डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.
गाँव का निवासी जब शहर को पलायन करता है तब अपने साथ केवल श्रम की, और यदि वह कुशल है तो अपनी निजी कुशलता की भी, सौगात ले जाता है। उसका गाँव उसके पीछे ही छूट जाता है। लेकिन जब शहरी व्यक्ति गाँव की ओर कदम बढ़ाता है तब वह अपनी सहायता के लिए शहर को भी साथ लेता आता है। और फिर, धीरे-धीरे, यही शहर गाँवों पर अपना आधिपत्य जमा लेता है।
आर्थिक विकास के भूत ने आज इतनी गहराई से अपनी पैठ बना ली है कि पूरा देश ढेरों धुरियों में बँट गया है। सक्षम व्यक्ति नित नये ऐसे उत्पाद और उनके खपत-क्षेत्र ढूँढ़ता मिल रहा है जिनसे वह मन-चाही कमाई कर सके। ऐसी कमाई, जिसके सहारे वह दूरस्थ हो रहे उन सभी भौतिक-वादी उत्पादों को खरीद सके जिन्हें उसने अपनी आधार-भूत आवश्यकता मान लिया है। अचरज होता है कि समग्र समाज की हमारी आधार-भूत पूँजी बट्टे-खाते में चली गयी है। स्वयं को अर्थ-शास्त्री स्थापित करने में जुटा लगभग प्रत्येक व्यक्ति केवल भौतिक-वादी दुनिया में खपाये जा सकने वाले उत्पादों की वकालत करता मिलता है।
एक सीधा नुकसान यह हुआ है कि कृषि जैसा सामाजिक दायित्व भी अब स्वयं को उद्योग कहलाने के अधिकार की लड़ाई के लिए एक-जुट होने को उद्यत है। मेरी दृष्टि में दायित्व और उद्योग के बीच अन्तर करने को ‘स्वयं को देश-हित की बलि चढ़ाने जैसी गहरी खाई में ढकेलना नहीं’ बल्कि ‘अपनी निजी आजीविका को प्राथमिकता देते हुए भी अनुशासन की अति महत्व-पूर्ण विभाजन रेखा खींचना’ भर मानना चाहिए। दायित्व का निर्वाह करते हुए उद्योग में विकसित होना कोई दोष नहीं है। ऐसा करते हुए खेतिहर पर्यावरण मूलत: अपरिवर्तित ही रहता है। लेकिन कृषि-भूमि को उद्योग-स्थली बना देने की होड़ इतनी निर्दोष नहीं है क्योंकि तब उद्योग को सुविधा-जनक और लाभ-दायी बनाने के लिए खेतिहर पर्यावरण से हर सम्भव समझौता कर लिया जायेगा। वह भी बिना किसी हिचक के।
दुर्भाग्य से, आज शहर गाँवों में सेंध लगा रहे हैं। जमीनी सचाई तो यह है कि वे गाँवों को खा रहे हैं। वह भी अकल्पनीय तेजी से। गाँवों को शहरों द्वारा किया जा रहा अपना यह भक्षण रोकना होगा। हर हालत में। कृषक समाज को समझना ही होगा कि त्वरित लाभ एक-मुश्त बटोर लेने की स्वाभाविक दोषी प्रवृत्ति उसे, देर-सबेर, चारित्रिक क्षुद्रता की ओर ही धकेलेगी। शहरी हो अथवा ग्रामीण, दोनों ही जीवनों को जी रहे व्यक्तियों को ध्यान में रखना होगा कि ये वे दो भिन्न धाराएँ हैं जिनमें चिर-स्थायी सन्तुलित सामञ्जस्य तो बनाये रखा जा सकता है किन्तु इन्हें एक-दूसरे में समाहित नहीं किया जाना चाहिए। इनको परस्पर समाहित करने के परिणाम भयावह होंगे। स्पष्ट है, शहरीकरण की एक लक्षमण-रेखा खींची ही जानी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे जल-भरण के प्राकृतिक क्षेत्रों और उनसे बाहर की भूमि के बीच एक विभाजन-रेखा खिंची होती है। प्राकृतिक अनुशासन की यह विभाजन-रेखा निरन्तर चेतावनी देती है कि यदि दोनों के अस्तित्व को बचाये रखना है तो वह कदापि लाँघी नहीं जाए।
