डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.
धीरे-धीरे ही सही, सामूहिक समझ का दायरा व्यापक करते हुए किसी ठोस हल की ओर पूरी सामूहिकता के साथ कदम आगे बढ़ें क्योंकि खेतों के भविष्य पर छाया संकट केवल किसानों की नहीं अपितु समूचे राष्ट्र की आपदा है। एक बार यह समझ साफ हो जाये तो दिखलायी देने लगेगा कि खेतों के प्रति सरकारों का यथार्थ दायित्व क्या हो?
अर्थ-शास्त्र का सामान्य सा सिद्धान्त है कि उत्पाद् हमेशा ही माँग से प्रभावित रहते आये हैं। माँग बढ़ती है तो उत्पाद्-वृद्धि का लोभ दबाव डालता है ताकि अधिक से अधिक कमाया जा सके। जबकि इसके उलट, माँग की कमी से उत्पादन कम करने की योजनाएँ बनायी जाती हैं ताकि बिक्री घटने से होने वाली आय को कम उत्पादन-लागत से किसी सीमा तक संतुलित किया जा सके।
गणितीय अर्थ-शास्त्र पर चलने वाले कह सकते हैं कि कोई भी उत्पादन बाजार के इस गणित से ऊपर नहीं हैं। सैद्धान्तिक रूप से, खेति-हर उत्पाद् भी नहीं। किन्तु गम्भीर विरोधाभास यह है कि बाजार का यह अर्थ-शास्त्रीय गणित, व्यवहार में, औसत भारतीय किसान की पकड़ से कोसों दूर होता है। साधारण सी समझ यह है कि खेतों से बाहर होने वाले प्रत्येक उत्पादन में तो कच्चे माल, आवश्यक संसाधन और वास्तविक उत्पादक श्रम के सम्मिश्रण से मन-चाहे लक्ष्य को साधा जा सकता है। लेकिन, खेति-हर उत्पादन के मामले में ऐसा कोई भी गणित सुनिश्चित आय की गारण्टी नहीं देता। बढ़ी हुई माँग के बावजूद। यह इसलिए कि नियंत्रण से बाहर रहती अनेक अनिश्चितताओं के आधीन होने से खेति-हर उत्पाद् ऐसे किसी अर्थ-शास्त्रीय अनुशासन से सर्वथा मुक्त रहता है। इन अनिश्चितताओं के कारण ‘कम बो कर कुछ कम, फिर भी एक सुनिश्चित, उत्पाद्’ की गारण्टी नहीं ली जा सकती है। जिसका सरल सा अर्थ यह है कि कम माँग पर कम उत्पादन का एक सर्व-मान्य सा औद्योगिक सिद्धान्त खेति-हर व्यवस्था पर कतई लागू नहीं किया जा सकता है।
इन विरोधाभासों के बीच यह बातें रह-रह कर उठती रहती हैं कि खेती-किसानी एक वास्तविक संकट से गुजर रही है। आम धारणा बनती जा रही है कि सुधार की कोई भी सम्भावना अब किसान की पहुँच के बाहर हो चुकी है। औसत जोत वाले छोटे-मझोले किसानों की कौन कहे, अब तो बड़ी जोत वाले सम्पन्न किसानों की पेशानियों पर भी चिन्ता की लकीरें उठती दिख जाती हैं। यदा-कदा, कुछ घोषणाएँ अवश्य सुनने में आ जाती हैं और कुछ आन्दोलन भी सामने आते हैं। फिर भी किसान और उसकी किसानी वैसी की वैसी दयनीय बनी हुई है। उसको कोई यथार्थ लाभ नहीं मिला है। निश्चय ही, यह चिन्ता की बात है। लेकिन उससे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि इसकी जमीनी पड़ताल अभी तक पर्याप्त सीमित दायरे में ही हुई है कि समस्या की वास्तविक धुरी क्या है? इस कमी का परिणाम यह होता आया है कि एक सूखते कल्प-वृक्ष की जड़ों को पानी देने से बचते हुए उसके पत्तों को ही सींच देना पर्याप्त माना जाता रहा है।
