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आईसीआईसीआई का मकड़-जाल : २

डॉ० ज्योति प्रकाश. जबलपुर.
 
बीती 12 जून को जबलपुर में आयोजित पत्रकार वार्ता में स्वयं-सेवी संगठन सोशल एण्ड ज्युडीशियल एक्शन ग्रुप (सजग) के अध्यक्ष डॉ० ज्योति प्रकाश ने SARFAESIA के प्रावधानों पर गम्भीर सवाल उठाये और कहा कि उसमें ऐसे किसी न्यायिक नियन्त्रण का प्रावधान नहीं है जो वसूली की किसी अनैतिक अथवा सरासर असत्य प्रक्रिया को, उसके आरम्भ होने के प्रथम बिन्दु पर ही प्रतिबन्धित करता हो।

डॉ० ज्योति प्रकाश का कहना था कि इस कारण से जहाँ DRT अपने गठन के न्यायिक उद्देश्यों से भटकता जा रहा है वहीं वित्तीय संस्थानों में वसूली की मन-मानी करने की प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। प्रमाण के रूप में दस्तावेजी साक्ष्यों को रखते हुए डॉ० ज्योति प्रकाश ने आरोप लगाया कि कभी-कभी तो DRT का ‘वित्तीय संस्थान पोषक’ दुराग्रह इतना प्रबल हो जाता है कि प्रकरण में कथित ऋणी के पक्ष में उपलब्ध ठोस तथ्यों और साक्ष्यों को दबाने के लिए वह सुनवाई-विशेष पर लिखी जाने वाली अपनी गैर न्यायिक आदेशिकाओं में, आदेशिका लिखने के, अपने प्रशासनिक विशेषाधिकार का मन-चाहा दुरुपयोग तक कर डालता है। 

 एक पत्रकार वार्ता में सजग के अध्यक्ष डॉ० ज्योति प्रकाश
डॉ० ज्योति प्रकाश
अपनी बात रखने से पहले डॉ० ज्योति प्रकाश ने यह स्पष्‍ट किया कि देश में बनने वाला अधिनियम-कानून सिद्धान्तत: उस प्रवृत्ति को दण्डित और प्रताड़ित करने के लिए बनाया जाता है जो व्यापक जन-हित और राष्‍ट्र-हित को चोट पहुँचाती है या पहुँचा सकती है। और, कानून व व्यवस्था के इस ध्येय में उन्हें कुछ भी अनैतिक नहीं दिखता है।

किन्तु, यहीं यह आवश्यक सचाई भी जोड़ी कि ऐसे सारे अधिनियमों और कानूनों में किसी भी व्यक्‍ति को, उसके बारे में पूर्वाग्रह पाल कर, एक तरफा रूप से दोषी मान लिये जाने की प्रवृत्ति पर कठोर रोक भी लगी होती है। कोई दोषी है या नहीं, यह सुनिश्‍चित करने की एक निष्‍पक्ष कानूनी प्रक्रिया है और उसका पालन किया ही जाना चाहिए। इसका पालन किये बिना कुछ भी, बिल्कुल एक तरफा रूप से, तय कर लेना संविधान के दायरे में सर्वथा अस्वीकार्य है और न्यायत: अमान्य भी। यही कारण है कि वित्तीय आस्तियों का प्रतिभूतिकरण और पुनर्गठन तथा प्रतिभूति हित का प्रवर्तन अधिनियम, 2002 (SARFAESIA) की व्यवहारिक समीक्षा सार्वजनिक रूप से किया जाना आवश्यक हो गया है।

डॉ० ज्योति प्रकाश ने कहा कि उनके कथनों, तथ्यों और प्रमाणों को ठीक-ठीक सन्दर्भों में लेने के लिए निम्न ऐसी आधार-भूत सचाइयों को भी समझना होगा जो SARFAESIA से जुड़ी समूची प्रक्रिया के न्यायत: निष्‍पक्ष होने पर गम्भीर सवालिया निशान जड़ती हैं —

(1) SARFAESIA अधिनियम 2002 किसी भी व्यक्‍ति को ऋणी घोषित करने और उसके विरुद्ध वसूली की मनमानी प्रक्रिया चलाने का इतना असीमित अधिकार दे देता है कि सब कुछ एक तरफ़ा हो जाता है;

