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कृषक के हित साधने वाली हों कृषि-नीतियाँ

डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.
कृषि-प्रधान माने गये भारत के कृषक-चरित्र पर संकट के बादल गहराते जा रहे हैं। भरण-पोषण के लिए मोहताजी को अग्रसर कृषक और भर-पेट खाद्य की सुलभता के प्रति चिन्तित आम नागरिक, दोनों ही, विचलित हैं। विचलित नहीं हैं तो केवल वे जो या तो सम्पन्नता-जनित आधुनिकता से अटे पड़े हैं या फिर नीति-निर्धारक होने के घमण्ड से चूर हैं।

सोलहवीं लोकसभा के एक चौथायी सदस्यों ने जो घोषण-पत्र दिया है उसके अनुसार उनकी ‘जीविका’ किसानी है। कागजों पर तो, स्वयं को कृषि-प्रधान देश बतलाने वाले भारत वर्ष के लिए, सांसदों द्वारा दी गयी यह जानकारी सहज-स्वाभाविक ही प्रतीत होती है किन्तु यथार्थ में यदि ऐसे अधिकांश सांसदों को, उनकी अपनी ही जमीन पर, जानने व्यक्तियों के बीच कोई गम्भीर सर्वेक्षण किया जाये तो वह सांसदों के इन दावों को झूठ का पुलिन्दा ठहरा देगा। इसका एक निहितार्थ और भी है। वह यह कि राजनीति के गलियारों की खाक़ छानते-छानते गाँवों के ऐसे लाल ‘कागजी किसान’ हो कर रह जाते हैं क्योंकि सांसद्‌-विधायक बनने की चाह में इनके भीतर का ‘किसान’ मर जाता है। सालों से होती आ रही आर्थिक समीक्षाओं के वे परिणाम भी विधायिका में प्रतिष्ठित होते जमीनी व्यक्तियों की ऐसी आलोचना की पुष्टि करते आये हैं जो दिखलाते हैं कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद्‌ में कृषि का योग-दान लगातार गिर रहा है। बड़ी तीव्रता से। वह भी तब जब आय-कर भरने वाले उन रईसों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है जो कागजों पर प्रमाणित करने में प्राण-पण से जुटे हैं कि वे कृषक भी हैं। यह समीक्षाएँ चेताती आ रही हैं कि कृषि-प्रधान माने गये भारत के वास्तविक कृषक-चरित्र पर संकट के बादल गहराते जा रहे हैं।

प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों के स्वाभाविक दोहन तथा स्वावलम्बन से तैयार किये जाते उर्वरकों पर निर्भर रहती आयी भारतीय पारम्परिक कृषि, धीरे-धीरे, कृषक के सामर्थ्य से विचलित हो कर प्रकृति के अस्वाभाविक दोहन और रासायनों के संयोजन से तैयार किये गये उर्वरकों तथा कीट-नाशकों पर निर्भर होती गयी। खेतिहर भूमि के दोहन में होते इस बदलाव के संक्रमण-काल में कृषि को पहुँचने वाले वास्तविक आघातों का आँकलन, कम से कम, किसान तो नहीं ही कर पाये। इसीलिए, सरकारी प्रचार तथा प्रलोभनों के जाल में फँसते गये। बहु-प्रचारित हरित व श्वेत क्रान्तियों से पहुँचने वाले कथित आर्थिक लाभ के किसानों को दिखाये गये सपनों तथा इसके लिए सरकारी सहयोग का आश्वासन इतना प्रबल रहा कि अधिक उत्पादन तथा अधिक लाभ के दुष्चक्र में अब वे इतनी बुरी तरह जकड़ गये हैं कि अधिकांश भारतीय खेती सरकारी कृपा की मोहताज हो कर रह गयी है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार १९९५ से लगा कर २०१२ तक देश के २,७६,४३९ किसानों ने आत्म-हत्या कर अपने जीवन का अन्त किया है।

कृषक के हित साधने वाली हों कृषि-नीतियाँ
अपने दुराग्रहों से ऊपर उठ कर देखना चाहे तो इस दुर्भाग्य-पूर्ण स्थिति के मुख्य कारण को कोई भी समझ सकता है। और इसके लिए उसे एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने या फिर समुद्र की तली पर उतरने जितना श्रम करने की आवश्यकता नहीं होगी। उसे तो बस, केवल इतना ज्ञान होना आवश्यक है कि देश की चौदहवीं लोकसभा की कृषि सम्बन्धी स्थायी समिति ने अपने तेइसवें प्रतिवेदन में क्या सिफ़ारिश की थी? और, उस सिफ़ारिश के प्रति केन्द्र की सरकार का रुझान क्या रहा? 8 मार्च 2007 की अपनी सिफ़ारिश में समिति ने कहा था, “…समिति अपनी पूर्व सिफ़ारिश दोहराती है कि बैंक-कारी विनिमय अधिनियम, 1949 की धारा-21(क) का लोप किया जाये जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कोई भी बैंक छोटे और सीमान्त किसानों से उनके द्वारा लिये गये ऋण की मूल पूँजी से अधिक ब्याज नहीं ले सके, फिर भले ही वह ऋण अल्पावधि का हो या दीर्घावधि का।” किन्तु तत्कालीन केन्द्रीय कृषि मन्त्री शरद पवार ने 7 मई 2007 को लोकसभा में वक्तव्य दे कर इस सिफ़ारिश को अमान्य कर दिया था।

