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आईसीआईसीआई का मकड़-जाल : 1

डॉ. ज्योतिप्रकाश, भोपाल.

आईसीआईसीआई के आर्थिक दुराचारों से जुड़ी ढेरों खबरें बीते दिनों राष्‍ट्रीय और अन्तर्राष्‍ट्रीय सुर्खियों में रही हैं। लोक सरोकारों के प्रति अदम्य लालसा रखने वाले स्वयं-सेवी संगठन सोशल एण्ड ज्युडीशियल एक्शन ग्रुप (सजग) ने अब इन सुर्खियों में एक नया आयाम जोड़ दिया है।

डॉ. ज्योतिप्रकाश
डॉ. ज्योतिप्रकाश
बीती 12 जून को जबलपुर में एक पत्रकार वार्ता में सजग के अध्यक्ष डॉ० ज्योति प्रकाश ने आरोप लगाया है कि जहाँ एक ओर आईसीआईसीआई होम फ़ाइनेन्स कं० अपने ग्राहकों से अनैतिक और असंवैधानिक वसूलियाँ करने में जुटी है वहीं दूसरी ओर न्याय-पीठ पर विराजित कतिपय ‘व्यक्‍ति’ भी, स्वयं को आईसीआईसीआई का उपकरण बना लेने की अन्याय-पूर्ण सीमा तक उसका सहयोग कर रहे हैं। 

अपनी बात को सही-सही परिप्रेक्ष्य देने के लिए सजग ने पत्रकार वार्ता में एक संक्षिप्‍त टीप रखी जिसका सार है कि न्याय-पीठ के भाव में विराजे व्यक्‍ति के ‘पक्ष-धर’ अथवा ‘व्यक्‍ति-सापेक्ष’ होते ही कानून अथवा न्याय को दिखलायी देने वाली प्रकरण के तथ्य-सार की निष्पक्ष स्पष्‍टता पर पीठासीन अधिकारी को, उसके समक्ष उपस्थित हुए पक्षकार की, दिखलाई देने वाली पहचान भारी पड़ जाती है। जो कि न्याय-पीठ की अवमानना है। और, न्याय-पीठ की यह अवमानना स्वयं पीठासीन अधिकारी द्वारा ही की गयी होती है।

मुद्दे की गम्भीरता को देखते हुए ‘न्याय का दर्शन’ शीर्षक से उक्‍त समूची टीप यहाँ उद्धृत है —

भारतीय इतिहास इसका ज्वलन्त प्रमाण है कि राज-तन्त्रों में भी न्याय-संस्थान की गहरी प्रतिष्‍ठा रही है। इतनी गहरी कि उसके सम्मुख स्वयं शक्‍ति-मान राजे-महाराजे तक नत-मस्तक होते आये हैं। फिर, लोक-तन्त्र में न्याय-संस्था की प्रतिष्‍ठा तो किसी भी सन्देह से कतई परे है। यह कहना अतिशयोक्‍ति-पूर्ण नहीं है कि न्याय-संस्थानों की शुचिता ही लोक-तन्त्र की वास्‍तविक ध्वज-वाहिनी है।

दरअसल, न्याय-पीठ अमूर्त (Intangible) है। अर्थात्‌, इसके अस्तित्व को नकारा तो नहीं जा सकता है किन्तु साथ ही इसे प्रत्यक्षत: देखा अथवा स्पर्श भी नहीं किया जा सकता है। यही नहीं, न्याय-पीठ में उसके समक्ष उपस्थित किसी भी पक्ष-विशेष के प्रति किंचित्‌-मात्र भावावेग भी सर्वथा अनुपस्थित होता है। अर्थात्‌, न्याय-पीठ की महत्व-पूर्ण विशेषता यह है कि यह व्यक्‍ति अथवा पक्ष निरपेक्ष होती है। इसे किसी पक्ष का ‘उपकरण’ नहीं बनाया जा सकता है। यही कारण है कि न्याय-संस्था का आदर्श-सूत्र कहता है कि न्याय अन्धा होता है। किन्तु यह निरा अन्धा-पन नहीं है। सच तो यह है कि न्याय-संस्थान की श्रेष्‍ठता उसके इस चरित्र में निहित है कि विराज-मान न्याय-पीठ को तथ्य-सार तो पूरी स्पष्‍टता से दिखलाई देता है किन्तु वह कतई निर्विकार रूप से इससे अविचलित तथा अप्रभावित रहती है कि उसके द्वारा उस सार की स्वीकारोक्‍ति से किस पक्ष को लाभ अथवा किस पक्ष को हानि हो सकती है?

