मंगलवार २ अप्रैल को गुजरात विधान सभा ने गुजरात लोकायुक्त आयोग अधिनियम, 2013 पारित कर दिया। अधिनियम को पारित करने की समूची प्रक्रिया का उल्लेखनीय पक्ष यह रहा कि जहाँ मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने अधिनियम के किन्हीं सम्भावित दोषों का बिन्दु-वार खुलासा करने के स्थान पर विरोध-प्रदर्शन के लिए सदन से बहिर्गमन का घिसा-पिटा राजनैतिक तीर चलाया वहीं अधिनियम के पारित होने के बाद नरेन्द्र मोदी के विरोध की शपथ खा चुके प्रचार-प्रसार तन्त्र ने अधिनियम को जी भर कर कोसा। किन्तु ‘जान-कारों’ द्वारा मचाया गया सारा शोर-गुल प्याली का तूफ़ान हो कर रह गया। सारा उबाल उँगली पर गिने जा सकने वाले घण्टों में ही ‘मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त’ वाले भाव में ठण्डा पड़ गया। अप-शब्दों में महारत वाले इक्का-दुक्का व्यक्तियों को छोड़ दें तो एक भी राज-नेता ने, अभी तक, गुजरात लोकायुक्त आयोग अधिनियम, 2013 पर ऐसी टिप्पणी नहीं की है जो तथ्य-परक और तार्किक हो। सब दूर जैसे शाश्वत् सन्नाटा छा चुका है।
यों, कम समझ वाले भाजपाई दावा कर सकते हैं कि मोदी के भूत ने विरोधियों को साँप सुँघा दिया है जबकि सचाई यह है कि मोदी की इस दूर-गामी राजनैतिक चाल ने कांग्रेस से सहानुभूति रखने वालों के आसरे केन्द्रीय सत्ता पूरी तरह से हथियाने को आतुर तत्वों को इसलिए चारों खाने चित्त कर दिया है क्योंकि भारतीय राजनीति में विवेक-शील चिन्तन के स्थान पर बचाव की शुतुरमुर्गी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। नरेन्द्र मोदी के लिखे इस नये अध्याय का मजा यह है कि इसके सदमे से बाहर आने पर भी शुतुरमुर्गी राज-नेता केवल लाचार रहने को ही अभिशप्त रहेंगे। अब राज्यपाल ही उनके अन्तिम आसरे हैं। यद्यपि उनके बारे में यह कहना ही अधिक सुरक्षित होगा कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति के विवाद पर अपील क्र० 8814/12 और 8815/12 में 2 जनवरी 2013 को पारित हुए अन्तिम निर्णय के बाद अब उनका विवेक उन्हें इसके लिए तत्पर होने से रोकेगा कि वे अध्यादेश को वापस करने जैसा कोई कदम उठायें। क्योंकि उनका ऐसा कोई भी कदम न केवल राजनैतिक झंझावात खड़ा करेगा बल्कि ऐसा होने पर उनके विरोध में किसी गम्भीर न्यायिक टिप्पणी के आने की भी सम्भावना रहेगी। अतीत में इससे बाल-बाल बची कमला बेनीवाल ऐसे जोखिम को न्यौतने से निश्चय ही कतरायेंगी।
दरअसल, अपने इस अध्याय की पट-कथा मोदी ने उसी पल लिखनी आरम्भ कर दी थी जब देश के सबसे बड़े न्याय-मन्दिर ने न्याय-मूर्ति मेहता को राज्य का लोकायुक्त नियुक्त करने के राज्यपाल के, आरोपित रूप से एक-पक्षीय, निर्णय पर गुजरात सरकार की अपील को निराकृत किया था। अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने मोदी सरकार के दृष्टि-कोण को कितना असंगत् और राज्यपाल कमला बेनीवाल के आदेश को कितना त्रुटि-हीन समझा था इसे स्वयं न्यायालयीन निष्कर्ष के निम्न अंश से परखा जा सकता है —
