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‘....... तब गोबिन्द सिंह नाम कहाऊ’

शमिन्दर सिंह, शाहजहांपुर.

 ‘सवा लाख से एक लड़ाऊँ, चिड़ियों से मैं बाज   तुड़ाऊ - तब गोबिन्द सिंह नाम कहाऊ’
 ‘सवा लाख से एक लड़ाऊँ, चिड़ियों से मैं बाज 
तुड़ाऊ - तब गोबिन्द सिंह नाम कहाऊ’

खचाक की ध्वनि और रक्त की धार...........देखते ही सभा में मानो सन्नाटा छा गया। लोग एक दूसरे का मुंह देखने लगे। यह क्या..? चौथा भी.......... लोग अभी विचार ही कर रहे थे कि दरवेश के वेश में गोबिन्द सिंह हाथ में खून से सनी नंगी तलवार लेकर सभा के बीच बने मंच पर आ गये, सभा सन्न थी। सुई के गिरने की भी आवाज सुनी जा सकती थी, तभी लोगों ने सिंह सी गरजती हुई आवाज सुनी ‘है कोई और जो कौम के लिये अपनी कुर्बानी दे सकता हो’ सभा में शून्य सा सन्नाटा था। तभी बीदर कर्नाटक के रहने वाले नाई जाति के साहिब चंद सिर देने के लिए आगे आए। लोग हैरान थे, हतप्रभ थे कि कहां तो गुरू साहिब मुगलों से मुक्ति दिलाने के लिये हम सब को एकत्रित होने के लिये आनन्दपुर में बुलाया था और कहां वे अब तक पांच लोगों के सिर कलम कर चुके हैं, सभा में शोक सा सन्नाटा था।
साहिब चन्द ने गुरू गोबिन्द सिंह से कहा मैं तैयार हूँ, गुरू जी उसे भी मंच के पास बने एक तम्बू के पंडाल में ले गये। खचाक ....... और फिर रक्त की धार ..... मैदान में इतने लोगों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसरा हुआ था। सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था।
तभी तंबू से गुरु गोबिंदसिंह केसरिया बाना पहने, पांच सिक्ख नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वही थे, जिनके सिर काटने के लिए गुरुदेव उनको तंबू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तंबू में नहीं ले गए थे, बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा, आज से ये पांचों मेरे पंच प्यारे हैं। इनकी निष्ठा और समर्पण से खालसा पंथ का आज जन्म हुआ है। आज से यही तुम्हारे लिए शक्ति का संवाहक बनेंगे।
तभी तो गुरू गोबिन्द सिंह ने कहा ‘सवा लाख से एक लड़ाऊँ, चिड़ियों से मैं बाज तुड़ाऊ - तब गोबिन्द सिंह नाम कहाऊ’
मुगल शासनकाल में जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय गुरु गोविंद सिंह ने बैसाखी पर्व पर आनंदपुर साहिब के विशाल मैदान में लोगों को आमंत्रित किया। मैदान में बड़ा सा पंडाल लगाया गया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। जब मैदान में बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हो गये तब गुरु गोविंदसिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी।
गोविंदसिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है?
यह सुनते ही वहां मौजूद सभी हतप्रभ रह गए। परंतु उस भीड़ से लाहौर निवासी क्षत्रिय परिवार का दयाराम खड़ा हुआ और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया।
गुरु गोविंदसिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार की प्यास अभी नहीं बुझी।
इस बार सहारनपुर के जटवाडा गांव का जाट युवक धर्मदास खड़ा हुआ। गुरुदेव उसे भी तम्बू में ले गए। फिर थोड़ी देर बाद ही खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गोविंदसिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के कुम्हार परिवार के हिम्मत राय खड़े हो गए। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तंबू से खून की धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव फिर बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका निवासी मोहकम चंद सामने आ गए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चंद सिर देने के लिए आगे आये।
गोबिन्द सिंह ने केवल यह परीक्षा ली थी जिसमें उन्हें यह ज्ञात हो गया कि जुल्म के खिलाफ जो बीड़ा उन्होंने व उनके पिता गुरू तेगबहादुर ने उठाया है, उसे आगे बढ़ाने के लिये उन्हीं की तरह समाज भी आतुर है। आवश्यकता केवल समाज को संगठित करने की है और यह उन्होनें आनन्दपुर साहिब में कर दिखाया।
उन्होंने उपस्थित लोगों को एक नई पहचान दी, उन्हें सिंह की उपाधि से नवाजा, ताकि वे शेर की तरह गर्जन कर सके और जुल्म के खिलाफ सिंह के ही समान दहाड़ सकें। केश, कड़, कच्छा, कंघा और कृपाण ये उनके आभूषण बनाये, ताकि वे दूर से पहचाने जा सकें। समाज को मर्यादित करने का कार्य जिस खूबी से गुरू गोबिन्द सिंह ने किया, उसका कोई अन्य उदाहरण इतिहास के पन्नों में कहीं नहीं मिलता है।
अब ये पांचो लोग चंद, राय नहीं रह गये नया नामकरण हो गया। भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह, भाई हिम्मत सिंह, भाई मोहकम सिंह, भाई सहिब सिंह। खण्डे का अमृत उन्हें छका कर खुद भी उनसे अमृत छका और सभा में उपस्थित सभी लोगों को अमृत छकने के लिये कहा और सिंह बना दिया।
वर्तमान परिदृश्य में इसका अनुकरण और भी प्रबल हो जाता है, जब लोग जाति के रूप में देश को बांटने में लगे हैं। गुरू गोबिन्द सिंह ने विभिन्न जातियों के लोगों को एक कर दिया। न कोई नाई रहा और न ही कोई जाट, सब सिंह हो गये। इस तरह हुआ खालसा का सृजन। वहीं दूसरी ओर, उन्होंने अपने ब्रहम्लीन होते समय भी दूरदर्शिता का परिचय दिया। उनके पास जो अदृश्य शक्ति थी, उसने उन्हें प्रेरित किया कि गुरू परम्परा को यहीं समाप्त कर देना चाहिए, नहीं तो यह आगे चल विष बेल न बन जाए। इसी लिए उन्होंने गुरूग्रन्थ साहिब की रचना करते हुए उसे ही अंतिम गुरू मानने का हुक्म दिया था। उन्होंने कहा ‘गुरू मानयो ग्रन्थ’ तब से आज तक ‘गुरू ग्रन्थ साहिब’ ही एक पथ प्रदर्शक के रूप में खालसा पंथ को एकता, भाईचारे सहित एक निराकार प्रभु का संदेश दे रहा है।

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