री कृष्ण को अपना बाल सखा मानते हैं। इसी आत्मीय भाव को लेकर ग्वाले जुगल किशोर जी के दरबार में आकर माथा टेकते हैं तो उनमें असीम ऊर्जा का संचार हो जाता है। इसी भाव दशा में ग्वाले सुध बुध खोकर जब दिवारी नृत्य करते हैं तो उन्हें इस बात की अनुभूति होती है मानों बाल सखा कृष्ण स्वयं उनके साथ दिवारी नृत्य कर रहे हैं। पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने जब गोकुल वासियों से इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा कराई तो देवराज इन्द्र कुपित हो गये। उन्होंने ग्वालों को इस गुस्ताखी का सबक सिखाने के लिए प्रलय की स्थिति निर्मित कर दी। फलस्वरूप भगवान श्री कृष्ण ने अपनी उंगली में गोवर्धन पर्वत धारण कर गोकुल वासियों की रक्षा की। इसी खुशी में ग्वाल बाल व खुद श्रीकृष्ण नाच उठे, तभी से दिवारी नृत्य की परम्परा कायम है।
जुगलकिशोर मन्दिर में दिवारी नृत्य एवं करतब दिखाते ग्वाले |
मालुम हो कि समूचे बुन्देलखण्ड अंचल में कार्तिक कृष्ण अमावस्या से प्रथमा तक ग्वाल बाल दिवारी नृत्य करते हैं। इस अंचल का प्रमुख लोक नृत्य दिवारी ही है, जो दीपावली के अवसर पर गांव-गांव में होता है। दिवारी नृत्य की टोलियों में शामिल ग्वालों को मौनी कहा जाता है। मौनियों की टोली जब पूरी मस्ती में दिवारी नृत्य करती है तो दर्शकों के पांव भी थिरकने लगते हैं। दीपावली के दूसरे दिन पन्ना शहर में दिवारी नृत्य की धूम देखते ही बन रही थी। समूचा शहर नगडियों, ढोलक व मजीरों की विशेष धुन से गुंजायमान रहे। दिवारी नृत्य करने वाली ग्वालों की टोलियों में शामिल मौनी अपने विशेष वेषभूषा में नृत्य करते हैं। वे सिर पर मोर पंख व कमर में घुंघरूओं का पट्टा बांधते हैं। मोर पंख का पूरा एक गट्ठा मौनी अपने हांथ में भी थामे रहते हैं और इसी गट्ठर को उछालकर नृत्य करते हैं। जुगल किशोर की नगरी पन्ना में दिवारी नृत्य करने के लिए छतरपुर जिले से आई ग्वालों व मौनियों की टोली के मुखिया ने बताया कि हम हर साल यहां आते हैं। जुगल किशोर जी के दरबार में दिवारी नृत्य करने से दुख-दर्द व हर तरह की बाधायें मिट जाती हैं तथा परम सुख और आनन्द का अनुभव होता है। ग्वालों की इस टीम ने जुगल किशोर जी मंदिर के बाद बलदाऊ जी मंदिर में भी दिवारी नृत्य का प्रदर्शन किया।