(1) प्रकरण के तथ्यों ने परिस्थितियों के इस अत्यन्त दु:खद पक्ष को उजागर किया है कि गुजरात राज्य में लोकायुक्त का पद विगत् नौ वर्षों से अधिक समय से तब से रिक्त पड़ा हुआ है जब 24 नवम्बर 2003 को माननीय न्यायाधीश एस एम सोनी ने इस पद से त्याग-पत्र दिया था। तब से लोकायुक्त की नियुक्ति के कुछ आधे-अधूरे प्रयास किये गये थे लेकिन किसी न किसी कारण से उसे भरा नहीं जा सका। वर्तमान राज्यपाल ने अपनी भूमिका का त्रुटि-पूर्ण मूल्यांकन किया और इस बात पर जोर दिया कि 1986 के अधिनियम के अन्तर्गत् लोकायुक्त की नियुक्ति में मन्त्रि-परिषद् की कोई भूमिका नहीं है, और इसलिए, वे गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा नेता प्रति-पक्ष के साथ विमर्श कर इसे भर सकती हैं। (राज्यपाल का) यह दृष्टि-कोण सरकार (शासन) की उस लोक-तान्त्रिक प्रणाली के अनुरूप और उससे सामंजस्य रखने वाली नहीं है जिसकी कल्पना हमारे संविधान में की गयी है। हमारे संविधान में सुनियोजित व्यवस्था के अन्तर्गत् राज्यपाल राज्य सरकार का समानार्थक है और वह अपने निजी विवेकाधिकार से केवल तभी कोई स्वतन्त्र निर्णय ले सकता है जब वह किसी अधिनियम-विशेष या संविधान में प्रदत्त किसी अपवाद के अन्तर्गत् किसी वैधानिक प्राधिकारी के रूप में कार्य कर रहा हो। अत: राज्यपाल लोकायुक्त की नियुक्ति राज्य-प्रमुख के नाते केवल मन्त्रि-परिषद् के सहयोग व सलाह से ही कर सकता है, स्वतन्त्र रूप से किसी परम-संवैधानिक प्राधिकारी के नाते नहीं।
(2) राज्यपाल ने कानूनी राय के लिए भारत सरकार के महाधिवक्ता से विचार-विमर्श किया और, मन्त्रि-परिषद् को विश्वास में लिये बिना, गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सीधे संवाद किया। इस सन्दर्भ में राज्यपाल को इस सीमा तक अनैतिक सलाह दी गयी कि उन्हें राज्य-प्रमुख के रूप में नहीं बल्कि परम-संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में कार्य करना है। चाहे जो हो, वर्तमान प्रकरण के तथ्यों एवं परिस्थितियों के आलोक में यह स्पष्ट है कि मुख्य मन्त्री को पूरी जानकारी थी और उन्हें मुख्य न्यायाधीश की ओर से प्रेषित सभी सूचनाएँ प्राप्त हुई थीं। इस तरह के मामलों में मुख्य न्यायाधीश के मत को ही सर्वोपरि माना जाना चाहिए और मुख्य न्यायाधीश के मत को प्रभाव-शाली तथा सुस्पष्ट कारणों से ही अन-देखा किया जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश द्वारा एकाधिक नामों के पैनल के स्थान पर केवल एक नाम की अनुशंसा का किया जाना इस न्यायालय द्वारा प्रति-पादित कानून के अनुरूप है और हमें ऐसा कोई प्रभाव-शाली और सुस्पष्ट कारण नहीं मिलता है जिससे उक्त अनुशंसा को अमान्य किया जाये।