किसानों के बीच जा कर बात करने पर दो बातें बिल्कुल साफ़ हो जाती हैं — पहली तो यह कि अन-पढ़ से अन-पढ़ किसान भी अपने बुरे दिनों के औसत कारणों को बहुत अच्छी तरह से समझा सकता है; और दूसरी यह कि पढ़े से पढ़े किसान में यह कहने का उत्साह बचा नहीं है कि उसकी बढ़ती ही जा रही समस्याओं का कोई हल मिल पायेगा। यह घोर निराशा तन्त्र के प्रति भी है और तन्त्र को झक-झोर देने का दावा करने वालों पर भी। निराशा इतनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी है कि, उन्हें टटोले जाने पर, वैचारिक क्षमता रखने वाले भी हथियार डालते मिल जाते हैं। एक औसत सी आह हर दूर गूँजती मिलती है, “समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि सुधार की कोई भी सम्भावना अब आम आदमी की पहुँच के बाहर है।”
ऐसे में, सामाजिक सोच और जागरूकता रखने वाले प्रत्येक सक्षम व्यक्ति-संगठन के लिए अपने-अपने स्तर पर यह संकल्प लेना आवश्यक हो गया है कि वह आशा की धूमिल सी ही सही, एक न एक किरण की तलाश करे। आवश्यक नहीं कि यह संकल्प किसी आन्दोलन को खड़ा करने का हो या फिर इस बात का कि वह किसी सम्भावित हल की ऐसी तलाश का नेतृत्व स्वयं अपने हाथ में ले। संकल्प यह हो कि, सीमित से ही सही, अपने साधनों को वह कुछ इस अर्थ में लगाये कि खुली बात-चीत से ऐसी कोई सार्थक जमीन तैयार हो सके जो विचार-वानों और कर्मठ कार्य-कर्ताओं को, एक साथ बैठा पाये। इस बात-चीत में अलग-अलग विधाओं से शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी खेती-किसानी और ग्रामीण समाज की चुनौतियों से निपटने को अपना महत्व-पूर्ण दायित्व मानने वाले व्यक्ति भी बराबरी से शामिल हों जो खेती-किसानी नहीं करते हैं।
शुरूआत के रूप में, वे बातें बिन्दु-वार सामने आयें जिन्हें बात-चीत में शामिल होने वाले, अपने-अपने स्तर पर, किसान और किसानी की समस्याओं की जड़ मानते हैं। यह समझ भी सामने आये कि इन समस्याओं के वे विभिन्न सम्भावित हल क्या-क्या हो सकते हैं जो आम से आम नागरिक के लिए भी सुलभ हों? इसमें शामिल होने वाले यह भ्रम बिल्कुल भी नहीं पालें कि वे आनन-फानन में किसान की सारी दुश्वारियाँ दूर कर देंगे। लेकिन वे इतने निराश रहने वाले भी नहीं हों कि अब तो भगवान भी किसान की कोई मदद नहीं कर सकता है। सारी बात-चीत नये से किसी आन्दोलन की तैयारी या फिर किसी बड़े मंच के गठन की नीयत से तो भले ही प्रेरित नहीं हो किन्तु इस आशा से अवश्य ही प्रेरित रहे कि ठीक दिशा में किये गये प्रयासों और उतनी ही ठीक नीयत से की गयी कोशिशों से सुनहरे भविष्य के द्वार पर कम से कम एक बार तो दस्तक दी ही जा सकती है। आगे की सारी सफलता-असफलता इस दौरान हुए अनुभवों से मिले सबकों के सदुपयोग पर निर्भर होगी।
बात-चीत की यह कवायद किसी व्यक्ति, संगठन अथवा तन्त्र की ऐसी आलोचना से मुक्त रहे जो बात-चीत को सार्थक बनाने से वंचित करे। किन्तु, इस दो टूक सुझाव का यह अर्थ भी नहीं निकाला जाये कि इस बात-चीत के लिए व्यक्तियों-संगठनों को आमन्त्रित करते समय ऐसी थोड़ी सी भी सावधानी रखी जाये कि, छाँट कर, केवल वैचारिक एक-रूपता रखने वाले ही आमन्त्रित हों। परिवेश और परिस्थितियों के अन्तर से समस्याओं के कारणों और उनसे मुक्ति के उपायों से जुड़े सोच में अन्तर का आना स्वाभाविक है। इसलिए, ईमान-दार प्रयास यह रहे कि विचार-विमर्श तो खुल कर हो किन्तु वाद-विवाद बिल्कुल भी न पनपे। सभी जानते हैं कि ऐसी किसी भी बात-चीत में मत-भिन्नता एक सहज-स्वाभाविक सम्भावना होगी। और, बात-चीत की सार्थकता के लिए सभी को इस मत-भिन्नता का स्वागत भी करना होगा। फिर भी, बात-चीत की सार्थकता के लिए ही, यह सोच निश्चित रूप से रहे कि बात-चीत में हिस्से-दारी करते समय उसमें शामिल हुआ प्रत्येक व्यक्ति अथवा संगठन केवल अपने दृष्टि-कोण को सामने रखे। पूरी बे-बाकी से और यथा-सम्भव संक्षेप में भी। ताकि मुद्दे सामने लाये जा सकें।
