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किसे नहीं जरूरत संयम की?

डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.

यह सही हो सकता है कि अतीत में मतदाता राजनैतिक चालबाजों के झाँसे में आ गया हो। ऐसा आगे भी हो सकता है। लेकिन मुद्दों को समझने, और उन्हें तय करने का भी, मतदाता का अधिकार उससे केवल इस सोच के आधार पर छीना नहीं जा सकता कि वह अन-पढ़ या कि गँवार है, और इसलिए, इतना ना-समझ है कि सहजता से बरगलाया जा सकता है।

उपायों पर बहस जरूरी है। चाहे वह जितनी भी लम्बी क्यों न खिंचे। समझदारी, बेईमानी, संयम-असंयम आदि सभी मानवीय पहचानें हैं। इसलिए सामाजिक नियंत्रण ही बेहतर विकल्प है। आदमी को ‘परखने’ का जिम्मा आदमी को ही सुपुर्द करके रखना चाहिए। यही आदमीयत भी है। इसमें यदि उसे कुछ सामाजिक कठिनाइयाँ आती हैं और उनके निदान के लिए वह न्याय के दरवाजे खट-खटाता है तब जरूर न्याय को पूरे मनोयोग से, लेकिन उतनी ही निर्लिप्तता से भी, अपना हस्तक्षेप निर्धारित करना चाहिए। 


किसे नहीं जरूरत संयम की? जन-मत के दबाव में और न्यायिक प्रक्रिया से बाहर तो इस तरह के वातावरण का निर्माण निश्चित रूप से स्वागत योग्य है। लेकिन इस पर अ-सीमित अधिकार सम्पन्न न्यायिक निगरानी जोखिमों से सराबोर है। एक दुधारी तलवार के सारे जोखिम रखता है यह निर्देश। संयम की आखिरकार सभी को जरूरत है। 
कहना तो यह चाहिए कि जो जितना अधिक संरक्षित है, संयम बरतने की उसकी जिम्मेदारी भी उतनी ही अधिक है।

‘बुद्धू-बक्सों’ पर दिखाये जाने वाले विज्ञापनों पर सर्वोच्च न्यायालय का ताजातर निर्देश आसन्न चुनावों के सन्दर्भ में तो महत्वपूर्ण है ही, चुनावों से परे वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में भी बहुत दूरगामी हो सकता है। चुनाव-परिदृश्य में, राजनीतिज्ञों और राजनैतिक दलों को मतदाता को अपने पक्ष में रिझाने के प्रयास में मर्यादा की लक्ष्मण-रेखा नहीं लाँघने की चेतावनी है यह। साथ ही, चुनाव आयोग को भी इस मुद्दे पर अपनी निगाह खुली रखने को कहा गया है। कुल मिलाकर, इतना और ऐसा संयम हर हाल में बरतने पर जोर है कि इससे देश में होने वाले चुनाव ही प्रकारान्तर से अपने मुख्य साध्य — लोकतन्त्र — को कोई स्थायी नुकसान न पहुँचा दें। यद्यपि अन्तिम फैसला तो पूरी न्यायिक प्रक्रिया के बाद सामने आयेगा लेकिन एक गम्‍भीर और दूर-गामी बहस तो खुल ही गयी है इससे।

जाहिर है, न्यायालय चाहे भी तो अब यह बहस थमेगी नहीं। साथ ही, कोई चाहे अथवा नहीं, यह बहस आसन्न चुनावों को (उनके परिणामों को भी) प्रभावित भी करेगी। और, यह इस मुद्दे का एक ऐसा केन्द्रक है जिसके, न्याय-प्रक्रिया में, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष घाल-मेल से हमारी न्याय-व्यवस्था को प्रत्येक निष्पक्ष न्यायविद् दूर ही रखना चाहेगा। लेकिन ज्वलन्त प्रश्न तो यह है कि हमारे देश में पदासीन व्यक्ति, उसके नियोक्ता संस्थान की संवैधानिक प्रतिष्ठा और महज पदासीनता के आधार पर उसमें स्वयमेव निहित संवैधानिक विशेषाधिकारों के परस्पर सम्‍बन्धों के मकड़-जाल की अभी तक परिभाषित हुई स्थितियों के चलते, तमाम सद्-प्रयासों के बाद भी; क्या कोई ऐसा करने में सफल भी हो पायेगा?

