Type Here to Get Search Results !

सावधान! खतरे बढ़ रहे हैं

  डॉ. ज्योतिप्रकाश, भोपाल.

सावधान! खतरे बढ़ रहे हैं ‘प्रयोग-धर्मी’ जब सम्भावनाओं के मद में इतना चूर हो जाते हैं कि अपनी एक ‘सफलता’-विशेष के आगे उसके दुष्परिणामों के तमाम संकेतों की जान-बूझकर अनदेखी करने लगते हैं तो जाने-अनजाने वृहत्तर समाज ही ख़तरे की सूली पर लटक जाता है। ‘बेहतर चिकित्सा’ और ‘बेहतर औषधि’ के नाम पर आदमी में बीमारियाँ और गहरे बैठायी जा रही है। अब यह रहस्य नहीं रहा कि जान-लेवा एड्स ऐसे ही ख़तरों के घातक परिणामों में से एक है। 

आये दिन, इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) की ओर किया यह दावा सामने आ जाता है कि मलेरिया, डेंगू और वायरल बुखार जैसे प्रकोपों से रोक-थाम के होमिअपैथी औषधियों के दावे सन्‍देह के घेरे में हैं। अरबों-खरबों के एलोपैथीय व्यावसायिक हितों को संरक्षित करते ऐसे दावों के स्पष्‍टीकरण के रूप में एलोपैथी से जुड़ा हर हम्प्टी-डम्प्टी सदा से ही, अपने ही तथा-कथित आँकलन से निकाली, यह सम्‍भावना भर परोसता आया है कि इन प्रकोपों में बेहतर परिणामों के होमिअपैथी के दावों की कोई पुष्‍टि वैज्ञानिक आधार पर कभी नहीं हुई। मजेदार तो यह है कि स्वयं आईएमए अथवा उसकी इस तुरही के वादक-वृन्द ने अपने ऐसे होमिअपैथी-विरोधी दावों के समर्थन में, एक भी, तर्क-संगत्‌ पुष्‍ट आधार कभी नहीं दिया।

सावधान! खतरे बढ़ रहे हैं
यह बहस कोई नयी नहीं है। ऐसे हमले तो तब से ही शुरू हो गये थे जब होमिअपैथी के सिद्धान्तकार सैम्युएल हैनिमेन ने, एलोपैथी के गम्भीर दोषों को रेखांकित करते हुए, चिकित्सा-जगत के इस नये दर्शन का प्रतिपादन किया था। तब से एक न एक कल्पित कारण को आड़ बना कर इस नयी चिकित्सा-विधा पर लगातार आक्रमण हो रहे हैं। अतीत में, इसका प्रधान कारण तात्कालिक विज्ञान-जगत में स्थापित हस्तियों में हैनिमेन के दर्शन की गहराई को समझ, और फिर परख, पाने की हैसियत की कमी थी। लेकिन अब इसमें ईर्ष्‍या और आर्थिक हित के वैयक्‍तिक और व्यावसायिक ओछे तत्व भी बराबरी से जुड़ गये हैं।

जहाँ तक होमिअपैथी की प्रभाव-शीलता का सवाल है, खुले समाज की खुली किताब के खुले पन्ने की तरह, यहाँ नीचे एक उदाहरण है जिसे जो चाहे, जब चाहे, मौके पर जाकर स्वयं परख सकता है —

बीते अनेक साल, समाचार-माध्यम, मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के अन्‍दरूनी आदिवासी क्षेत्रों में मलेरिया के प्रकोप की खबरों से भरे रहे हैं। कभी औषधियों की तो कभी चिकित्सकों की कमी की, और कभी-कभी तो,स्थापित एलोपैथिक औषधियों के एकदम प्रभाव-हीन होने की भी खबरें आती रही हैं। इस दौरान सरकार और सरकारी तन्त्र की मलेरिया के प्रकोप को ही झुठलाने की खबरें भी सुर्खियों में रहीं। कुल मिलाकर, एक नकारात्मक माहौल था जिसमें गरीब को लूटने को तत्पर धन-लोलुपों की चाँदी हो रही थी। फिर, चाहे वे किसी स्तर के सरकारी कर्मचारी रहे हों या फिर, केवल लूटने के लिये ही बने (पढ़े या बिन-पढ़े) चिकित्सक-कम्पाउण्डर।