दरअसल, दोहरी भूमिका और दोहरे चरित्र के बीच के जमीन-आसमान अन्तर को समझना होगा। अर्थात्, प्रकारान्तर से, इस कड़वी सचाई को समझना होगा कि सम्पन्नता को पा कर शहरों में मजे लूट रहा व्यक्ति, फिर भले ही वह कृषक जगत् से भी जुड़ा हुआ क्यों न हो, अपनी वैयक्तिक सुविधा के लिए शहर को गाँव के भीतर तक भेदने का प्रयास करता है। सम्भव है, वह ऐसा इसलिए करता हो कि शहर में रहते हुए भी गाँव की अपनी भूमिका को निभा सके। लेकिन, यह उसकी ऐसी सोच-गत् चूक है जो उसमें इसलिए उपजी होती है कि उसने अपनी आँखों पर शहरी उपभोग-वाद की मोटी काली पट्टी बाँध रखी है। इस अवस्था का शिकार होने से वह यह विस्मरण कर बैठता है कि शहर और गाँव उससे दो अलग-अलग भूमिकाओं की अपेक्षा करते हैं। गाँव से शहर जाने और फिर वहीं से गाँव में अपनी भूमिका को भी ‘पूरा करने’ के प्रयास में वह, अन-जाने में ही सही, दोहरे चरित्र का शिकार हो जाता है।
गाँव का निवासी जब शहर को पलायन करता है तब अपने साथ केवल श्रम की, और यदि वह कुशल है तो अपनी निजी कुशलता की भी, सौगात ले जाता है। उसका गाँव उसके पीछे ही छूट जाता है। लेकिन जब शहरी व्यक्ति गाँव की ओर कदम बढ़ाता है तब वह अपनी सहायता के लिए शहर को भी साथ लेता आता है। और फिर, धीरे-धीरे, यही शहर गाँवों पर अपना आधिपत्य जमा लेता है।
भारतीय कृषि, निकट अतीत तक, खेतिहर उत्पाद की रूखी प्रक्रिया-मात्र नहीं थी। वह तो कृषक जगत् के वृहद् दर्शन का अंग रही है। कृषक जगत् वाले भारतीय ढाँचे में केवल कृषि-भूमि ही इकलौता घटक नहीं हुआ करती थी। अपितु कृषि-कर्म के छोटे-बड़े पहलू से जुड़ा प्रत्येक घटक भी उसका भुलाया नहीं जाने वाला अंग हुआ करता था। तब क्षेत्रीय आत्म-निर्भरता प्राथमिक होती थी। प्रकारान्तर से, कृषि-भूमि के स्वामी के नफे-नुकसान में ऐसे प्रत्येक घटक की प्रत्यक्ष-परोक्ष भागीदारी हुआ करती थी। तब उस वैयक्तिक संकीर्णता के उदाहरण बहुत कम देखने में आते थे जो आज देशज सामाजिक स्वीकार्यता की सारी सीमाएँ लाँघ चुके हैं। किन्तु अब इसे औद्योगिक उत्पाद की पूँजी-गत् संकीर्ण सी धुरी के चौगिर्द लाने के प्रयास हो रहे हैं।
गैर-कृषक क्षेत्र को केन्द्र में रख कर विकसित हो रहे समाज के हितों को प्रमुखता देते उद्योग-आधारित आयातित आर्थिक दर्शन ने समग्र समाज के भारतीय सोच को तार-तार कर दिया है। प्रतिद्वन्द्विता सुनने में एक बहुत अच्छे शब्द का आभास देता है। शायद हो भी। लेकिन इसके पीछे जब, बुरी नीयत से भरा-पूरा प्रचार-तन्त्र, एक-जुट हो कर चलता है तब एक सुखी और सम्पन्न आत्म-निर्भर समाज की गति वही हो जाती है जो आज भारतीय समाज की हो गयी है। क्योंकि जब प्रतिद्वन्द्विता में एक-दूसरे को पछाड़ देने की हुलस जागती है तब उसके अनियन्त्रित होने का जोखिम भी अपने आप आ खड़ा होता है। इस जोखिम के विस्तार को रोक पाना किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं होता। किसानों के बीच निरन्तर बढ़ती जा रही आत्म-हत्या की प्रवृत्ति इसी का तो परिणाम है।
पूछने वाले यह पूछ सकते हैं कि क्या इसका तात्पर्य यह है कि कृषक जगत्, या कहें कि समूचा ग्रामीण जगत्, पिछड़े-पन को ही भोगने को अभिशप्त रहे? कदापि नहीं। शहर और गाँव केवल दो प्रवृत्तियाँ भर नहीं हैं। दरअसल, ये रहन-सहन की उपलब्ध सुविधाओं के ऐसे दो भिन्न प्रकारों के भी प्रतीक हैं जिनके बीच की खाई खासी चौड़ी होती है। इस पर दो मत नहीं होने चाहिए कि रहन-सहन की शहरी सुविधाएँ सभ्य समाज की ऐसी आधार-भूत मानवीय आवश्यकताएँ भी हैं जिन पर किसी व्यक्ति-विशेष अथवा गुट-विशेष का एकाधिकार स्वीकार्य नहीं है। अर्थात्, गाँव भी उनके बराबरी के अधिकारी हैं। वहीं, यह सावधानी भी रखी ही जानी चाहिए कि दैनिक गति-विधियों और क्रिया-कलापों में इन दोनों के बीच जमीन-आसमान का अन्तर है। अपनी-अपनी भागीदारियों की भिन्नता के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी है। लेकिन भागीदारी की इस भिन्नता को आधार बता कर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के निवासियों को मिल पाने वाली सुविधाओं के बीच प्राथमिकता का कोई खड़ा विभाजन कर देना प्रत्येक दृष्टि से अनुचित होगा।