जो अर्थ-शास्त्री उपर्युक्त सचाई को निरर्थक जुमले-बाजी ही मान रहे हों, अपनी कोई प्रति-क्रिया देने से पहले, उन्हें केन्द्रीय बजट और उसमें किसानों को दिये जाने वाले कर्ज के कुल प्रावधान का वह तुलनात्मक अध्ययन देख लेना चाहिए जो दर्शाता है कि सन्‌ 2006-07 के केन्द्रीय बजट में कुल बजट-राशि के 30%, का प्रावधान किसानों को दिये जाने वाले कर्ज के लिये आबण्टित किया गया था। यह प्रावधान 2007-08 में 31.57%, 2008-09 में 31.68%, 2009-10 में 31.72%, 2010-11 में 31.32%, 2011-12 में 36.02% और 2012-13 में 38.57% हो गया। यों, दुराग्रहित अर्थ-शास्त्री पलट-वार करते हुए कह सकते हैं कि बजट-राशि में कृषकों के कर्ज हेतु किये जाने वाले इतने बड़े प्रावधान यह प्रमाणित करते हैं कि केन्द्रीय सरकारें सदैव ही किसानोन्मुखी रहती आयी हैं। यह अलग बात है कि वे स्वयं भी जानते हैं कि उनका यह तर्क आँकड़ों की बाजीगिरी मात्र है क्योंकि यह अर्थ-शास्त्रीय सचाई है कि जैसे-जैसे मँहगाई बढ़ती है सरकारें सरकारी और संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों को मँहगाई-भत्ते की अतिरिक्त किश्तें देती जाती है जबकि इसके उलट इन्हीं स्थितियों में, राहत के नाम पर, किसानों के लिए केवल उस कर्ज के दरवाजे खोले जाते हैं जहाँ असीमित चक्रवृद्धि ब्याज वसूला जा सकता है।

परिणाम भी बिल्कुल स्पष्ट हुए हैं। आँकड़े बतलाते हैं कि कृषि-प्रधान कहे गये हमारे देश में कृषि का कुल योग-दान राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद्‌ की तल-हटी पर बैठता जा रहा है — वर्ष 1950-51में यह 53.1% हुआ करता था जो 2011-12 आते-आते 6% तक लुढ़क चुका था। समझा जाता है कि 1990-91 के बाद से खेती को घाटे का सौदा बना दिया गया है और इस स्थिति के लिए सरकारी नीतियाँ ही पूरी तरह से जिम्मेदार रही हैं।

स्पष्ट है, परिस्थितियाँ इतनी भयावह होती जा रही हैं कि भरण-पोषण के लिए मोहताजी को अग्रसर कृषक और भर-पेट खाद्य की सुलभता के प्रति चिन्तित आम नागरिक, दोनों ही, विचलित हैं। विचलित नहीं हैं तो केवल वे जो या तो सम्पन्नता-जनित आधुनिकता से अटे पड़े हैं या फिर नीति-निर्धारक होने के घमण्ड से चूर हैं। और, क्योंकि किसानी से जुड़ी समस्याओं को लेकर पूरी लगन तथा निष्ठा से जूझने वाले व्यक्तियों का टोटा पड़ने लगा है, ग्राम्य समाज हलाकान है। परिणाम यह होने लगा है कि औसत भारतीय किसान पारम्परिक खेती को तिलांजलि दे, अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार, या तो शहरों की ओर पलायन करने में जुट गया है या फिर शहरों को ही अपनी दहलीज तक खींच लाने की जुगत भिड़ाने लगा है।

तथापि, यदा-कदा ही सही, निराशा से भरे इस धुँधलके में भी आशा की कुछ किरणें अपनी उपस्थिति दिखला रही हैं। अलग-अलग विधाओं से शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी यह व्यक्ति खेती-किसानी और ग्रामीण समाज की चुनौतियों से निपटने को अपना महत्व-पूर्ण दायित्व मानते हैं।