यह बात-चीत एक ऐसे ईमान-दार प्रयास का आरम्भ प्रमाणित हो जिसमें खेति-हर किसान तथा गैर खेति-हर, लेकिन खेती-किसानी की वर्तमान दुर्दशा को ले कर चिन्तन करने वाले अलग-अलग विधाओं से जुड़े, व्यक्ति मिल कर कुछ ठोस हल ढूँढ़ सकें। यह तभी सम्भव हो सकेगा जब खेती, किसानी और ग्रामीण क्षेत्र को एक यूनिट माना जाये। और इसके लिए, केवल ‘अपने निजी’ या फिर ‘तात्कालिक किन्तु क्षणिक’ लाभों-लोभों को प्राथमिकता देने की किसानों के बीच लगातार बढ़ रही मानसिकता को तिलांजलि देनी होगी।
आरम्भिक अवस्था में ऐसी कोई भी बात-चीत किसी ‘निर्णय’ पर पहुँचने की नीयत से भी आयोजित नहीं हो। दर असल, केवल बातचीत आरम्भ हो। समस्या को उसकी गहराई में उतर कर टटोलने और फिर उतनी ही गहराई में डूब कर उसका सम्भावित हल समझने का आरम्भ। शुरूआत के रूप में, वे बातें बिन्दु-वार सामने आयें जिन्हें बात-चीत में शामिल होने वाले, अपने-अपने स्तर पर, किसान और किसानी की समस्याओं की जड़ मानते हैं। यह समझ भी सामने आये कि इन समस्याओं के वे विभिन्न सम्भावित हल क्या-क्या हो सकते हैं जो आम से आम नागरिक के लिए भी सुलभ हों? आरम्भ में जितना समझ में आये उसके सार के साथ जल्दी ही दो-बारा मिल-बैठा जाये।
यानी, धीरे-धीरे ही सही, सामूहिक समझ का दायरा व्यापक करते हुए किसी ठोस हल की ओर पूरी सामूहिकता के साथ कदम आगे बढ़ें। क्योंकि खेतों के भविष्य पर छाया संकट केवल किसानों की नहीं अपितु समूचे राष्ट्र की आपदा है। एक बार यह समझ साफ हो जाये तो दिखलायी देने लगेगा कि खेतों के प्रति सरकारों का यथार्थ दायित्व क्या हो?
उदाहरण के लिए मौसम की अनिश्चितता के आधीन होने से, सैद्धान्तिक रूप से तो, हमारा किसान आपदा-राहत की तात्कालिकता का अधिकारी हो जाता है किन्तु, व्यवहार में, इसमें एक ओर जहाँ अनर्थ-कारी देर होती है वहीं राहत के नाम पर, औसतन, केवल औपचारिकताएँ भर निभा दी जाती हैं। स्पष्ट है कि प्राकृतिक आपदा की स्थिति में राहत शीघ्रातिशीघ्र तो पहुँचायी ही जानी चाहिए, राहत के प्रावधानों को संशोधित कर उनका दायरा बढ़ाया जाना चाहिए। इसके लिए चार-स्तरीय निम्न नीति बनायी जाये —
पहले स्तर पर अ-वर्षा, अल्प-वर्षा, अति-वर्षा, एकांगी वर्षा और/अथवा बाढ़, ओला-वृष्टि तथा पाले के कारण होने वाले नुकसानों के आँकलन के लिए कोई सपाट सा सार्वजनिक पैमाना निर्धारित नहीं हो। इसके स्थान पर किसान-विशेष के खेत-विशेष और/अथवा उसकी उपज-विशेष के निकट अतीत के 3 से 5 वर्षों के औसत को आधार बनाया जाये। साथ ही, मुआवजा हेतु आवश्यक राशि के प्रबन्धन के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें बराबरी की हिस्से-दारी के आधार पर समुचित बीमा-योजनाएँ न केवल बनायें बल्कि पूरी कठोरता से उन्हें लागू भी करें। केन्द्र और राज्य सरकारें यह ध्यान भी रखें कि ऐसी योजनाओं में किसान के अपने निजी योग-दान जैसी कोई