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डॉक्टर गलत परन्तु ज्योतिषी ठीक!


डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.

खबर सही हो या गलत, समाचार-पत्र में प्रकाशित टिप्पणी समाज को भटकाव के जोखिम की चौखट पर खड़ा कर रही है। क्योंकि करने वाला नहीं, करने वाले की नीयत ही तय करती है कि कोई कर्म उचित है अथवा अनुचित। प्रकाशित हुई खबर का खण्डन कितनी निगाहों से गुजरेगा? समाज का सारा का सारा असमंजस इसी एक बिन्दु पर केन्द्रित है। 

डॉक्टर गलत परन्तु ज्योतिषी ठीक!
सुबह-सुबह पढ़ी एक खबर ने बड़े असमंजस में डाल दिया है। खबर ‘भारत में सबसे बड़े’ होने का दावा रखने वाले समाचार पत्र समूह द्वारा प्रकाशित हिन्दी दैनिक के भोपाल संस्करण में छपी है। प्रकाशित हुई खबर के अनुसार देश की सबसे बड़ी अदालत की न्याय-मूर्ति दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली पीठ ने टिप्पणी की है कि गर्भ में बेटा है या बेटी यह ज्योतिषी से पूछें, डॉक्टरों से नहीं।

पीठ ने यथार्थ में किन शब्दों का प्रयोग किया यह तत्काल ही पता करना टेढ़ी खीर होगा। सम्भव है शब्द कुछ दूसरे रहे हों। लेकिन यदि भावार्थ वही रहा हो जो खबर में छपा है तो यह टिप्पणी सभ्य समाज को एक बड़े गम्भीर वैचारिक संकट की ओर ढकेल देने वाली भी प्रमाणित हो सकती है। सारा असमंजस इसी संकट को ले कर है। असमंजस विशेष रूप से इसलिए है कि न्याय-पालिका की गरिमा को शिरोधार्य करने की परम्परा कुछ भी व्यक्त करने से बलात्‌ रोक रही है तो माननीय न्यायालय की इस टिप्पणी से आ रही ध्वनि से आहत होता सामाजिक सोच टिप्पणी की न्यायिक अधिकारिता के गहरे प्रभावों को ले कर बे-चैन हो रहा है। नीयत, नि:सन्देह, न्यायिक गरिमा को किंचित्‌ सी भी चोट पहुँचाने की नहीं है। और इसलिए, कुछ भी कहने से पहले दैनिक भास्कर के आज के अंक में पृष्ठ १६ पर छपी वह खबर जस की तस उद्धरित कर रहा हूँ —


बिल्कुल सीधी सी चिन्ता है। गर्भ में विकसित हो रही सन्तान के जन्म-पूर्व लिंग-ज्ञान पर वैधानिक रोक लगायी गयी है। इस रोक के मूल में सभ्य समाज की यह चिन्ता रही है कि भ्रूण के लिंग-ज्ञान की आकांक्षा सीधे-सीधे कन्या भ्रूण-हत्या की मानसिकता से प्रेरित होती है। और इसीलिए, इस विधान के प्रत्यक्ष-परोक्ष उल्लंघन पर कठोर नियन्त्रण रखते न्यायिक हस्तक्षेप की माँगें उठती रहती हैं। सर्वोच्च न्यायालय की उपरोक्त टिप्पणी भी ऐसे ही एक विधान के क्रियान्वयन पर सवाल उठाती याचिका की सुनवाई के दौरान आयी है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिम्मेदार जाँच-कर्ता चिकित्सकों को भ्रूण का लिंग-परीक्षण करने की अनुमति नहीं है। और इसीलिए, समाज को भी ऐसे विशेषज्ञों से भ्रूण के लिंग से जुड़े सवाल करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है। इस सन्दर्भ-विशेष में सर्वोच्च न्यायालय की सन्दर्भित टिप्पणी शिरोधार्य करनी ही होगी।

किन्तु, इससे आगे?

यदि समाचार-पत्र में प्रकाशित टिप्पणी में ज्योतिष-विद्या से जुड़ा अंश तथ्यों की जोड़-तोड़ वाली कोई खबर-नबीसी देन नहीं है तो परिस्थिति सचमुच गम्भीर हो जाती है। बात अधिक पुरानी नहीं हुई है जब न्यायालय की चौखट से ही यह खबर आयी थी कि माननीय न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय के किसी फैसले पर विचार करते हुए जो अत्यन्त गम्भीर टिप्पणी की उसका सार था कि न्याय-दाता फैसले दें, उपदेश नहीं। समझा जा सकता है कि समझाइश देते-देते जब कोई अपने दायित्व-बोध अथवा अधिकारिता से भटक जाता है तब ध्येय से उसके इस भटकाव को ही ‘उपदेश’ कहा जाता है।

यहाँ उद्धृत खबर सही हो या गलत, समाचार-पत्र में प्रकाशित टिप्पणी समाज को भटकाव के इसी जोखिम की चौखट पर खड़ा कर रही है। यदि लिंग-ज्ञान के उद्देश्य से किया जाने वाला भ्रूण परीक्षण अपराध के दायरे में आता है और यदि इस नीयत से किये जाने वाले निवेदन भी उतने ही गम्भीर अपराध माने जाते हैं तब किसी ज्योतिषी से भी ऐसे सवाल किये जाने को, अथवा ज्योतिषी द्वारा ऐसी जानकारी दिये जाने को भी, ‘न्यायिक मान्यता’ कैसे दी जा सकती है? समाज का सारा का सारा असमंजस इसी एक बिन्दु पर केन्द्रित है। क्योंकि करने वाला नहीं, करने वाले की नीयत ही तय करती है कि किया गया कोई कर्म उचित है अथवा अनुचित।
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