यह बहस इतनी दूर-गामी है कि मुद्दा भले ही (सीमित सन्‍दर्भ में) न्यायाधीन हो गया हो, वृहत्तर सन्‍दर्भ में पूरे विषय पर व्यापक विचार-मंथन को रोका नहीं जा सकेगा। रोका जाना भी नहीं चाहिए, फिर कारण चाहे कितने भी तकनीकी क्यों न हों। क्योंकि संयम की जरूरत आखिर किसे नहीं है? किन्तु दुर्भाग्य से, यदि किसी दण्ड-विधान के जोर पर, येन-केन-प्रकारेण इसे रोक दिया गया तो ऐसा करना लोक-मत और लोक-प्रक्रिया के सबसे कलंकित अध्यायों में से एक होगा।

जहाँ उम्मीदवारों के खुले दिमाग, साफ नीयत और निगरानी-कर्ताओं की सापेक्ष निरपेक्षता की शत्-प्रतिशत् गारण्टी के रहते, उक्त निर्देश निश्चित सकारात्मक प्रभाव छोड़ेगा वहीं इस बात की भी गारण्टी है कि उपरोक्त निर्देश की आड़ में समझ की किसी कमी, किसी विशेष पूर्वाग्रह या कि अहं-जनित सहज मानवीय दुराग्रह में से एक का भी किंचित् अंश लोक-तन्त्र को अपूरणीय क्षति देगा। तात्पर्य यह कि जन-मत के दबाव में और न्यायिक प्रक्रिया से बाहर तो इस तरह के वातावरण का निर्माण निश्चित रूप से स्वागत योग्य है। बल्कि अब इतने सालों के लोकतन्त्र में, परिपक्वता के लिहाज से, अपेक्षित भी है। लेकिन इस पर असीमित अधिकार सम्पन्न न्यायिक निगरानी जोखिमों से सराबोर है। एक दुधारी तलवार के सारे जोखिम रखता है यह निर्देश। 

किसे नहीं जरूरत संयम की? उदाहरण के लिए, जैसी कि खबरें सामने आयी हैं, मूलत: चुनावी माहौल में विज्ञापनों के माध्यम से अनैतिकता, अशालीनता और किसी की धार्मिक भावना को चोट पहुँचाने के राजनैतिक प्रयासों पर रोक लगाने के लिए ही उक्त न्यायिक निर्देश जारी हुआ है। इस बारे में किसी को भी अलग से यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि इन प्रयासों में प्रचार-प्रसार का प्रत्येक माध्यम बराबरी का भागीदार है। आज से नहीं, अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के दिन से ही। बल्कि, यदि यह कह दिया जाये कि इन माध्यमों की वर्तमान बाढ़ के पीछे मूलत: यही मानसिकता रही है तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसी स्थिति में एक सहज सवाल है कि उक्त निर्देश केवल दृष्य-मीडिया पर ही क्यों लागू हो? दूसरा सवाल यह भी है कि तथा-कथित रूप से परखने का मौका उपलब्ध कराने के नाम पर आज जो साक्षात्कार अथवा बहसें खुले रूप में परोसी जा रही हैं, यदि वे भी इसी तरह के दोष से भरी-पूरी हैं तो उन्हें कुछ भी छूट क्यों मिले?