(3) मुख्य मन्त्री द्वारा उठाई गयी आपत्तियों पर मुख्य न्यायाधीश ने, और इस न्यायालय ने भी, पूरा ध्यान दिया और पूरे सावधानी-पूर्ण विचार के बाद बनी हमारी राय यह है कि उनमें से एक भी इस सीमा तक धार्य नहीं है कि उसे लोकायुक्त के पद के लिए सुझाये गये उत्तर-दाता क्र० 1 (सेवा-निवृत्त न्यायमूर्ति माननीय आर ए मेहता) के नाम को अमान्य करने के लिए प्रभाव-शाली और सुस्पष्ट कारण ठहराया जा सके।
(4) लोकायुक्त के पूर्वाग्रह अथवा उसकी पूर्व-आधारित धारणाओं से निबटने के लिए अधिनियम में ही पर्याप्त रक्षा-कवच हैं और, जहाँ तक लोकायुक्त नियुक्त किये जाने वाले व्यक्ति की उपयुक्तता का प्रश्न है, उसे किसी व्यक्ति-विशेष के नहीं बल्कि जन-सामान्य के हितों को देखते हुए परखा जाना चाहिए। यहाँ ऊपर वर्णित तथ्य यह स्पष्ट करते हैं कि परामर्श की प्रक्रिया पूर्ण थी, और ऐसी दशा में उत्तर-दाता क्र० १ की नियुक्ति को अवैधानिक नहीं ठहराया जा सकता है।”
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित अन्तिम आदेश में विहित निष्कर्ष के उपर्युक्त अंश से ही स्पष्ट है कि मोदी सरकार के पास यह विकल्प, बिना किसी संशय के, उपलब्ध था कि वह उसकी न्यायिक पुनर्समीक्षा की माँग करे। यद्यपि जहाँ पुनर्विचार याचिका न्यायिक रूप से कितनी सार्थक होती, यह प्रश्न अब काल्पनिक हो कर रह गया है वहीं सचाई यह भी है कि भले ही न्यायिक निर्णय मोदी सरकार के पक्ष में आ जाता, इसका राजनैतिक प्रति-फल मोदी सरकार के लिए आत्म-घाती होता। क्योंकि, तब आम मत-दाता तक यह दुष्प्रचार अपनी चरम सीमा के साथ ले जाया जाता कि संविधान या कि कानून की तकनीकी कमजोरियों का मन-चाहा दुरुपयोग करते हुए मोदी सरकार ने न्याय के देश के सबसे बड़े मन्दिर से आये निर्णय तक पर अपनी उँगली उठा दी है! स्पष्ट है कि भीड़ के उस हो-हल्ले में ऐसे समझ-दारों का मिल पाना बहुत कठिन होता जो कोरी भावुकता से उठ कर देख पाते कि न्याय के उसी मन्दिर में राज्यपाल ने भी संविधान या कि कानून की उन तकनीकी कमजोरियों के दोहन का भर-पूर लाभ कमाया है जो संवैधानिक पदों पर आरूढ़ व्यक्तियों के प्रति हमारी अतिरिक्त संवेदन-शीलता को अति विशिष्ट मान देती हैं।
सारा का सारा मोदी-विरोधी खेमा मोदी सरकार की इस द्विविधा को अच्छी तरह से देख पा रहा था, और इसका लाभ उठाते हुए ही, उसने आम जन के बीच मोदी की मन-चाही आलोचना करने में प्रचार और प्रसार के प्रत्येक साधन का भर-पूर दोहन किया। तब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को लहराते हुए ‘मोदी बे-नक़ाब’ और ‘औंधे मुँह गिरे मोदी’ जैसे जुमले भर-पूर गुँजाये गये। लेकिन, यह मोदी की राजनैतिक परिपक्विता ही थी जिसने उन्हें किसी तीखी प्रति-क्रिया से रोके रखा। इसके उलट, गुजरात सरकार की ओर से बिना एक पल गँवाये यह घोषणा कर दी गयी कि वह न्याय-पालिका का पूरा सम्मान करते हुए राज्यपाल द्वारा नामित न्याय-मूर्ति मेहता की लोकायुक्त के पद पर नियुक्ति को बिना कोई विलम्ब किये हरी झण्डी दिखा देगी। उसने ऐसा कर भी दिया।