शर्त नहीं हो और खेत में बोनी करने वाले प्रत्येक किसान को यथोचित क्षति-पूर्ति की जाये। यह ध्यान भी हर हालत में रखा जाये कि इस बीमा-योजना से मिलने वाले मुआवजे की घोषणा से किसान के अ-सन्तुष्ट रहने पर उठने वाले किसी विवाद का निराकरण प्राथमिकता के आधार पर शीघ्रता से तो हो ही उस किसान के लिए घोषित हुए, परन्तु किसान द्वारा अपर्याप्त माने गये, मुआवजे की राशि को विवाद के अन्तिम रूप से निराकृत होने के नाम पर लटकाये नहीं रखा जाये बल्कि मुआवजे के रूप में उसके लिए घोषित हुई राशि का भुगतान मुआवजा-राशि के ऐसे निर्धारण की घोषणा के बीस दिनों के भीतर हर हालत में कर दिया जाये;
दूसरे स्तर पर खराब (स्तर-हीन और/अथवा अमानक) बीजों, उर्वरकों, कीट-नाशकों आदि से होने वाले अपर्याप्त खेति-हर उत्पादन को भी आपदा-राहत के दायरे में शामिल किया जाये। नीति-गत् रूप से इसे सरकारों के अपने विनिश्चय के लिए छोड़ दिया जाये कि वे उपर्युक्त स्तर-हीन और/अथवा अमानक उत्पादों के कारण दिये जाने वाले वास्तविक आपदा-मुआवजा भुगतान से राज-कोष को हुई कुल क्षति का कितना अंश सम्बन्धित उत्पाद को ‘मानकता’ का प्रमाण-पत्र देने के दोषी व्यक्तियों/संस्थानों और/अथवा ऐसे अमानक उत्पादों का उत्पादन करने वाले और/अथवा उनकी बिक्री करने वाले प्रतिष्ठानों से वसूलना पसन्द करेंगी;
तीसरे स्तर पर शासकीय, अर्ध-शासकीय और/अथवा शासन द्वारा मन्यता प्राप्त विभागों, निकायों और/अथवा संस्थानों की ओर से नियुक्त अधिकारियों और/अथवा कर्मचारियों द्वारा, मौसम और/अथवा परिस्थितियों के अनुमानों/विश्लेषणों के बाद, दी गयी विशेषज्ञ सलाहों और/अथवा निर्देशों के पालन के कारण किसानों को होने वाले नुकसानों को भी आपदा-राहत के दायरे में शामिल किया जाये। नीति-गत् रूप से इसे सरकारों के अपने विनिश्चय के लिए छोड़ दिया जाये कि वे उपर्युक्त त्रुटि-पूर्ण सलाहों और/अथवा निर्देशों के कारण दिये जाने वाले वास्तविक आपदा-मुआवजा भुगतान से राज-कोष को हुई कुल क्षति का कितना अंश अपने सम्बन्धित अधिकारी/कर्मचारी से वसूलना पसन्द करेंगी;
चौथे स्तर पर, प्राकृतिक आपदा के कारण खेति-हर उत्पादनों को क्षति होने की परिस्थिति को विशेष मानते हुए, को-ऑपरेटिव बैंकों/सोसाइटियों द्वारा किसानों को दिये जाने वाले ब्याज-मुक्त ऋण की भुगतान सीमा में छूट को भी आपदा-राहत के दायरे में शामिल किया जाये। इसके लिए रबी मौसम की फसलों के लिए को-ऑपरेटिव बैंकों/सोसाइटियों द्वारा दिये गये शून्य प्रतिशत् ब्याज वाले ऋण की भुगतान सीमा को आगामी खरीफ़ फसलों की बिक्री तक के लिए और इसी प्रकार खरीफ़ फसलों के लिए दिये गये शून्य प्रतिशत् ब्याज वाले ऋण की भुगतान सीमा को आगामी रबी फसलों की बिक्री तक के लिए बढ़ाया जाये। यही बात व्यावसायिक बैंकों पर भी इस तरह से लागू की जाये कि उनके द्वारा ब्याज के भुगतान की शर्त पर किसानों को दिये जाने वाली उधारी को अगले फसली मौसम में ली जाने वाली फसल की कटायी-बिक्री तक के लिए तो ब्याज-मुक्त किया ही जाये, मूल की वापसी के लिए अगली फसल की बिक्री तक की छूट भी प्रदान की जाये।
मौसमी आपदा केवल किसानों की नहीं, समूचे राष्ट्र की आपदा है
अगस्त 26, 2014
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