लेकिन इसी इलाके में, जब मलेरिया से होने वाली मौतों का हिसाब रखना कठिन हो रहा था तब थोड़े से गाँव ऐसे भी थे जहाँ, यों तो मलेरिया अपनी उपस्थिति दर्ज कराये हुए था लेकिन, बीते कुछ सालों में जान-लेवा होता नजर नहीं आया। हालाँकि, यह थोड़े से गाँव भी कुछ समय पहले तक आस-पास के दूसरे गाँवों की तरह ही मलेरिया और दूसरे प्राकृतिक प्रकोपों की बेरोक-टोक मातमी चपेट के शिकार रहे थे। लेकिन, चारों ओर मचे हाहाकार के बाद भी, ताजे समय में, इस महा-मारी से एक भी मौत नहीं हुई।

निराशा के उस दौर में आशा का संचार करती यह सच-मुच एक बड़ी खबर थी जो केवल इसलिए ‘मर‘ गयी कि उसमें समाचार-माध्यमों लायक उत्तेजना का खास मसाला नहीं था। एक दूसरा कारण शायद यह भी था कि इस घटना के खबर बनने में, निहित स्वार्थों की, अन्यथा (अफरा-तफरी से) कटने वाली चाँदी कतई नदारत थी।

छोटे, लेकिन एक-दूसरे से दूरस्थ, चार अलग समूहों में बँटे यह गाँव आस-पास के दूसरे गाँवों से केवल इस अर्थ में भिन्न हैं कि एक स्वयं-सेवी संस्था ने लम्‍बे समय से इनमें अपनी प्रभाव-शाली उपस्थिति दर्ज करायी हुई है। बहिरम करंजा (जिला अमरावती, महाराष्‍ट्र) की सतपुड़ा एकीकृत ग्रामीण विकास संस्थान (सिरडी) नाम की इस संस्था की प्राथमिकता, यों तो, ग्रामीण महिलाएँ और बच्चे हैं लेकिन व्यापक परिप्रेक्ष्य में मध्य प्रदेश और महाराष्‍ट्र स्थित अपने कार्य-क्षेत्र के गाँवों में लिंग और उम्र से परे, स्थानीय निवासियों का स्वास्थ्य भी इसकी चिन्ता में शामिल है।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए दो सालों तक वहाँ व्यापक रूप से होमिअपैथी औषधियों का सघन उपयोग किया गया था। परिणाम में, गरीबी-जनित रोगों के इलाज के साथ-साथ मलेरिया की विकरालता में भी स्पष्‍ट कमी आयी थी। बाद में, अनेक व्यवहारिक कारणों से, वहाँ उपचार-कार्यक्रम उतनी सघनता से जारी नहीं रखा जा सका। लेकिन, आधार-भूत देख-रेख फिर भी जारी रही। इसी कारण, संकट के बीते कुछ सालों के दौर में भी मलेरिया के जान-लेवा विस्तार की रोक-थाम के उद्देश्य से इन गाँवों के लगभग सभी निवासियों को एक सप्‍ताह के अन्‍तराल से ‘मलेरिया ऑफिसिनेल’ की एक-एक हजार शक्‍ति की कुल दो-दो खुराकें खिलायी गयी थीं। कार्यकर्त्ताओं की मेहनत रंग लायी थी। जिनके बीच यह दवा बँटी थी, तब, उनमें मृत्यु होने की एक भी खबर नहीं आयी।

मलेरिया से होने वाली सैकड़ों-हजारों मौतों की नियमित वार्षिक खबरों के हाहाकार के बीच उपरोक्‍त खबर सुखद तो है ही, इसमें एक सन्‍देश भी है। लेकिन, जिन्हें इसे सुनना चाहिये वे इसे कभी नहीं सुनेंगे। इसलिए नहीं कि, यह खबर उन तक पहुँची नहीं बल्कि इसलिए कि, वे ऐसी खबरें सुनना ही नहीं चाहते हैं। क्योंकि उनको, इसमें खतरा और घाटा दोनों ही नजर आते हैं। क्योंकि, तब उन्हें ‘तेज’ और ‘तेज से तेज’ नयी-नयी औषधियों और छिड़कावों के अन्‍धा-धुन्‍ध उपयोग के प्रचलित, अपने उस, तरीके को छोड़ना पड़ेगा जो मँहगा तो है ही, मानव जाति को निरन्तर जटिल बीमारियों की ओर ढकेल भी रहा है।