यहाँ यह समझा जा सकता है कि अधो-रचना के विकास में अतीत में हुए खोट के कारण गाँव के स्तर पर, तत्काल, वे सारी सुविधाएँ प्रत्येक निवासी की देहरी तक नहीं पहुँचाई जा सकती हैं जो शहरों की विशेषता बन चुकी हैं। लेकिन जहाँ इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि इसकी आड़ लेते हुए ग्रामीण हालातों को सदा के लिए यों ही उपेक्षित छोड़ दिया जाए; वहीं सुधार या कि विकास के नाम पर गाँवों को ऐसे विकृत और दूसरी श्रेणी के शहरों में बदल कर रख देने की मंशा पर पानी फेरने की सावधानी रखना भी आवश्यक होगा जो केवल पहले से विकसित हो चुके शहरों के उप-भोग के माध्यम भर बन कर रह जाएँ। सरल शब्दों में, गाँवों का चँहु-मुखी संरचनात्मक विकास तो हो लेकिन वे अपना मूल चारित्रिक ढाँचा न खो दें।
तमाम विकास में गाँव और ग्राम-समूह की स्वयं अपनी ही आत्म-निर्भरता इसका एक-मात्र उपाय है। योजना-बद्ध रूप से, और अपनी-अपनी स्थानीय प्राथमिकता के आधार पर भी, यह सुनिश्चित करना होगा कि ऊर्जा की आवश्यकता-पूर्ति से लगा कर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तक, खेती के लिए आवश्यक बीज, खाद और पानी जैसे प्रत्येक छोटे-बड़े साधन से लगा कर उत्पादन के सुचारु भण्डारण तक, यहाँ तक कि शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य-सुविधा तक भी, हर छोटी-बड़ी बात के लिए गाँव को शहर का मुँह नहीं ताकना पड़े। सारा कुछ इस खूबी से किया जाना चाहिए कि सारे सामाजिक और व्यावसायिक दायित्व किसी एक अति-विशाल ढाँचे के स्थान पर छोटी और आत्म-निर्भर स्थानीय संरचनाओं में बँटे हुए हों। यह शहरों से विद्रोह नहीं है। लेकिन शहरी बाजार से प्रति-स्पर्धा अवश्य है। वह भी अपने गाँव में रहते हुए। शासन से न्यूनतम् क्रय-मूल्य की भीख माँगने के स्थान पर अपने प्रत्येक उत्पाद की बिक्री और उसके स्वीकार्य विक्रय-मूल्य की नीति स्वयं ग्रामीण उत्पादक ही निर्धारित करे। कृषि-उत्पाद के बाजार पर शहरी बिचौलिए का नहीं बल्कि स्वयं उत्पादक का ही सीधा नियन्त्रण हो। और, इस प्रति-स्पर्धा में लेश-मात्र भी दोष नहीं है। इसके उलट, यह दो-तरफ़ा प्रवाह का ऐसा श्रेष्ठ उदाहरण बनेगा जिसकी पीठ थप-थपायी जा सके। हाँ, यह अवश्य है कि ऐसा एक-बारगी हो पाना सम्भव नहीं होगा। लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि यह कतई असम्भव लक्ष्य है। वहीं इस प्रयोग की निश्चित सफलता के लिए यह सावधानी रखना प्राथमिक शर्त होगी कि इस सारी अधो-रचना का विकास स्वयं कृषक बिरादरी ही करे। वह भी किसी विशाल एकीकृत व्यवस्था के रूप में नहीं बल्कि ग्राम अथवा छोटे-छोटे ग्राम-समूहों के स्तर पर ही, विकेन्द्रीकृत और पूरी तरह से आत्म-निर्भर रूप में।
इसमें दो राय नहीं कि समग्र ग्रामीण संरचना उन अनेक तन्तुओं से बनती है जो शहरी संरचना से अनेक स्तर पर कतई भिन्न होते हैं। गाँव के ऐसे प्रत्येक तन्तु का संरक्षण, और समुचित विकास भी, करना होगा। कृषक बिरादरी में बहस इसी पर छेड़ी जानी चाहिए कि, स्थानीय परिस्थितियों के अन्तर से, यह कैसे होगा? हर उस सम्भव विकल्प का मूल्यांकन करना होगा जो कृषक समाज को चारित्रिक रूप तो कृषक ही बनाये रखे किन्तु अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति में शहरियों की इतनी बराबरी पर खड़ा रखे जिससे वह अपनी पुश्तैनी जड़ों को, किसी भी स्थिति में, नहीं छोड़ने पर अडिग रहे।