एक बड़ी महत्वपूर्ण बात और भी है।

यदि कोई बहस पिछले लम्‍बे समय से जारी हो, सम्‍बन्धित पक्ष को उस पर सफाई का पर्याप्त अवसर पहले ही मिल चुका हो (किसी ने इस अवसर का उपयोग किया था अथवा नहीं, इससे कोई अन्‍तर नहीं पड़ता) और उक्त बहस आम जन के बीच पहले ही एक महत्व-पूर्ण मुद्दा बन चुकी हो; तब किसी भी न्यायिक आदेश से इस मुद्दे की सुस्पष्ट इबारत को मिटाया और उसमें मौजूद मंशा को चुनाव-प्रचार से इस तरह कैसे प्रतिबन्धित किया जा सकता है — केवल इस आधार पर कि इससे किसी व्यक्ति अथवा दल विशेष को चुनावी नुकसानी झेलनी पड़ सकती है? वह भी खास तौर पर तब, जब किसी व्यक्ति अथवा दल विशेष की छवि को इतिहास के किसी गौरव से (फिर चाहे वह व्यक्ति हो, स्थान हो या कि कोई घटना हो) महज भावात्मक तादात्म दर्शाकर उसके माध्यम से सहानुभूति बटोरने के आडम्बरी प्रयास खुले रूप में और बड़े बेरोक-टोक तौर पर जारी रहे हों — केवल सत्ता की बागडोर हथियाने के लिए।

यह ‘व्यक्तिगत्‌ छवि’ के बिगड़ने की चिन्ता आखिर किसकी है? क्या केवल उनकी जो उजागर रूप से बद-कर्मी या कि बद-चलनी के दल-दल में ही रचते-बसते रहे हैं? या फिर उनकी जो अवसरों के अनुकूल नकाब बदलने के माहिर हैं और अपनी इस काबलियत के बल-बूते अभी तक सफेद-पोश बने हुए हैं? अमूमन पूरी दुनिया में ही चुनाव एक ऐसा सर्व-सुलभ अवसर लाते हैं जब अपने ही अपनों की पोल खोलते हैं, अन्यथा बाकी दिन मौटे तौर पर मिल-बाँटकर खाने-निभाने के होते हैं। फिर ‘परिचय’ के इस महा-कुम्भ पर मुँह को सिल रखने का प्रतिबन्ध क्यों? क्या ऐसा करने से आम नागरिक के ‘जानकारी पाने के अधिकार’ का हरण नहीं होगा? और, खास तौर पर मतदान कर अपने लिए एक सर्वथा योग्य प्रतिनिधि का चयन करते समय, ऐसा होना निजी रूप से ऐसे प्रत्येक मत-दाता के अलावा उसके क्षेत्र और इस देश के साथ भी गम्भीर अपराध नहीं हो रहा होगा? यदि सम्बन्धित बातों को इस दृष्टि-कोण से देखने से भी परहेज करेंगे तो पूरी कवायद अपने मूल ध्येय से ही भटक जायेगी। और तब इस विचार-मंथन से जो भी ताकत हासिल होगी, वह उन्हीं तत्वों को संरक्षण देगी जिनसे आम आदमी को सुरक्षित करने के लिए यह कवायद शुरू की गयी बतलायी जा रही है।

यदि मेरी याददाश्त आज भी मेरा साथ दे रही है तो मुझे एक बहुत सटीक उदाहरण सूझ रहा है —

चुनावी भ्रष्टाचरण के कारण लड़ी गयी एक (लम्बी) कानूनी लड़ाई में तब तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा नेहरू गांधी को अन्तत: मुँह की खानी पड़ी थी। इस हार से देश का कोई प्रधानमन्त्री पहली बार कानूनी तौर पर लोक-प्रतिनिधित्व के अयोग्य घोषित किया गया था। सरल भाषा में, निर्णय की घोषणा के अगले ही क्षण उसे अपने संवैधानिक दायित्व से बलात् विमुख कर दिया जाना चाहिए था। लेकिन भ्रष्ट आचरण के लिए गम्भीर रूप से दोषी घोषित हुई उस प्रधानमन्त्री ने एक निहायत तकनीकी तर्क, उतनी ही कुटिल चातुरी से, न्याय-मन्दिर के दरवाजे पर चस्पा कर दिया — ‘चूँकि देश के प्रधान-मन्त्रित्व अनवरत् रूप से कायम रखा जाता है, और यदि किसी भी कारण से पदासीन व्यक्ति पदेन जिम्मेदारी के निर्वहन हेतु असमर्थ हो जाता है, तो इस तरह से पद-रिक्त होते ही उसकी पूर्ति भी कर दी जाती है।’