हाँ, सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय के ठीक तीन माह बाद अब नरेन्द्र मोदी ने अपने राजनैतिक आलोचकों के पैरों के नीचे से उनके इरादों के ताने-बाने से बुना सुविधा-जनक गलीचा एक-बारगी खींच लिया है। सोच-समझ के साथ किये गये मोदी के इस औचक आक्रमण ने उनके राजनैतिक विरोधियों को औंधे मुँह पटक दिया है। वे पुरानी कहावत ‘उगलत-निगलत पीर घनेरी’ का जीवन्त अनुभव कर रहे हैं। गुजरात लोकायुक्त आयोग अधिनियम, 2013 की गुण-दोष पर आधारित कोई भी ईमान-दार समीक्षा उनके लिए घाटे का सौदा सिद्ध हो रही है। प्रशंसनीय होते हुए भी मोदी के किसी कार्य की प्रशंसा नहीं करने की शपथ उठाये बैठे विरोधी जहाँ अधिनियम की अच्छाइयों की ओर इंगित करने को बरका रहे हैं वहीं वे उसमें एक भी ऐसा बिन्दु नहीं ढूँढ़ पा रहे हैं जो आम जन को सन्तुष्ट करा सके कि गुजरात का ताजा अधिनियम सच-मुच ही जन-विरोधी है। प्रचार-प्रसार तन्त्र के घोर उकसावे के बाद भी उनकी बोलती क्यों बन्द है, यह समझने में अधिनियम में किये गये निम्न प्रावधान सहायक होंगे —
- नगर निगमों, नगर पालिकाओं और पंचायतों के सभी पदाधिकारी नये लोकायुक्त अधिनियम के दायरे में रहेंगे;
- शासकीय कम्पनियों, बोर्डों, निगमों, विश्वविद्यालयों और राज्य सरकार में पदस्थ सारे अधिकारी और लोक-सेवक नये लोकायुक्त अधिनियम के दायरे में रहेंगे;
- वे सब लोक-सेवक भी नये लोकायुक्त अधिनियम के दायरे में रहेंगे जो पिछले अधिनियम के दायरे में नहीं लाये गये थे;
- मुख्य मन्त्री सहित सभी मन्त्री नये लोकायुक्त अधिनियम के दायरे में होंगे;
- मुख्य मन्त्री के नेतृत्व में गठित चयन-समिति की अनुशंसा से राज्यपाल द्वारा एक लोकायुक्त के साथ ही अधिकतम् चार उप लोकायुक्तों की नियुक्ति की जा सकेगी;
- लोकायुक्त के पद पर नियुक्ति की पात्रता के लिए सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश अथवा उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायधीश होना आवश्यक होगा;
- उप लोकायुक्त दो श्रेणियों से चुने जायेंगे जो क्रमश: न्यायिक और प्रशानिक होंगी। न्यायिक श्रेणी से उप लोकायुक्त के पद पर नियुक्ति की पात्रता के लिए उच्च न्यायालय में न्यायाधीश जबकि प्रशासनिक श्रेणी से उप लोकायुक्त के पद पर नियुक्ति की पात्रता के लिए प्रशासनिक और अर्ध-न्यायिक अनुभव के साथ भारत सरकार में सचिव या अतिरिक्त सचिव अथवा गुजरात सरकार में मुख्य सचिव या अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद पर रह चुकना आवश्यक होगा। उप लोकायुक्तों में से आधे न्यायिक श्रेणी से और बाकी के आधे प्रशासनिक श्रेणी से होंगे;
- छह सदस्यीय चयन समिति में मुख्य मन्त्री के अतिरिक्त गुजरात विधान सभा अध्यक्ष, मुख्य मन्त्री द्वारा मनोनीत एक मन्त्री, सदन में नेता प्रति-पक्ष, गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा मनोनीत राज्य उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश और राज्य सतर्कता आयुक्त होंगे;
