डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.
पीड़ित किसानों को तो यह भी पता नहीं है कि राहत के लिए आवश्यक बना दिया गया उनका दावा आगे बढ़ेगा भी या राजस्व कर्मचारियों, या फिर, सेवा सहकारी समितियों के पदाधिकारियों की मंशा की बलि चढ़ जायेगा। उन्हें प्रतीक्षा है कि कोई न कोई पहल करे और राहत-प्रदाय के उनके निवेदनों को शासन तक पहुँचाये।
मंचों से दिये जाते भाषणों और टीवी-अखबारों में आते भारी-भरकम विज्ञापनों में किसानों को ‘अन्न-दाता’ के सम्बोधन से लुभाया जाता है। अपनी ऐसी तारीफों से किसान भी फूल कर कुप्पा होते रहते हैं। औसत किसान की इस मन:स्थिति का लाभ बटोरने के लिए राज्य व केन्द्रीय सरकारें यदा-कदा नयी कागजी घोषणाएँ भी करती रहती हैं। इस सब के चक्कर में फँस कर किसान, खेतों में अधिक से अधिक उत्पादन करने को अपना राष्ट्रीय दायित्व समझ बैठते हैं। और फिर, कर्ज के जालों में फँसते जाते हैं। बिकते-मिटते जाते हैं। सीमित से सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा व्यावसायिक औकात के साथ की जा रही खेती-बाड़ी को छोड़ दें तो अधिकाँश भारतीय खेती की यही राम कहानी है।
वर्ष २०१४-१५ का बीता खरीफ़ मौसम इन औसत किसानों के लिए भारी नुकसान-दायक रहा है। फसल से आजीविका चलाने हेतु लाभ कमा लेने या फिर कम से कम अपने श्रम का न्यूनतम् मूल्य जुगाड़ पाने की बात तो बहुत दूर की है, इस खरीफ़ मौसम में किसान अपने खेतों से अपना-लागत मूल्य तक वापस नहीं पा सके हैं। उधार उठायी राशि के ब्याज तक के चुकारे की सम्भावना नहीं दिख रही है। ऐसे में, अगला रबी मौसम सिर पर है और उनके पास न तो बोनी के लिए अपने खेतों तक ले जाने लायक बीज व जरूरी संसाधन हैं और न फसलों का उत्पादन कर पाने लायक थोड़ा सा भी मनोबल ही बचा है।
इस दुर्भाग्य-जनक स्थिति में, पूरे देश को यह समझना होगा कि जब कितनी भी कीमत चुक कर फसलों का अम्बार खड़ा कर किसान अपना ‘राष्ट्रीय दायित्व’ निभाते हैं तब क्या राष्ट्र का भी यह दायित्व नहीं हो गया है कि वह खेतों पर छाये भीषण संकट के इस दौर में किसानों को सूद सहित नहीं तो कम से कम मूल तो वापस करे? यहाँ, यह समझ लेना भी जरूरी है कि किसान का यह ‘मूल’ भिखारी के कटोरे में कभी-कदार फेक दी जाने वाली चिल्लर नहीं है कि सौ-पचास रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से गिने-चुने किसानों की झोली में डाल कर वाह-वाही बटोर ली जाये। किसान का मूल तो बीज, बिजली, उर्वरक और कीट-नाशक जैसे कृषि-गत् निवेश की कुल वास्तविक पूँजी के अलावा खेतों में खट-खट कर किये गये हमारे मानवीय श्रम के न्यूनतम् भुगतान का ईमान-दारी से किया गया जोड़-घटाना भी है।
आपदा के दिनों में हमेशा ही खबरें आती रहती हैं कि सरकारें किसान को राहत पहुँचाती हैं। लेकिन औसतन प्रत्येक आपदा-पीड़ित किसान की खाली झोली में ऐसी वास्तविक राहत की केवल प्रतीक्षा भर आती है। भोपाल और आस-पास के जिलों के किसानों से हुई चर्चा का अनुभव बतलाता है कि इस खरीफ़ मौसम में भी यही कुछ दोहराया जा रहा है। पीड़ितों का दावा है कि उनमें से जिसके लिए भी सम्भव हुआ है उसने सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा लिये हैं। लेकिन सभी को दो-टूक कहा गया है कि राहत देने की एक सरकारी प्रक्रिया है। और, वह प्रक्रिया पूरी हो तभी किसी को राहत दी जायेगी। यह राहत भी दो तरह की होती है। पहली ऐसी जो प्राकृतिक आपदा के कारण दी जाती है। कागजों पर, अपने खेत में बोनी करने वाला प्रत्येक किसान इसका हक-दार हो सकता है। और, दूसरी वह जो कृषि-बीमा के आधार पर दी जाती है।