इस कुटिल तर्क का सहारा लेते हुए भ्रष्ट-घोषित उस प्रधानमन्त्री ने अपने ही दल में से किसी ‘योग्य’ के चयन में समय लगने के भोले से समझ पड़ने वाले तर्क की दलीली ताकत से पहले तो न्यायालय से अपने पद-त्याग की कानूनी तात्कालिकता में चतुरायी से सराबोर छूट अर्जित की और फिर छूट की इसी समय-सीमा में चतुराई भरा एक दूसरा दाँव खेलकर विधान को विधान के ही दुरुपयोग से मात दे दी।

इस तरह, संवैधानिक रूप से आधार-भूत प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया की ही दोषी घोषित हो कर पद पर बने रहने के अयोग्य हुई उस दबंग प्रधान मन्त्री ने, अपने लिए सुविधा-जनक एक अध्यादेश जारी करवा कर अपनी बन्धन-कारी अयोग्यता को अ-प्रभावी कर सकने के अधिकार का (अ)संवैधानिक तोड़ जोड़ दिया। और, प्रजा-तन्त्र में अपनी तथा-कथित अपरिहार्यता को विशुद्ध अ-प्रजातान्त्रिक तरीके से राष्ट्र पर थोप दिया।

यहाँ मुद्दा यह नहीं है कि किस-किस ने क्या-क्या किया? मुद्दा तो यह है कि अपना इस तरह माखौल उड़ाये जाने पर सिवाय निरीहता के प्रदर्शन के हमारी ताकत-वर न्याय-प्रक्रिया ने क्या किया? 

किसे नहीं जरूरत संयम की?
हाँ, तथ्य-परक जानकारियों तथा उन पर आधारित ‘लोक-हित के वास्तविक व गम्भीर राष्ट्रीय मुद्दों’ और कल्पित आधार पर ‘औचक उछाले गये कीचड़’ में अन्तर है। केवल मत बटोरने के लिए इस तरह कीचड़ उछालने के किसी भी प्रयास को रोकने के उपायों का प्रत्येक मत-दाता स्वागत ही करेगा। लेकिन ऐसा तभी हो सकेगा जब आरोप लगाने वाले को तत्क्षण, इसी निमित्त पहले से स्थापित किये गये न्यायिक कटघरे में, खड़े किये जाने और वहाँ बिना समय की माँग किये अपनी बात अकाट्य रूप से तत्काल सिद्ध करने का प्रावधान हो। ऐसा नहीं कर पाने पर सम्बन्धित व्यक्ति(यों) को इसी न्यायिक मंच द्वारा गम्भीरतम्‌ रूप से दण्डित किये जाने के विधि के ऐसे सरल और एकदम साफ-साफ प्रावधान भी होने चाहिए जिनके रहते पीठासीन न्यायाधिकारी को दण्ड के मान पर विचार हेतु अपने ‘विवेक’ के उपयोग की कोई आवश्यकता अथवा छूट नहीं हो। इस न्यायिक मंच को द्वि-स्तरीय बनाया जाना चाहिए ताकि अपरिहार्य कार्य-बोझ के बावजूद न्यायिक मान-दण्डों की श्रेष्ठता को अक्षुण्ण बनाये रखा जा सके।

यहाँ एक सहज सवाल और भी है। क्या चुनावों को इस तरह प्रभावित करने से रोकने का दायित्व केवल राज-नेताओं और राजनैतिक दलों तक ही सीमित है? क्या चुनावी-जंग से बाहर बने रहना जिनकी संवैधानिक जिम्मेदारी है उनका भी उतना ही दायित्व नहीं है कि वे ऐसा कोई सीधा या सांकेतिक उल्लेख अथवा टिप्पणी करने से बचने का संयम बरतें जो, राज-नेताओं की मत-दाताओं को प्रभावित कर पाने की स्वाभाविक सीमा से परे जाकर, चुनाव-परिणामों को प्रभावित कर सकती हो?

