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विद्या भैया को अछूत मानते थे कांग्रेसी

डॉ. सुनीलम
पूर्व विधायक एवं समाजवादी साथी


विद्या भैया नहीं रहे, रात को ट्रेन में मुझे ये खबर पत्रकार मित्र अभिषेक रंजन ने दी। मन हुआ कि अंत्येष्टि में शामिल होने गोंडवाना एक्सप्रेस से सीधा रायपुर चला जाऊं। परन्तु प्रतिमाह होने वाली 205वीं किसान महापंचायत होने के कारण मुलताई उतर गया।

विद्या भैया को अछूत मानते थे कांग्रेसीविद्या भैया से मेरा पहला सम्पर्क तब हुआ था, जब स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह का साथ देने वे अरूण नेहरू, आरिफ मोहम्मद खान के साथ कांग्रेस से निकलकर जनमोर्चा बनाया। मध्यप्रदेश के समाजवादी उन्हें प्रदेश की जिम्मेवारी दिये जाने का विरोध कर रहे थे। जनता दल की जिस मीटिंग में भी वे जाते समाजवादी अपना पूरा जोर लगाकर उनका विरोध करते, लेकिन कभी भी मैंनें उन्हें नाराज होते नहीं देखा, हर समय मुस्कराते रहते थे, विरोध को हलके-फुलके से लेकर विरोधियों से भी संवाद बनाने की कोशिश करते रहना उनकी राजनैतिक शैली का हिस्सा था।
म.प्र. कांग्रेस की राजनीति में विद्या भैया बट बृक्ष की तरह थे। मध्यप्रदेश (संयुक्त) के हर जिले में उनके अपने लोग थे, जिन्हें शुक्ल परिवार ने ही कांग्रेस की राजनीति में स्थापित किया तथा उन्हें टिकिट देकर सांसद और विधायक बनाया, लेकिन कांग्रेस छोड़ने के बाद एसे सभी लोग उनके साथ नहीं आये। इसके बावजूद उन्होंने कभी अपने लोगों को भला-बुरा नहीं कहा। एक बार जिसे अपना माना जिन्दगी भर उसका साथ निभाया।  

मैं अपना ही उदाहरण लिखता हूं, मैं मूलत: कांग्रेस विरोधी समाजवादी हूं, यह बात वे अच्छी तरह जानते थे। श्री जार्ज फर्नाडिज से मेरा गहरा वैचारिक एवं भावनात्मक लगाव है, यह बात भी उन्हें अच्छी तरह से मालूम थी, लेकिन इसके बावजूद मैं और वे जब तक जनता दल में रहे उन्होंने कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि मैं उनके लिये अलग हूं, इसके विपरीत उन्होंने सार्वजनिक तौर पर मेरी प्रशंसा कर मुझे भरपूर सम्मान दिया। उनके प्रबल राजनैतिक विरोधी, जिन्होंने उन्हें चुनाव भी हराया था, पुरूशोत्तम कौशिक को सांसद के रूप में आवंटित निवास में ही मैं दिल्ली रहता तथा यह जानते हुए कि मेरी कौशिक जी के साथ लम्बी गुफ्तगू होती है, कभी मुझसे यह जानने की कोशि नहीं की, कि कौशिक जी मेरे बारे में क्या कुछ कहते हैं।
 केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के लम्बे अनुभव के बावजूद समाजवादियों के विरोध के कारण स्व. वीपी सिंह चाहते हुए भी उन्हें अपने मंत्रिमण्डल में स्थान नहीं दे पा रहे थे, लेकिन इस बिन्दु पर उन्होंने मुझसे कभी कोई चर्चा नहीं की और न ही कभी यह कोशिश की कि मैं पार्टी के भीतर अपना खेमा बदलकर उनके साथ हो जाऊं।

सुनील कुमार मिश्रा उर्फ डॉ. सुनीलम पूर्व विधायक एवं समाजवादी साथी
सुनील कुमार मिश्र उर्फ डॉ. सुनीलम
पूर्व विधायक एवं समाजवादी साथी
विद्या भैया अपने कार्यकर्ताओं के साथ पारवारिक सम्बंध रखते थे। मुझे याद है जब वे मेरी शादी में कान्सटीट्यूशन क्लब में आये थे, तब लगातार गेट पर खड़े होकर सभी अतिथियों का स्वागत कर रहे थे तथा स्वयं अतिथियों को खाने की प्लेंटे दे रहे थे। उर्मिला के लिये स्वयं जाकर साड़ी लेकर आये और कहा कि ये कुछ कमाता नहीं हैं, कभी कुछ दिक्कत आये तो मुझे फोन करना मैं घर में सबसे बड़ा हूं। तबसे लेकर जेल जाने तक वे सदा मुझको और परिवार को लेकर चिंतित रहे। जब मै चार महीने जेल में था, उन्होंने मेरे नंबर पर फोनकर एडवोकेट आराधना भार्गव से मेरा हाल पूछा तथा मदद की पेशकश की। उन्होंने मुझसे बात करने के लिये जेल अधिकारियों को फोन किया, लेकिन उन्होंने मुझसे विद्या भैया से मेरी बात नहीं होने दी। जबकि जेल में बंदियों को यह अधिकार प्राप्त है कि, वे सप्ताह में एक बार जेल के नंबर पर बातचीत कर सकते हैं। जेल से निकलने के बाद सोचा कि विद्या भैया से मुलाकात करूंगा उनके मोबाइल पर फोन भी लगाया मगर दुख है कि देहान्त से पहले ना तो उनसे मुलाकात हो सकी और न ही बात कर सका।