पहले प्रकार की राहत जिला कलेक्टर के आदेश से बाँटी जाती है। यह राशि पटवारी-हल्के के आधार पर निर्धारित होती है जिसके सर्वेक्षण के लिए सक्षम अधिकारी स्थानीय तहसील-दार होता है। कुल प्रक्रिया यह होती है कि तहसील-दार आपदा-नुकसानी का अपना आँकलन एसडीएम को सूचित करता है जो उसे जिला कलेक्टर तक पहुँचाता है। जबकि कृषि-बीमा पर आधारित राहत की अपनी ही शर्तें हैं। और, मध्य प्रदेश में लीड-बैंक की भूमिका के लिए नामित सैण्ट्रल बैंक ने अपनी ओर से पूरी रामायण राहत-राशि के तत्काल प्रदाय की अपनी प्रार्थना को ले कर उसके पास पहुँचे किसानों को ‘समझा’ दी है। उसके अनुसार बीमा-राहत की राशि जिले के केन्द्रीय सहकारी बैंक के अन्तर्गत् गठित सेवा सहकारी समितियों द्वारा की गयी अनुशंशा के आधार पर ही निर्धारित होती है। साथ ही साथ, उसने एक तकनीकी पेंच भी दिखला दिया है।
पेंच यह है कि बीमा-राहत की देयता ‘यूनिट-आधारित’ ही होगी। सरल शब्दों में, किसान-विशेष नहीं बल्कि एक समूची यूनिट को हुए कुल नुकसान के आँकलन से ही तय किया जायेगा कि किसी क्षेत्र-विशेष के किसान को राहत की पात्रता होगी भी या नहीं। लीड-बैंक ने यह भी समझा दिया है कि इस ‘यूनिट’ आधारित ‘कुल’ नुकसानी का सर्वेक्षण, और यूनिट-विशेष के लिए निर्धारित होने वाली कुल राहत-राशि का निर्धारण भी, अन्तिम रूप से प्रदेश का कृषि-उत्पादन आयुक्त ही करेगा। दूसरी ओर, कृषि-उत्पादन आयुक्त के कार्यालय ने स्वयं अपने से नीचे की एक पूरी की पूरी श्रृंखला इन किसानों को दिखला दी है। और यह भी समझा दिया है कि इस श्रृंखला की एक भी कड़ी पूरी नहीं हुई तो राहत की सिफारिश ऊपरी सीढ़ी नहीं चढ़ पायेगी।
इस तरह कागजों पर, बीमा-राहत का सारा दारोमदार जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक के अन्तर्गत् गठित सेवा सहकारी समितियों पर ठहरा दिया गया है। कह दिया गया है कि उसी के द्वारा की गयी किसी सिफारिश से राहत-राशि निर्धारित होगी। किसानों के बीच जा कर बात की जाये तो कठिनाई से ही कोई ऐसा किसान मिलेगा जिसे किसान बीमा राहत की ठीक-ठीक पूरी जानकारी की बात तो दूर, मामूली सी भी जानकारी हो। कारण भी बिल्कुल स्पष्ट है। सरकारी तन्त्र या बीमा कम्पनी की ओर से किसानों को ऐसी समझाइश दी ही नहीं गयी है। दोनों के ही अपने-अपने निहित स्वार्थ हैं। शायद इसलिए कि इस सरल से हथ-कण्डे से बीमा-तन्त्र को बीमा-राशि के भुगतान से यथा-सम्भव राहत मिल सके। और शायद सरकारी तन्त्र के हिस्से-पुर्जों को भी। स्पष्ट है, बीमा-राहत की ये सिफारिशें किसानों के खेतों की हुई वास्तविक दुर्दशा के आधार पर नहीं होंगी। इसके उलट, ये सिफारिशें ‘अन्धा बाँटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय’ वाली शैली को भी मात देने वाली होंगी।
वैसे यह भी एक नग्न सचाई है कि बीत चुके वर्ष १३-१४ के लिए बीमा-शुल्क का अपना अंश-दान मध्य प्रदेश सरकार ने हाल ही में जमा किया है जबकि वर्ष १४-१५ की स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है। जाहिर है, सरकार समझना ही नहीं चाहती है कि प्राकृतिक-आपदा के कारण दाने-दाने को मोहताज होते किसान को राहत पहुँचाने की भावना मूलत: तात्कालिकता से ही प्रेरित होती है। जबकि, मध्य प्रदेश में आपदा-राहत के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वह राजनैतिक मजमे-बाजी से हट कर और कुछ भी नहीं है। यहाँ राहत-राशि का वितरण लगभग डेढ़ साल केवल इसलिए लटकता है क्योंकि प्रदेश सरकार इसके लिए अपने अंश का योग-दान ही इतने विलम्ब से भरती है।