पिछले कुछ चुनावी दौरों में देश ने ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों और संस्थाओं को संयम की मर्यादा से बाहर लम्बी छलाँगें लगाते देखा है।

राजनीति दाँव-पेंचों से भरी-पूरी है। लेकिन राजे-रजवाड़ों से आधुनिक लोक-तन्त्र तक, देश के नागरिक का अनुभव भी बड़ा विशाल है। यह सही हो सकता है कि अतीत में मतदाता राजनैतिक चाल-बाजों के झाँसे में आ गया हो। ऐसा आगे भी हो सकता है। लेकिन इस सबसे मुद्दों को तय करने का उसका अधिकार छीना नहीं जा सकता। मुद्दों को समझने का एक मतदाता का अधिकार भी उससे, केवल पढ़ी-लिखी बिरादरी के, इस सोच के आधार पर नहीं छुड़ाया जा सकता कि वह अन-पढ़ या कि गँवार है, और इसलिए, इतना ना-समझ है कि सहजता से बरगलाया जा सकता है। फिर, यह ‘बरगलाना’ भी बड़ा सापेक्ष है। अनुभव ने सिद्ध किया है कि जो अपने को इससे जितना सुरक्षित महसूस करता है, दरअसल वह उतनी ही आसानी से इसका शिकार हो सकता है। होता भी आया है।

इसलिए उपायों पर बहस जरूरी है। चाहे वह जितनी भी लम्बी क्यों न खिंचे। समझदारी, बेईमानी, संयम-असंयम आदि सभी मानवीय पहचानें हैं। इनमें से वह किसी को बुरा और किसी को अच्छा मानता आया है। पश्चाताप और क्षमा-दान भी ऐसी ही मानवीय संवेदनाएँ हैं जिनकी नींव पर आज के मानव-समाज का ढाँचा खड़ा है। और इसलिए, सामाजिक नियंत्रण ही बेहतर विकल्प है। न्याय एक आस्था है। और इस अर्थ में, एक तरह से अन्तिम विकल्प भी। इसलिए इसकी शुचिता सर्वोच्च है।

तमाम कटु अनुभवों के बावजूद मैं सदा से मानता आया हूँ कि जब तक ‘न्याय’ स्वयं से न्याय करता रहेगा, मानव के मानवीय पहलुओं की सम्भावनाएँ जीवित रहेंगी। निहित स्वार्थों से लगातार मिलने वाले तमाम थपेड़ों के बाद भी। लेकिन आदमी को ‘परखने’ का जिम्मा आदमी को ही सुपुर्द करके रखना चाहिए। यही आदमीयत भी है। इसमें यदि उसे कुछ सामाजिक कठिनाइयाँ आती हैं और उनके निदान के लिए वह न्याय के दरवाजे खटखटाता है तब जरूर न्याय को पूरे मनोयोग से, लेकिन उतनी ही निर्लिप्तता से भी, अपना हस्तक्षेप निर्धारित करना चाहिए। हाँ, यहाँ यह एक सावधानी रखना भी बहुत आवश्यक है कि ऐसी स्थिति में इस तथ्य पर भी सम्पूर्ण निरपेक्षता, किन्तु पूरी चौकसी, से निगाह रखी जाये कि न्याय की इस गुहार में जाहिर की गयी ईमान-दारी के अलावा कोई अन्य निहितार्थ पूरी तरह से अनुपस्थित हो। न्याय का विधान भी इसी आधार पर निर्धारित हुआ है। क्योंकि संयम की आखिरकार सभी को जरूरत है। कहना तो यह चाहिए कि जो जितना अधिक संरक्षित है, संयम बरतने की उसकी जिम्मेदारी भी उतनी ही अधिक है।

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