अजय भट्टाचार्य, मुंबई.
लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बुरी तरह पटखनी खाने के बाद समाजवादी पार्टी में मंथन और परिवर्तन तो होना ही था। पार्टी ने संगठन स्तर पर ओवरहालिंग की और कई दर्जेदार मंत्रियों को हटाकर और कुछेक जिलाध्यक्षों/ब्लॉक अध्यक्षों आदि को पदावनत कर पार्टी में जान डालने की कोशिश की। लेकिन प्रदेश में लगातार बढ़ते आपराधिक ग्राफ ने सरकार और पार्टी दोनों को बचाव की मुद्रा में लाकर खड़ा कर दिया है। बदायूं में दो किशोरियों की कथित बलात्कार के बाद हत्या के मामले से लेकर लखनऊ बलात्कार कांड तक जहाँ महिला सुरक्षा के सवाल पर अखिलेश सरकार कटघरे में थी और है तो दूसरी तरफ मुजफ्फरनगर से प्रारम्भ साम्प्रदायिक दंगों से लेकर मेरठ, सहारनपुर, बरेली और फैजÞाबाद तक पसरे जातीय संघर्ष ने सरकार और पार्टी की मुसीबतें बढ़ा दी हैं। थोड़ी बहुत बची खुची कसर सूबे में मुखिया नंबर दो और पार्टी के मुस्लिम चेहरे आजमखान के बेतुके बयानों/फरमानों ने पूरी कर दी। कुल मिलाकर समाजवादी पार्टी और सरकार के लिए वर्तमान समय राजनीतिक झंझावात से जूझने का है और उससे बाहर निकल देश स्तर पर अपने अस्तित्व को बचाने का है। ऐसे में पार्टी और प्रदेश सरकार को कोई संकट मोचक चाहिए। पुराने साथी के रूप में अमर सिंह फिर मुलायम सिंह की देहरी पर नजर आ रहे हैं।
अब अमर सिंह के बारे में ज्यादा बताने से अधिक यह जानना जरुरी है की उनके पास भी पुराने साथी और पार्टी में वापस आने के सिवा दूसरा विकल्प नहीं है। दरअसल भारत की राजनीति में अमर सिंह का उदय गठबंधन राजनीति की मजबूरी से उत्पन्न गर्भ से हुआ है। समाजवादी पार्टी के लिए अमर सिंह ने अपनी उपयोगिता 1996 से सिद्ध करना शुरू किया था जब केंद्र में इंद्रकुमार गुजराल की अगुवाई में सरकार बनी थी। गुजराल को एचडी देवेगौड़ा के बाद गद्दी पर बिठाया गया था। यही वह समय था जब मुलायम सिंह को सरकार में अहम मंत्रालय रक्षा विभाग दिया गया था और यह अमर सिंह की ही रणनीति थी कि उत्तर प्रदेश में जगदम्बिका पाल को आगे कर तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी के जरिये भाजपा की कल्याण सिंह सरकार को अपदस्थ कर दिया था। यह अलग बात है कि जगदम्बिका पाल मात्र 48 घंटे ही मुख्यमंत्री रह पाये थे।
1996 में रमेश किणी हत्याकांड में राज ठाकरे का नाम उछला था। महाराष्ट्र में तब शिवसेना-भाजपा युति की सरकार थी। मामले की सीबीआई जाँच की बात/ मांग उठ रही थी। तब नागरिक उड्डयन मंत्री चांद महल इब्राहिम को आगे कर उस समय के प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की मुंबई में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की अमिताभ बच्चन के बंगले पर सदिच्छा भेंट का चमत्कार अमर सिंह के माध्यम से ही संभव हुआ था। 13 दलों की सयुंक्त मोर्चा सरकार में इस मुलाकात को लेकर हड़कम्प मच गया था। खासकर तब जब इस मुलाकात से 15 दिन पहले जनता दल के एक बड़े नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह मृतक की पत्नी शैला किणी से मिलकर उसे न्याय दिलाने का वादा कर गए थे। इससे यह बात साबित हुयी की अमर सिंह को धुर विरोधी से भी संवाद साधना आता है।
यह अलग बात है कि 1996 में अटलबिहारी वाजपेई के इस्तीफे के बाद मुलायम सिंह ने प्रधान मंत्री बनने के लिए सारे प्रयत्न कर लिए थे पर लालू प्रसाद यादव के फच्चर ने उनका यह सपना पूरा नहीं होने दिया। यूपीए-1 के कार्यकाल में परमाणु अप्रसार संधि पर सपा को सरकार के साथ खड़ा कर अमर सिंह ने अपनी राजनीतिक सौदेबाज का विशेष प्रदर्शन किया परिणाम स्वरुप मुलायम सिंह के प्रति सीबीआई का रुख विनम्र हो गया। पार्टी में नंबर दो की हैसियत पाने के बावजूद 2011 में जब उनका पार्टी से निष्कासन हुआ तब उसके अपने निहितार्थ थे।
इसके बाद उनके राजनीतिक वनवास की कुछ खास उपलब्धि नहीं रही। लेकिन बदले हुए राजनीतिक परिवेश में मुलायम सिंह को भी एक अमित शाह की आवश्यकता को समझा जा सकता है। पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसके बल पर अन्य समान विचारधारा व लक्ष्य वाले दलों के साथ तालमेल बिठाया जा सके। कोई ऐसा नेता नहीं है जो पार्टी को मीडिया के हमलों से बचा सके। ऐसे में मुलायम सिंह को अमर सिंह की याद आनी ही थी।
यह सच है कि मोदी के उफान ने उत्तर प्रदेश सहित समूचे हिन्दीभाषी राज्यों में विपक्ष की नींद उड़ा दी है। पडोसी राज्य बिहार में भाजपा के खिलाफ मोर्चेबंदी हो ही चुकी है। 2017 में उत्तर प्रदेश में विधान सभा के चुनाव हैं। इसलिए पार्टी को ऐसा व्यक्ति चाहिए जो राष्ट्र स्तर पर स्थापित/ प्रचारित कर सके। यह सच भी है कि अमर सिंह के जाने के बाद सपा का कोई चेहरा राष्ट्रीय मीडिया में स्थान नहीं पा सका। हाल ही में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा लखनऊ में कहा गया कि अमर सिंह को लाओ तो भी सपा की सरकार जानी है, से साबित होता है कि अन्य दलों में अमर सिंह की संभावित घर वापसी को लेकर कितनी गंभीरता है। बात 2017 के विधान सभा चुनावों के आगे तक है कि 2019 में यदि संभव हो तो भाजपा के खिलाफ एक ताकतवर मोर्चा मुलायम सिंह की अगुवाई में खड़ा किया जा सके। मुलायम के पक्ष में अन्य दलों को लाने की कला अमर सिंह में है। इसलिए जो स्थान नरेंद्र मोदी के लिए अमित शाह का है वही स्थान अमर सिंह का मुलायम सिंह के लिए हो सकता है। लेकिन अमित शाह और अमर सिंह में एक बुनियादी अंतर है। वह यह कि अमित शाह बोलते कम हैं और अमर सिंह ज्यादा ही बड़बोले हैं। बहरहाल भरत-मिलाप की प्रतीक्षा करिए।
अमर (मुलायम) प्रेम
अगस्त 22, 2014
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