मेरे आमंत्रण पर विद्या भैया बैतूल भी आये, कई स्थानों पर उनका स्वागत भी किया गया। जनता दल के गठन के बाद, जब पहली बार चक्र के निशान पर विधान सभा चुनाव हुए तब विद्या भैया के चलते ही मैं मुलताई से जिन्दगी का पहला चुनाव लड़ा। 1984 से मै बैतूल जिले के आदिवासी बाहुल्य घोड़ा डोंगरी क्षेत्र में काम करता था। मुलताई से मेरा कोई संबंध नहीं था, लेकिन विद्या भैया ने कहा कि मुझे चुनाव जरूर लड़ना चाहिये। पहले वे मुलताई से अपने एक पुराने कांग्रेसी मित्र को चुनाव लड़ाना चाहते थे, लेकिन बैतूल एवं प्रदेश के समाजवादियों ने जब उनकी इस पहल का विरोध किया तो उन्होंने कहा कि डा.सुनीलम चुनाव लड़ें तो चुनाव चिन्ह आवंटित कर सकता हूं। इस कारण पहली बार मुझे न चाहते हुए भी मुलताई से चुनाव लड़Þना पड़ा। इसके बाद जब भी चुनाव आता विद्या भैया फोन करके यह जरूर कहते कि कुछ जरूरत हो तो बताना।

विद्या भैया कांग्रेस के साथ जिये तथा कांग्रेस के साथ मरे, लेकिन एक बार वीवी सिंह के साथ जाने के बाद नेहरू परिवार ने उन पर कभी भरोसा नहीं किया। जन्मजात कांग्रेसी होने के बावजूद परम्परागत कांग्रेसी उन्हें अछूत मानने लगे थे। अपने ही छत्तीसगढ़ में उन्हें परदेशी माना जाने लगा। शुक्ल परिवार के एक क्षत्र राज्य पर छत्तीसगढ़ के गठन के बाद ग्रहण लगना शुरू हो गया था। विद्या भैया ने कई पार्टियां बदलीं, लेकिन मूलत: कांग्रेसी होने के कारण तथा यथोचित सम्मान नहीं मिलने के कारण उन्हें अंतत:कांग्रेस में लौटना पड़ा। राजनीति में पार्टी के भीतर और बाहर वर्चस्व कायम करने की कोशिश उन्होंने 84 वर्ष की उम्र तक नहीं छोड़ी। अपने स्वास्थ्य और शरीर के प्रति वे हमेशा सजग रहे। कौन जानता था कि उनकी मृत्यु माओवादियों की गोली से होगी, वे कभी भी माओवादियों के निशाने पर नहीं रहे, लेकिन महेन्द्र कर्मा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने की कीमत उन्हे अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। जीवन के अंतिम दिनों में वे अपने आप को सत्ता के नजदीक देख रहे थे। वे बार-बार मुझसे कहा करते थे कि मैं मुंह में सोने की चम्मच लेकर पैदा हुआ हूं, तुम समाजवादियों ने मुझे सिखाया कि जमीनी रणनीति क्या होत है। यदि मैं सत्ता से अलग नहीं होता तो मुझे यह राजनैतिक यथार्थ मालूम ही नहीं पड़ता। मुझे इसके लिये बार-बार जन्म लेना पड़ता, लेकिन कुछ वर्षों में ही तुम समाजवादियों ने मुझे सब कुछ सिखा दिया।

इतिहास में उन्हें इमरजेंसी के प्रवक्ता एवं संजय गांधी के हितैषी के रूप में याद किया जायेगा, लेकिन वास्तविकता यह भी रही कि देश के सभी विपक्षी दलों के नेताओं से भी उनके आत्मीय रिश्ते रहे। इमरजेंसीं के प्रखर विरोधी जार्ज फर्नाडिज के साथ भैया के रिश्तों को मैंने बहुत नजदीक से देखा है।

विद्या भैया को अछूत मानते थे कांग्रेसी
रैली में माओवादी हमले ने उनहें छत्तीसगढ़ की जमीनी वास्तविकता से अवगत करा दिया। सलवा जुडूम अभियान के चलते अर्धसैनिक बलों द्वारा एक हजार से अधिक आदिवासी मारे जाने तथा 7 सौ से अधिक गांवों को विस्थापित किये जाने के तौर पर उपजी माओवादी हिंसा ने विद्या भैया की जान ले ली। मेदांता अस्पताल पहुंचने के बाद भी मैं उनसे मौत से पूर्व नहीं मिल सका, इसका मुझे सदैव पछतावा रहेगा।


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