- अधिनियम में एक ऐसी चुनाव समिति के गठन का भी प्रावधान है जो लोकायुक्त आयोग में चयन हेतु चयन समिति के विचारार्थ सुपात्रों की सूची बनाने में मदद करेगी;
- अधिनियम में लोकायुक्त के चयन के बारे में राज्यपाल द्वारा अतीत में, एतद् पुराने अधिनियम को वापस भेजते समय, व्यक्त विचारों को सम्मान दिया गया है;
- लोकायुक्त आयोग राज्य सरकार से विमर्श के बाद किसी भी अधिकारी की सेवाएँ ले सकेगा;
- किसी गम्भीर अवस्था में लोकायुक्त आयोग यह घोषित करने समर्थ होगा कि अमुक-अमुक व्यक्ति की सेवाएँ और आगे नहीं ली जानी चाहिए। उस अवस्था में सम्बन्धित विभाग/प्राधिकरण/अधिकारी को छह महीनों के भीतर एतद् निर्णय लेगा;
- विद्यमान लोकायुक्त की लम्बित प्रक्रियाएँ अथवा उसकी जाँचों के निष्कर्ष उसके अनुगामी लोकायुक्त द्वारा जारी रखी जायेंगी;
- विगत अधिनियम के अनुसार नियुक्त लोकायुक्त अपने पद पर यथा-वत् कायम रहेगा।
स्पष्ट है, कांग्रेसी हों या वाम-पंथी; समाजवादी भी फिर चाहे वे मुलायम पंथी हों, नितीश खेमे से हों या फिर लालू टोले के ही क्यों न हों; मोदी के लोकायुक्त मॉडल को तथ्य और तर्क के धरातल पर चुनौती देने की अपेक्षा हर किसी ने शुतुरमुर्गी चुप्पी को ही बेहतर रण-नीति माना है। लेकिन, सम्भवत: यह भी मोदी की एक सोची-समझी चाल का वह फन्दा है जिसमें हर कोई बुरी तरह से उलझ गया है। केन्द्र और राज्य सरकारों के राजनैतिक मुखिया, अभी तक, स्वयं को सुरक्षित रखते हुए ही लोकपाल और लोकयुक्त के ऐसे प्रावधान सुझा रहे थे जो आम जन को छल सकें। मोदी ने उनकी सम्भावनाएँ निम्नतम् कर दी हैं। आने वाले दिनों में इससे अच्छे किसी विकल्प को परोसना अब उनकी विवशता हो गया है। और इसीलिए, राजनीतिज्ञों की ओर से सारी प्रतिक्रियाएँ तथा-कथित समीक्षा-कारों ने ही दीं। इन ‘समीक्षकों’ को एक सुविधा यह मिली हुई है कि ये मोदी की उस ‘नीयत’ को चाहे जितनी ऊँचाई तक ले जाकर बार-बार लहरा सकते हैं जिसके केन्द्र में केवल एक आक्षेप है कि मोदी स्वयं को बचाने के लिए सारे सूत्र अपने हाथ में ले लेने जैसे नैतिक दुष्कर्म भी पूरी बे-शर्मी से कर जाते हैं! ये समीक्षक ऐसा दु:साहस इसलिए कर जाते हैं क्योंकि अपने ऊपर से बुद्धि और विवेक की निष्पक्षता की, मेहनत से चढ़ायी हुई, कलई के उतर जाने के बाद भी वे घाटे में नहीं होते हैं। राज-नेताओं की बात और है — जनता उन्हें सूद सहित लौटाती जो है।
लोकायुक्त आयोग के अपने प्रारूप में विद्यमान लोकायुक्त के कार्य-काल के साथ ही उसके निर्णयों तथा निष्कर्षों को अभय दे कर मोदी ने जो कमाल की राजनैतिक इच्छा-शक्ति दिखलायी है उसका कोई जवाब नहीं। ऐसा करते हुए अब वे अपने आलोचकों से पूछ सकते हैं कि क्या वे भय-भीत हैं कि आगामी अनेक दशकों तक जनता उन्हें सत्ता के गलियारों से बाहर ही हाँके रखेगी?