(2) कहने को, कागजों पर कुछ शर्तें हैं और अन्तिम न्यायिक निष्‍कर्ष तक पहुँचते समय यह न्यायिक समीक्षा की भी जानी चाहिए कि उनका पालन हुआ है या नहीं? लेकिन, इस सीमित से प्रावधान से वसूली का प्रयास करने वाले पर ऐसा कोई व्यवहारिक नियन्त्रण लागू नहीं हो जाता है जो वसूली की उसकी किसी अनैतिक अथवा सरासर असत्य प्रक्रिया के आरम्भ करने पर रोक लगाता हो। दूसरे शब्दों में, पीड़ित व्यक्‍ति को इन शर्तों का लाभ केवल तभी मिल सकता है जब वह SARFAESIA के उपलब्ध सीमित से प्रावधानों के अन्तर्गत्‌ आगे की न्यायिक प्रक्रिया में घुसे;

(3) यही नहीं, इस न्यायिक प्रक्रिया में भी ऐसा कोई प्रमाण हमें नहीं मिलता है जो कहता हो कि न्यायिक प्रक्रिया में वसूली का मन-माना प्रयास कर रहे पक्ष का दोष पकड़े जाने पर, भारतीय न्याय विधा में किये गये, प्रताड़न-प्रक्रिया से मुक्‍ति जैसे बेहद औसत और सामान्य प्रावधानों से हट कर, थोड़ा सा भी विशिष्‍ट अथवा गम्भीर दण्ड लागू होता हो। कुछ इस तरह का कि SARFAESIA की वसूली उन्मुख कठोरता का सरासर अनैतिक और असत्य दुरुपयोग करने वाले को न केवल गम्भीरतम्‌ रूप से दण्डित करता हो अपितु दुराग्रह-ग्रसित तथा दुस्साहसी ऐसे दुरुपयोग के लिए उसे अधिनियम का उपयोग करने के विशेषाधिकार से हमेशा अथवा सीमित समय के लिए वंचित तक होना पड़े।

इसमें दो मत नहीं कि वित्तीय आस्तियों का प्रतिभूतिकरण और पुनर्गठन तथा प्रतिभूति हित का प्रवर्तन अधिनियम, 2002 (SARFAESIA) को इसलिए प्रभावित किया गया था कि वित्तीय संस्थानों से लिये गये ऋण को हड़प लेने की बढ़ती जा रही प्रवृत्ति पर प्रभावी नियन्त्रण रखा जा सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अधिनियम में ऋण-प्रदाताओं को असीमित अधिकार दिये गये हैं। किन्तु अधिनियम में ही, न्याय-हित को संतुलित करने के ऐसे सु-स्पष्‍ट प्रावधान भी हैं जो वित्तीय संस्थानों की आपराधिक और निरंकुश वसूली-प्रवृत्तियों पर न्यायोचित अंकुश की भूमिका भी निभायें। ‘नियन्त्रण और संतुलन’ की इसी भूमिका के निर्वाह के लिए ऋण वसूली प्राधिकरण (DRT) का गठन किया गया है।

वस्तुत:, DRT एक पंचाट है। और, इसे वसूली की कार्यवाहियों के जायज अथवा ना-जायज होने या उसमें देय अथवा अदेय होने जैसे विवादों का न्यायिक निराकरण करना होता है। दूसरे शब्दों में, जहाँ एक ओर इसका गठन अशोध्य बकाया ऋणों की वसूली को सुगम बनाने के लिए किया गया है वहीं दूसरी ओर इसकी जिम्मेदारी यह निगरानी करने की भी है कि ऋण-प्रदाता संस्थान, SARFAESIA के कठोर प्रावधानों का मन-माना दुरुपयोग कर, ऋणी को हलाकान न करें। SARFAESIA के विभिन्न प्रावधानों से स्पष्‍ट है कि DRT को ऋणी पर यथार्थ में बकाया और ऋणा-प्रदाता द्वारा SARFAESIA के तहत की जाने वाली वसूली को लेकर उठने वाले तमाम विवादों का न्याय-संगत्‌ निराकरण करना है। स्पष्‍ट है कि न्यायिक शक्‍तियों से युक्‍त इस प्राधिकरण को स्वयं को ऋण-प्रदाताओं का, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, वसूली एजेण्ट मानने से बचना होगा।