एक होमिअपैथी चिकित्सक आज जानता है कि, गुर्दों के ठीक से काम न करने की शिकायतें धीरे-धीरे कितनी आम हो रहीं हैं; कि, चिकित्सा-परामर्श कक्षों में थायराइड ग्रन्‍थियों से जुड़े रोगों की आमद किस तरह बढ़ रही है; कि, हार्मोन-असन्तुलन के रोगियों की संख्या अचानक ही बहुत बढ़ गयी है और विकृत मन:स्थिति के मामले भी लगातार बढ़ रहे हैं; कि, सन्तान-हीनता के जितने रोगी उसके पास इलाज के लिये इस समय आने लगे हैं, उतने उसने पहले कभी सुने भी नहीं थे; कि, ‘बेहतर चिकित्सा‘ और ‘बेहतर औषधि‘ के नाम पर आदमी में बीमारियाँ और गहरे बैठायी जा रही है। अब यह कोई रहस्य नहीं रहा है कि, जानलेवा ‘एड्स‘ इसी के परिणामों में से एक है।

मैं समझता हूँ कि, उपरोक्‍त उदाहरण होमिअपैथी के बारे में व्यापार-केन्द्रित एलोपैथी लॉबी के निराधार कथनों को सिरे से नकारने के लिए पर्याप्‍त है। और क्योंकि, यह समूचा ‘सिरडी’ प्रयोग एक दिन, एक व्यक्‍ति या एक गाँव तक सीमित नहीं था; इसलिए, महज संयोग कह कर इसे आसानी से नहीं उड़ाया जा सकता है। बहिरम का उपरोक्‍त प्रयोग अनेक सालों की सतत् निगरानी और क्षेत्र के अलग-अलग विकास-खण्डों के परस्पर दूरस्थ गाँवों के चार अलग-अलग समूहों में की गयी बेहतर समाज-सेवा पर आधारित है। फिर भी, यदि आईएमए स्वयं या फिर उसके उपर्युक्‍त दृष्‍टि-कोण से सहमति रखने वाला कोई भी जिम्मे-दार संगठन होमिअपैथी की इस निर्विवाद क्षमता को, एक बार फिर से, परखना चाहता है तो वह किये जाने वाले प्रयोग के समस्त जायज-व्यवहारिक खर्चों को पूरी तरह वहन करने को तैयार रहे। मैं मानता हूँ कि उसकी चुनौती पर, केवल व्यापक समाज-हित में और आने वाले परिणामों को बिना हीला-हवाला किये सार्वजनिक रूप से स्वीकार किये जाने की खुली शर्त पर, उल्लिखित स्वयंसेवी संस्था अथवा उसके इस प्रयोग से जुड़े होमिअपैथी के चिकित्सा-परामर्शदाताओं को ‘सिरडी-प्रयोग’ को वर्णित क्षेत्र से बाहर कहीं भी दुहरा कर दिखलाने में कोई हिचक नहीं होगी।

बैतूल में, मलेरिया के व्यापक प्रकोप के बीच राहत देती बहिरम की छोटी सी उस सामाजिक प्रयोग-शाला की उपेक्षित कर दी गयी घटना की चर्चा के परि-प्रेक्ष्य में आदम-जात के स्वास्थ्य को औषधियों से ही होने वाले गम्भीर नुकसानों की बढ़ रही खबरें, बिना किसी सन्‍देह के, इस धारणा की पुष्‍टि करती हैं कि लोक-स्वास्थ्य में होमिअपैथी की महती भूमिका की उपेक्षा, धीरे-धीरे, कितनी मँहगी पड़ रही है; कि घेंघे के इलाज के नाम पर प्रति-दिन खाये जाने वाले नमक को गैर जरूरी दवा का पिटारा बनाने में हुयी गलती इस परि-प्रेक्ष्य में जितनी जल्दी सुधार ली जाये, इस देश का सम्‍भावित नुकसान उतना ही कम होगा।