आईआईटी धनबाद से पेट्रोलियम इंजीनियरिंग में एमटेक और छत्तीसगढ़ कृषक बिरादरी के संयोजक प्रदीप शर्मा सरकारी कृषि नीति में कृषक हितों के सीधे हस्तक्षेप की वकालत करते हैं। वे छत्तीसगढ़, उड़ीसा और विदर्भ के किसानों के बीच एक-जुटता का प्रयास भी कर रहे हैं। इसके लिए वे राज्य द्वारा प्रस्तावित ‘जलवायु परिवर्तन नीति के मसौदे’ में ऐसे परिवर्तनों को करवाने का जन-दबाव तैयार करने का प्रयास भी कर रहे हैं जो क्षेत्रीय किसानों के हितों के अनुकूल हों। प्रदीप शर्मा जोर दे कर सुझाते हैं कि हमारे देश में जिस किसी के लिए भी ऐसा करना सम्भव हो वह ‘रासायनिक’ कीट-नाशकों के वे विकल्प विकसित करने में अपना हर सम्भव योग-दान करे जिन्हें यथार्थ में ‘जैविक’ कहा जा सकता हो।

नदी घाटी मोर्चा के गौतम बंदोपाध्याय कहते हैं कि हमें नदियों तथा उनकी जन संस्कृतियों के साथ-साथ जलवायु-न्याय को भी आधार बनाते हुए नए सिरे से स्थानीय जलवायु नीति बनाना चाहिए। इस तरह से बनी नीति से किसानों और सरकारों के बीच सार्थक संवाद स्थापित हो सकेगा। छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ किसान नेता आनंद मिश्रा मानसून और जलीय परिस्थितियों में असंतुलन को ध्यान में रख कर एक गम्भीर अध्यनयन के किये जाने पर जोर देते हैं। उनका कहना है कि जमीन से जुड़े सारे कार्यक्रम इस अध्ययन से निकले निष्कर्षों के आधार पर ही बनाये जाने चाहिए। कृषि मौसम विज्ञानी डॉ० एएसआरएएस शास्त्री का सुझाव है कि मौसम आँकलन किसी केन्द्रीय पैमाने पर नहीं बल्कि क्षेत्रीय आधारों पर हो। वे कहते हैं कि सूखे की परिभाषा क्षेत्र-विशेष और शेष भारत के लिए अलग-अलग होती है। उदाहरण देते हुए डॉ० शास्त्री समझाते हैं कि नमी तो उपलब्ध हो किन्तु पानी नहीं भरा हो तो धान के खेतों के लिए इसे सूखा माना जाना चाहिए। जबकि, देश के कृषि विशेषज्ञ ऐसा नहीं मानते हैं।

उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ कृषक बिरादरी ने क्षेत्र में आसन्न सूखे और जलवायु परिवर्तन को लेकर हाल ही में आयोजित एक बैठक में ‘रीजनल फोरम फ़ॉर क्लाईमेट जस्टिस’ के नाम से एक नागरिक संगठन का गठन किया है।

भोपाल के सामाजिक संगठन राष्ट्रीय जागरण मंच के महासचिव अजय गौर ध्यान दिलाते हैं कि किसान बोनी के लिए जो बीज ले कर आते हैं उसकी गुण-वत्ता का लेबिल तो चस्पा रहता है किन्तु पर्याप्त मामलों में ऐसा भी देखने में आ जाता है कि सरकारी प्रमाणन के बाद उपलब्ध कराये गये बीज अंकुरित भी नहीं होते हैं। उनका दु:ख विशेष रूप से यह है कि गुणवत्ता-विहीन ऐसे बीजों पर, और उसे किसानों तक पहुँचाने वाले अपराधियों पर भी, अंकुश लगाने के कागजी प्रावधान भले ही किये जाते रहे हों किन्तु इस दिशा में आवश्यक ईमान-दार प्रयास व्यवहार में देखने में नहीं आते हैं।

आईआईटी दिल्ली से उच्च शिक्षा ले कर सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) के विशेषज्ञ बने और भोपाल स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ़ रीजनल एनालिसिस (आईआरए) के कार्य-कारी संचालक अजय कुमार ने किसानों की समस्याओं पर एक विस्तृत नोट बनाया है जिसमें किसानों के बीच आ रही गम्भीर समस्याओं का संक्षिप्त विवरण तो है ही, उनके सम्भावित हल भी सुझाये गये हैं। वे मानते हैं कि किसानों की समस्याओं का हल तभी निकल पायेगा जब उनकी ओर केवल नीति-निर्धारकों का ही नहीं अपितु आम नागरिक का भी ध्यान आकर्षित हो। इसके अभाव में न तो कृषक हित-कारी कृषक-नीतियाँ बन पायेंगी और ना ही, दिखावे के लिए घोषित हुई ही सही, लचर कृषि-नीतियों का कभी पालन हो पायेगा। जबकि, जीवकोपार्जन के लिए किसानी करने के घोषणा-पत्र भरने वाले एक चौथाई लोकसभा सदस्यों में इतनी समझ तो होनी चहिए कि यथार्थ में कृषक हितकारी नीतियाँ बनाना, और उनका लागू होना सुनिश्चित करना भी, एक-मात्र देशज विकल्प है।

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