डॉ० ज्योति प्रकाश के अनुसार, उपस्थित परिस्थितियों की समीक्षा बतलाती है कि DRT ने अपना सारा दायित्‍व ‘Debt Recovery’ पर ही केन्द्रित कर लिया है। और इस कारण से, ‘Tribunal’ के आधार-भूत भाव में इसकी रुचि निम्नतम्‌ होती जा रही है। अर्थात्‌, ऋण-वसूली के विवाद में उपलब्ध इस एक-मात्र न्यायिक माध्यम का पूरा जोर स्व-पोषित दृष्‍टि से पूर्वाग्रहित अपने इस ध्येय पर केन्द्रित रहता है कि, चाहे जैसे भी हो, अपने आधीन चलने वाली कार्यवाही में वह ऋण-प्रदाता के पक्ष को इतना पुष्‍ट कर दे ताकि उसकी प्रतिष्‍ठा ऋण-वसूली के सुनिश्‍चित माध्यम की हो जाये। इसी कारण से, ऋणी ठहरा दिये गये पक्ष का पलड़ा, वसूली के प्रयास में जुटे पक्ष की तुलना में, अत्यन्त हल्का बना कर देखा जा रहा है। और, ऐसा करने के फेर में ‘प्राधिकरण’ के कतिपय पीठासीन अधिकारी इस आधार-भूत न्यायिक सिद्धान्‍त की खुली उपेक्षा करने तक से परहेज नहीं रखते हैं कि सुनवाई तिथियों की आदेशिकाओं को लिखने में, उन तिथियों पर प्राधिकरण के सामने आये तथ्यों के प्रति, पूरी न्यायिक निष्‍पक्षता रखना उनका प्राथमिक दायित्व है। स्पष्‍ट है, यदि ऐसा होने लगे कि पीठासीन अधिकारी न्यायिक निष्‍पक्षता को तिलांजलि देकर ऋण देने वाले पक्ष का उपकरण ही बन जाये तो क्या यह नहीं समझा जाना चाहिए कि न्याय की ‘अमूर्त’ मानी जाने वाली पीठ पर, पीठासीन व्यक्‍ति का, ‘मूर्त’ भाव प्रबल हो गया है? और ऐसी स्थिति में, एक निष्‍पक्ष बुद्धि को यह कहने में कतई संकोच नहीं होगा कि पीठासीन व्यक्‍ति के निजी चरित्र के आगे पीठ की न्यायिक निष्‍पक्षता धूल-धूसरित हुई है।

‘कोढ़ में खाज’ शैली में कथित ऋणी की स्थिति कभी-कभी यह तक हो जाती है कि उसे DRT के न्यायिक रूप से सरासर त्रुटि-पूर्ण आदेश को DRAT में सुनवाई हेतु प्रस्तुत कर पाने तक में असमर्थ हुआ पाया जा सकता है क्योंकि, अधिनियम के प्रावधान के अनुसार, उस पर बकाया घोषित हुई राशि का कम से कम 75 प्रतिशत्‌ अग्रिम जमा कराये बिना DRAT में प्रस्तुत हुए सुनवाई के उसके आवेदन पर विचार तक आरम्भ नहीं किया जाता है। पीड़ित को ऐसा तब भी करना ही होता है जब अन्तिम सचाई भले ही यह हो कि यथार्थ में, उस पर किसी बकाया के होने की बात तो दूर उसने एक पैसा उधार तक भी नहीं लिया हो! आँसू पोंछने के लिए, टिश्यू पेपर की मानिन्द, पीड़ित के लिए यह अवसर अवश्य है कि यदि DRAT का विवेक कहे तो वह, विशेष कृपा करते हुए, अग्रिम जमा की शर्त को २५ प्रतिशत्‌ तक भी ला सकती है।