पश्‍चिमी जगत्‌ की एक कहावत है जिसका तात्पर्य है कि पकवान्न के स्वाद का प्रमाण उसके चखने में होता है। अर्थात्‌, भौतिक रूप से जो हो चुका है, उसके ‘होने’ पर कभी कोई सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता। कदाचित्, ‘वह हुआ आखिर कैसे?’ की तर्ज पर बहस अवश्य छेड़ी जा सकती है। लेकिन, इस बहस का यदि कोई सार्थक निष्कर्ष नहीं निकले तो, केवल इसी आधार पर, घटना के होने पर ही सवाल चस्पा करना वैज्ञानिकता कतई नहीं है। यह तो, अधिक से अधिक, केवल समझ न सकने (या फिर बहुत हुआ तो समझा नहीं सकने) वाले की समझ और योग्यता पर सवालिया निशान लगा सकता है।

यद्यपि, यह भी सच है कि अपनी सैद्धान्तिक श्रेष्‍ठता और तमाम व्यवहारिक सफलताओं के बा-वजूद होमिअपैथी की बड़ी समस्या यह है कि उसके विज्ञान को समझने-समझाने वालों की स्पष्‍ट कमी तो है ही; अभी तक न तो इस विज्ञान को कसने लायक कसौटी बनी है और न ही, आशातीत सफलताओं के बावजूद, आधुनिक विज्ञान इस कसौटी की जरूरतों को रेखांकित करने लायक समझ का विकास ही कर पाया है। लेकिन यह तो, किसी न किसी बिन्दु पर, समूचे ज्ञान-जगत पर ही लागू होने वाला शाश्‍वत्‌ सत्य है। ज्ञान-यात्रा में ज्ञानी होते जाने का एक अर्थ यह भी है कि, इस तरह व्यक्‍ति को समझ पड़ता जाता है कि वह तब तक यथार्थत: कितना अज्ञानी हुआ करता था! नि:सन्‍देह, ज्ञान-अर्जन की यह प्रक्रिया सदैव से यों ही कायम रहती आयी है। कभी पूर्ण नहीं होने के लिए। इसकी पूर्णता का दावा अपने आप में घोर अज्ञान का ही ध्वज-वाहक है।

दूसरे शब्दों में, एलोपैथी के प्रचारक-समर्थक वैज्ञानिक प्रामाणिकता की कमी का, अपना ही गढ़ा, जो आरोप होमिअपैथी की चिकित्सा पद्धति पर थोपते हैं, वही आरोप स्वयं उनकी अपनी ही चिकित्सा-पद्धति पर भी लागू होता है। बल्कि, कहीं अधिक ठोस आधारों पर। और वह भी, अधिक मजबूती से! इस पर सार्वजनिक बहस के लिए मंच भी खुले हुए हैं। कमी है यह कि वक्‍तव्यों द्वारा महज आरोप उछालने के लिए ही आरोप उछालने वाले, ठोस और तार्किक बहस का सामना करने से सदैव कतराते रहे हैं।

उदाहरण के लिए, हालाँकि होमिअपैथी में घेंघे के सफल इलाज के लिये अनेक प्रमाणिक औषधियाँ हैं लेकिन आहार में आयोडीन की कमी को ही इसका इकलौता कारण बतलाने और लगभग एक अरब आबादी को, उसके सीधे गैर जरूरी उपयोग को, विवश करने के लिये उसे सादे नमक में मिलवाने का षडयन्त्र रचने वाले व्यवसाइयों-विज्ञानियों से (और उसमें बढ़-चढ़कर भागीदारी करने वाले एलोपैथी चिकित्सकों से भी) यदि एक सीधा सा सवाल किया जाये तो बँधने वाली उनकी घिग्घी देखने लायक होती है। वह सवाल यह है कि, उनकी इसी धारणा को आधार मान कर एकदम सूखी और कड़ा मल करने वालों को ढेरों पानी पिलाने, या कि पानी जैसे पतले दस्त जाने वालों को पानी देना एकदम बन्द कर देने, से क्या उनकी तबीयत ठीक हो जायेगी? क्योंकि, जिस तरह के तर्कों पर होमिअपैथी की प्रभाव-शीलता और उसके विज्ञान पर छींटा-कशी की जाती है, इण्डियन मेडिकल एसोशिएशन के, और उसके जैसा सोच रखने वालों के, ‘वैज्ञानिक’ मानकों के अधार पर तो ऐसा हो ही जाना चाहिए!