बातें यहीं तक सीमित नहीं हैं। सबसे पहली बात तो यह कि सम्बन्धित पटवारी हल्के को एक यूनिट मान कर, और फिर वहाँ कुल खेतों के मुकाबले खास खेतों को हुए नुकसान का अनुपात निर्धारित कर, यह तय किया जायेगा कि हल्के-विशेष के किसान आपदा-राहत के हक-दार हैं या नही। फिर, जहाँ-जहाँ राहतें देना तय होगा वहाँ-वहाँ, जैसा मामला हो, राजस्व-तन्त्र अथवा जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक के अन्तर्गत् गठित सेवा सहकारी समितियों के जिम्मेदार खेत-दर खेत तय करेंगे कि किस खास किसान को कितनी राहत दी जायेगी। सूत्र बतलाते हैं कि जहाँ कहीं किसी जिम्मेदार का अपना कुछ लेना-देना नहीं है, उस ‘यूनिट’ को राहत पाने का कोई अधिकार नहीं मिलेगा। और, जहाँ यह अधिकार मिलेगा वहाँ भी इन सेवा सहकारी समितियों के जिम्मेदार पदाधिकारी और राजनीति में पहुँच रखने वाले किसान तो हजारों-लाखों की रकम बटोरेंगे लेकिन शेष औसत किसान को सौ-पचास का कागजी पेट भरने वाला टीका ही भेंट किया जायेगा।
जाहिर है, किसानों की समस्याएँ बड़ी विकट हैं। इनका आरम्भ इस रूप में हुआ कि खरीफ़ की बोनी के लिए जो सोयाबीन बीज उन्होंने बीज-प्रदाय करने वाली विभिन्न शासकीय और अशासकीय संस्थाओं से लिया उसका अधिकांश तो अंकुरित ही नहीं हुआ। इस पहली बोनी के फेल होने के बाद, पानी के लगातार बरसते रहने से, किसानों को दो-बारा बोनी का अवसर ही नहीं मिला। इस सब के लिए मौसम के अलावा शासन की ओर से अधिकृत एजेन्सियों, विशेषज्ञों तथा जिम्मेदार व्यक्तियों द्वारा दी गयी त्रुटि-पूर्ण सलाहें भी बराबरी से जिम्मेदार रही हैं।
जहाँ तक अमानक बीजों के प्रदाय का अपराध है, पूरी की पूरी सम्बन्धित शासकीय मशीनरी ही इसकी अपराधी है क्योंकि किसान कल्याण तथा कृषि विकास विभाग ने अपने आदेश क्र० १०१/प्र.स./२०१४/भोपाल दिनांक २६ जून २०१४ तथा क्र० १३८/कि.क. तथा कृषि वि./२०१४/भोपाल दिनांक २३ जुलाई २०१४ द्वारा विभिन्न संस्थाओं में बड़ी मात्रा में अमानक सोयाबीन बीज का उपयोग रोक कर उसे जब्त करने के आदेश दे दिये गये थे लेकिन कोई गम्भीर कार्यवाही नहीं हुई और खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ा। सरकारी तन्त्र की इस अकर्मण्यता का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि अधिकांश मान्यता-प्राप्त विक्रेताओं ने जितना कुछ यथार्थ में बेचा उसका एक चौथाई से भी कम कागजों पर दर्शाया था। इसके पीछे, असली की आड़ में नकली को खपाने के साथ ही कर-चोरी की नीयत की भी खासी भूमिका रही। अब हालात यह हैं कि अपनी इतनी बड़ी गलती पर परदा डालने के लिए जिला प्रशासन और प्रदेश का कृषि विभाग या तो पीड़ित किसानों को हुए भारी नुकसान का सर्वेक्षण जानबूझ कर नहीं कर रहे हैं या फिर, केवल दिखावे के लिए ही, किसी सर्वेक्षण की औपचारिकता का पेट भर रहे हैं तो नुकसानी का वास्तविक आँकलन ही नहीं कर रहे हैं।
इन सारी सचाइयों से पीड़ित किसान घबरा गये हैं। अपने-अपने क्षेत्र के लिए जिम्मेदार राजस्व कर्मचारियों और सेवा सहकारी समितियों से बार-बार विनती कर वे अब थक गये हैं। कहीं भी उनकी सुनवाई नहीं हो रही है। उन्हें तो यह भी पता नहीं है कि राहत के लिए आवश्यक बना दिया गया उनका दावा आगे बढ़ेगा भी या राजस्व कर्मचारियों, या फिर, सेवा सहकारी समितियों के पदाधिकारियों की मंशा की बलि चढ़ जायेगा।
किसानों को प्रतीक्षा है कि हमारे वृहत्तर समाज में से कोई न कोई तो पहल अवश्य करेगा। और, राहत-प्रदाय के उनके निवेदनों को शासन तक पहुँचायेगा। ताकि वे और उनके परिवार-जन जीवित बचे रहें। देश के, और समाज के भी, काम आते रहें।
दायित्व को निभाने की बारी अब राष्ट्र की
सितंबर 25, 2014
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