जाहिर है, यहीं से DRT की न्यायिक भूमिका की महत्ता आरम्भ हो जाती है। दरअसल, उधारी-वसूली का दावा ठोक रहे पक्ष के दावे को, उसकी तकनीकी ही सही, थोड़ी सी भी प्राथमिक दस्तावेजी जाँच किये बिना स्वीकार लिये जाने की अधिनियम की अतिरेक भरी अव्यवहारिक छूट मुख्यत: DRT की न्यायिक गुण-वत्ता तथा पक्ष-निरपेक्षता के भरोसे पर टिकी है। यह कल्पना कितनी भयावह है कि किसी औसत गृहस्थ ने किसी नामी-गिरामी वित्तीय संस्थान से एक पाई भी कर्ज नहीं लिया हो किन्तु वित्तीय संस्थान का दावा हो कि उस पर करोड़ों की उधारी-वसूली बकाया है। ऐसी स्थिति में, अकेले DRT का निष्‍पक्ष नहीं होना न्याय की सारी ऊपरी सीढ़ियों को ध्वस्त कर देने के लिए पर्याप्‍त है। क्योंकि न्याय के लिए छट-पटा रहे पीड़ित को सुनवाई के अपने अपीली आवेदन के साथ इतनी बड़ी राशि अग्रिम में जमा करानी होगी जो वह कर ही नहीं सकता है। अर्थात्‌, मुफ़्‍त में नीलाम होने का इससे बेहतर ‘न्यायिक’ उदाहरण ढूँढ़े नहीं मिलेगा!

दुर्भाग्य से, उपलब्ध परिस्थितियाँ बतलाती हैं कि DRT अपने गठन के न्यायिक उद्देश्यों से भटकता जा रहा है। कदाचित्‌ इसलिए कि इस प्राधिकरण का औसत सोच पक्ष-निरपेक्ष होते हुए विवाद-निराकरण करने का नहीं रह गया है। इसके उलट, वह ऋण-ग्राही की नीयत को खोट-पूर्ण मान कर चलने की दुराग्रही धुरी पर टिकता जा रहा है। परिणाम यह होता जा रहा है कि इस न्यायिक संस्थान की भूमिका उसके सम्मुख उपस्थित हुए विवाद का युक्‍ति-युक्‍त न्यायिक निराकरण करने वाले सक्षम न्यायिक प्राधिकरण की नहीं रह कर, औसतन, एक ऐसे ‘वसूली’ प्राधिकरण में सिमटने लगी है जिसे केवल उन आधारों की तलाश हो जिनकी सुनियोजित आड़ लेकर वह कथित ऋणी को येन-केन-प्रकारेण दोषी ठहरा सके। और इस तरह वह, ऋण-प्रदाता का पक्ष असत्य तथा अन्याय-पूर्ण हो तब भी, विवादित ऋण की वसूली को सुलभ बना सके। ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो बिना किसी संशय के यह स्थापित कर देते हैं कि कभी-कभी DRT का यह ‘वित्तीय संस्थान पोषक’ दुराग्रह इतना प्रबल हो जाता है कि प्रकरण में कथित ऋणी के पक्ष में उपलब्ध ठोस तथ्यों और साक्ष्यों को दबाने के लिए वह सुनवाई-विशेष पर लिखी जाने वाली अपनी गैर न्यायिक आदेशिकाओं में, आदेशिका लिखने के, अपने प्रशासनिक विशेषाधिकार का मन-चाहा दुरुपयोग तक कर डालता है। कम से कम प्राधिकरण की मध्य प्रदेश इकाई की कार्यवाहियाँ तो यही प्रतिध्वनित करती हैं। यहाँ के दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतिलिपियों से यह निष्‍कर्ष आसानी से निकल आता है कि प्राधिकरण के पीठासीन अधिकारी ने सुनवाई की तिथियों की आदेशिकाओं पर एकाधिक बार ऐसे झूठ तक लिख डाले हैं जिनके सहारे, अपने निर्णयों में, वह ऋण-प्रदाता संस्थान को अनुचित लाभ पहुँचा सकें।