कहने वाले कह सकते हैं कि, सरसरी निगाह में ही इस सवाल का कुतर्क दिख जाता है। और, यह सच भी है। लेकिन, तब क्या वे इस सवाल का जवाब देंगे कि उनका यही पैमाना ‘आयोडीन-युक्‍त नमक खाने को मजबूर करने वाले’ उनके अपने सोच और उसके समर्थन में बने दोष-पूर्ण कानून पर भी क्यों नहीं लागू होता है? क्योंकि, तथा-कथित वैज्ञानिकता के नाम पर दोहरे मान-दण्डों के लागू करने को सभ्य समाज कभी भी मान्यता नहीं देगा; इसलिए आईएमए, और उसके जैसा सोच रखने वालों, को यह मानना ही होगा कि खोट होमिअपैथी में नहीं बल्कि, स्वयं उनकी अपनी ही सोच में है। यह सत्य लौट-लौटकर उजागर होता आया है। और, मजा यह है कि इसको उजागर करने में उनकी अपनी ही बिरादरी ने बढ़-चढ़कर भागी-दारी की है। यह दीगर बात है कि, इन दोषों को वे पहले से ही जानते रहे थे लेकिन उन्होंने उसे उजागर तभी किया जब ऐसा करने के उनके अपने आर्थिक-व्यावसायिक हित सर्वश्रेष्‍ठ हो सकते थे। यहाँ नीचे, इसका सबसे ताजा उदाहरण है —

इन्क्लेन नाम के एक अन्‍तर्राष्‍ट्रीय संगठन की भारतीय शाखा द्वारा तैयार की गयी एक ताजा रपट के हवाले से कहा गया है कि, भारत में लगाये जाने वाले दो-तिहाई इंजेक्शन खतरनाक रूप से अ-सुरक्षित होते हैं। खबरों के माध्यम से कहा जा रहा है कि, इंजेक्शन के दुष्परिणाम खास तौर पर भारत के लिए अधिक खतरनाक इसलिए हैं कि यहाँ औसतन प्रत्येक व्यक्‍ति को साल भर में, कम से कम, तीन इंजेक्शन तो लगाये ही जाते हैं। रपट के अनुसार सबसे अधिक इंजेक्शन (औसतन 5.8) तो एक वर्ष से कम की नाजुक उम्र में लगाये जाते हैं। चेतावनी के सुर में कहा गया है कि ‘सुई’ के इस तरह के अन्‍धा-धुन्ध प्रचलन से भारत में हैपेटाइटिस-बी से संक्रमण के 20 लाख, हैपेटाइटिस-सी से संक्रमण के 4 लाख और एचआईवी से संक्रमण के 30 हजार नये मामले प्रति वर्ष होने की प्रबल सम्‍भावना है!

निश्‍चय ही, यदि सचाई लिये हुए है तो, यह रपट गम्‍भीर चिन्ता देने वाली है। और इसलिए वह, उसमें उठाये गये सभी मुद्दों पर, समुचित समीक्षा की माँग की हक-दार भी है। फिर भी, इससे अच-कचा कर चिन्ता का कोई तूफान खड़ा करने से पहले यहाँ इन दो विशेष बिन्दुओं पर भी खास तौर पर ध्यान दिया जाना चाहिए (1) आम तौर पर स्थानीय परिस्थितियाँ, इंजेक्शन में प्रयुक्‍त विभिन्न हिस्सों-पुर्जों की गुण-वत्ता और उनको लगाने-लगवाने वाले भी भारतीय सन्‍दर्भ में, वर्षों से, कमो-बेस अ-परिवर्तित रहे हैं और (2) रपट विश्‍व बैंक द्वारा प्रायोजित है। इन दोनों ही बिन्दुओं का समग्रित विश्‍लेषण यह संकेत करने के लिए पर्याप्‍त है कि, भले ही रपट में व्यक्‍त विभिन्न कथनों में सचाई हो, उसके इस तरह सामने लाये जाने के पीछे मूलत: वैश्‍विक आर्थिक हित ही निहित हैं। कि, हो सकता है कि यह किसी जाने-परखे कुएँ से निकालने के नाम पर, उससे भी गहरी, किसी अन-जानी खाई में ढकेलने की अन्‍तर्राष्‍ट्रीय आर्थिक बिरादरी की कोई नयी व्यावसायिक चाल हो।