न्याय-संस्था की इसी श्रेष्‍ठता की स्थापना के लिए आँखों पर पट्‍टी बाँधे और हाथ में थामी तराजू के दोनों पल्लों को बराबरी पर साधे खड़ी मूर्ति को न्याय की देवी के रूप में प्रतिष्‍ठित किया गया है। किन्तु, सर्वथा अमूर्त ‘न्याय-पीठ’ जब पीठासीन अधिकारी के रूप में विराजे ‘व्यक्‍ति’ में बदल जाये तो वह ‘मूर्त’ हो उठती है। अर्थात्‌, पक्ष-विशेष के प्रति पीठासीन व्यक्‍ति के सर्वथा निजी भावावेगों को महसूस कर पाना सम्भव हो जाता है। और तब, न्याय-संस्था का अपमूल्यन हो जाता है क्योंकि न्याय-पीठ के भाव में विराजे व्यक्‍ति के ‘पक्ष-धर’ अथवा ‘व्यक्‍ति-सापेक्ष’ होते ही कानून अथवा न्याय को दिखलायी देने वाली प्रकरण के तथ्य-सार की निष्पक्ष स्पष्‍टता पर पीठासीन अधिकारी को, उसके समक्ष उपस्थित हुए पक्षकार की, दिखलाई देने वाली पहचान भारी पड़ जाती है। जो कि न्याय-पीठ की अवमानना है। यह स्थिति न्याय-प्रदाय व्यवस्था (Justice delivery system) को ढहाने के प्रयास की तरह देखी जाती है। और, न्याय-पीठ की यह अवमानना स्वयं पीठासीन अधिकारी द्वारा ही की गयी होती है।

यद्यपि ‘सोच’ के भिन्न होने से न्यायिक विसंगतियों के सामने आने को न्याय-प्रदाय की गुणवत्ता का ही अंग-प्रत्यंग माना जाता है। किन्तु सर्वथा अ-मूर्त और पक्ष-निरपेक्ष समझी जाने वाली ‘न्याय-पीठ’ जब एक सरासर मूर्त (Tangible) और पक्ष-धर (Bias) ‘व्यक्‍ति-मात्र’ में बदली हुई सी जान पड़े तब न्याय-देवी की मूर्ति को सामाजिक दुर्भाग्य का घना धुँधलका खुद-ब-खुद घेर लेता है। क्योंकि तब न्याय-संस्था का अवमूल्यन हो जाता है। और तब, ढेरों सवाल भी खड़े होने लगते हैं।

दुर्भाग्य से, न्याय-संस्थान के निचले और मध्यम धरातलों पर न्याय-ह्रास का यह दृष्‍य कुछ अतिरिक्‍त पुनरावृत्ति से उभर रहा है।

इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि सन्देह के घेरे में आया ‘व्यक्‍ति’ अपनी ‘न्यायिक प्रतिष्‍ठा’ की घुड़की दिखा कर यह चुनौती देता मिल जाता है कि अ-सन्तुष्‍ट हुआ व्यक्‍ति (अथवा पक्ष) निर्णय-विशेष के विरुद्ध न्याय-संस्थान के अगले द्वार पर न्याय की गुहार करने को स्वतन्त्र है। इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय संरचना में न्याय पाने के लिए सीढ़ी-दर-सीढ़ी दरवाजे खट-खटाये जा सकते हैं; खट-खटाये भी जाते हैं। परन्तु क्या केवल इस आधार पर कि अगला दरवाजा खट-खटाने का प्रावधान है, पहला या कि निचला दरवाजा भड़ाक से बन्द किया जा सकता है? सचमुच, पीड़ित ही ‘रेमेडी’ का उपयोग करने को बाध्य रहे और पीड़ा देने वाला आराम से बैठा रहे — यह स्थिति चिन्ता देने वाली है। इसमें भी द्विविधा नहीं कि पर्याप्‍त आधार पास में हो और अगला दरवाजा खट-खटाने लायक साधन भी हों तो पीड़ा देने वाला ऐसा व्यक्‍ति, औसतन, अधिक दिनों तक मौज में रह नहीं सकता। परन्तु, एक कड़वी सचाई यह भी है कि औसत भारतीय परिवेश में अधिकांश पीड़ित व्यक्‍तियों के बूते में नहीं होता है कि वे न्याय-प्राप्‍ति की अपनी तड़प को तार्किक परिणति तक पहुँचा पायें। फिर, अन्यथा स्थितियों में भी यह अत्यन्त गम्भीर प्रश्‍न तो रहेगा ही कि उन जिम्मेदार ओहदे-धारियों के प्रति क्या सोच हो जिन्होंने सुनवाई के अपने दायित्वों को ईमान-दारी से निभाये बिना अपने दरवाजे बे-रहमी से बन्द कर दिये थे?

न्याय का आधार-भूत दर्शन यह है कि न्याय-पीठ पर विराजते ही पीठासीन अधिकारी में विहित ‘व्यक्‍ति’ विलुप्‍त हो जाता है। तब, पीठासीन अधिकारी में ‘पीठ’ की सर्वथा अमूर्त मर्यादा ही शेष रहती है जो उसे निजी स्वार्थों से कतई ऊपर रखती है। और, यदि ऐसा नहीं हो तो न तो न्याय-पीठ बचती है और ना ही न्याय की किंचित्‌ सी सम्भावना।

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