यद्यपि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार दोहराया है कि न्याय न केवल किया जाना चाहिए अपितु किसी भी संशय से परे यह दिखायी भी देना चाहिए कि न्याय किया गया है। इस परिप्रेक्ष्य में बड़ा सवाल तब उठता है जब कोई पीठासीन अधिकारी न केवल सोच-समझ कर अन्याय करता है बल्कि ऐसा करते हुए वह यह दिखलाने का भर-पूर प्रयास भी करता है कि उसने न्याय किया है। तात्पर्य यह कि जान-बूझ कर किये गये ‘न्यायिक’ दोषों को छिपाने के प्रयासों की मार न्याय की आत्मा पर तो पड़ती ही है, उस आम आदमी पर भी पड़ती है जो कतई निर्दोष और निष्‍कपट भी हो। 

आईसीआईसीआई का मकड़-जाल : २
सजग द्वारा आहूत पत्रकार वार्ता आईसीआईसीआई होम फ़ाइनेन्स कं० से जुड़े एक प्रकरण-विशेष में अपनाये गये ऐसे ही दुराग्रह के प्रमाण रखने के लिए थी जो न केवल DRT की न्यायिक प्रतिष्‍ठा को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता को पूरी गम्भीरता से प्रति-पादित करते हैं अपितु इस ओर सोचने को विवश भी करते हैं कि इस व्यवहारिक दुर्भाग्य का युक्‍ति-युक्‍त हल खोजा जाये कि, वह अपने आप में इकलौता ही क्यों न हो, कैसे पीठासीन अधिकारी में विहित किसी व्यक्‍ति को, इस अथवा उस कारण से, आदेशिकाओं को लिखने के अपने प्रशासनिक विशेषाधिकार का मन-चाहा दुरुपयोग करने से न्यायत: बाधित रखा जा सकता है?

डॉ० ज्योति प्रकाश ने दावा किया कि यह न्याय की आत्मा और आम नागरिक का सौभाग्य ही है कि DRT की जबलपुर पीठ में चले एक प्रकरण में ऐसे प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध हुए हैं जो पीठासीन अधिकारी के ऐसे सम्भावित न्याय-विरोधी कदमों की सचाई उजागर करने में अपने आप में पर्याप्‍त सक्षम है। यहीं, उन्होंने यह स्पष्‍टीकरण भी दिया कि मीडिया से उनकी बात-चीत उक्‍त प्रकरण में पारित हुए विभिन्न आदेशों के गुण-दोषों का रोना रोने के लिए नहीं थी। उन्होंने बतलाया कि पीड़ित द्वारा, न्याय-प्रदाय की ऊपरी न्यायिक सीढ़ी पर जा कर इन त्रुटि-पूर्ण आदेशों के विरुद्ध गुहार लगाने के, उपलब्ध न्यायिक विकल्प का प्रयोग किया जा चुका है। फिर भी, उक्‍त प्रकरण की चर्चा इसलिए आवश्यक मानी गयी कि उक्‍त प्रकरण में विभिन्न तिथियों में लिखी गयी पर्याप्‍त आदेशिकाएँ सुनवाई और प्रकरण के तथ्यों से अन्याय करती पायी गयी हैं। सजग की ओर से प्रकरण की आदेशिकाओं की सत्यापित प्रतिलिपियों की छाया-प्रतिलिपियाँ मीडिया को उपलब्ध करायी गयीं।

न्यायिक प्रक्रियाओं की क्लिष्‍टता को समझने वाले आम जन भी जानते हैं कि महज प्रशासनिक होने से ऐसी आदेशिकाओं को न्यायिक चुनौती नहीं दी जा सकती है। फिर, पीठासीन अधिकारी के रूप में विराजित हुए व्यक्‍ति तो न्यायिक गुहार की इस सीमा को कहीं अधिक विस्तार व अधिकार के साथ समझते हैं। ऐसे में, इस सम्भावना को सिरे से नकारा नहीं जा सकता है कि आईसीआईसीआई होम फ़ाइनेन्स कं० के विरोध में लगाये सम्बन्धित प्रकरण में पीठासीन अधिकारी ने एकाधिक आदेशिकाओं को केवल इस सोची-समझी नीयत से लिखा कि इनके माध्यम से वह अपने स्व-पोषित दुराग्रह को यथा-सम्भव न्यायिक बल तो प्रदान कर सकें लेकिन पीड़ित पक्ष चाह कर भी इनके विरुद्ध, स्वतन्त्र रूप से, कोई न्यायिक गुहार न कर सके।

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