उपर्युक्‍त शंका बिल्कुल निर्मूल भी नहीं है। लेकिन, आगे कुछ भी निष्कर्ष निकालने से पहले भारतीय दवा बाजार की वह ताजी जानकारी हासिल कर लेना अ-संगत नहीं होगा जो बताती है कि एक दवा-उत्पादक कम्पनी की औरंगाबाद स्थित हैपिटाइटिस-बी टीका-उत्पादक इकाई को विश्‍व स्वास्थ्य संगठन का उत्तम गुणवत्ता प्रमाण-पत्र मिल गया है। और, इस आधार पर अब वह इस टीके की बच्चों को लगाने योग्य लगभग दस करोड़ खुराकें बनाने की योजना बना रही है। हैनिमेन और उनकी चिकित्सा-धारणा को अपना आदर्श मानने वाले भारतीयों के लिए यह एक चिन्ता में डालने वाली बात है। यह चिन्ता अधिक गहरी इसलिए हो जाती है कि छन कर आ रही खबरों के अनुसार केन्द्रीय सरकार जल्दी ही हैपिटाइटिस-बी टीकाकरण को भी अपने अनिवार्य प्रति-रक्षण कार्यक्रम में शामिल करने वाली है। इसी बिन्दु पर, यह उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि, बीते सालों में, यह देश हैपिटाइटिस का हौआ खड़ा करके टीकों को खपाने की वैयक्‍तिक क्षमता के अनुसार चिकित्सकों को फ्रिज अथवा कार या उतनी ही कीमत की राशि नगद अथवा सोने की शक्ल में देने की; दवा कम्पनियों की खुली पहल और उसके नतीजों के एक विशुद्ध व्यावसायिक दौर का मूक गवाह रह चुका है।

हालाँकि अतीत में, महज एक छोटे से संयोग ने ऐसे कार्यक्रमों की पोल, सार्वजनिक रूप से, खोल कर रख दी थी। प्रतिरक्षण-कार्यक्रमों और रोग-उन्मूलन में मिली ‘सफलताओं’ और व्यक्‍ति की स्वास्थ्य-सुरक्षा की ‘गारण्टी’ के बढ़े-चढ़े दावों के बीच, तब, लादेन के फैलाये एक छोटे से शिगूफे ने सहज, लेकिन बड़ा ही आधारभूत, सवाल खड़ा कर दिया था। अमेरिका जैसे ‘उन्नत’ देशों के नागरिक जहाँ एक ओर, एन्थ्रेक्स जैसे विषाणुओं से लड़ने की निजी रोग-प्रतिरोध क्षमता खो चुके हैं; वहीं दूसरी ओर, महज रोग-मुक्‍त हो जाने के भरोसे के चलते, इन देशों में इनके दुष्प्रभावों से लड़ने के पर्याप्‍त साधन भी अब उपलब्ध नहीं हैं।

सरल शब्दों में, न तो, ऐलोपैथी की स्वयं-भू वैज्ञानिकता की चकाचौंध में रोग-प्रतिरक्षण और रोग-उन्मूलन दोनों ही की नीयत और नियति पर अपनी पूरी सुर्खी के साथ चस्पा अनेक सवालिया निशानों की अनदेखी की जा सकती है; और ना ही, खुली ऑंखों दिखाई देने वाले होमिअपैथी के परिणामों को इसी तथाकथित वैज्ञानिकता के नाम पर झुठलाया जा सकता है। फिर भी, यदि आईएमए जैसा नजरिया रखने वाले अपनी कम-तर समझ का ठीकरा होमिअपैथी के सिर फोड़ रहे हैं तो, यह दोहरे मान-दण्डों के सहारे दुनिया को हँकालने की उनकी मानसिकता का ही द्योतक है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.