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ठेंगे से न्याय-पालिका...!

डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.

जबकि न्यायिक विचारण और निर्णय के सारे अधिकार केवल न्याय-पालिका के सम्प्रभु विशेषाधिकार हैं, क्या सच में ही भारतीय न्याय-पालिका के सम्मान की रक्षा हुई है? या फिर, हमारी सबसे बड़ी अदालत को, अब तक के उसके इतिहास के, सबसे गम्भीर अपमान की दहलीज दिखा दी गयी है? 

ठेंगे से न्याय-पालिका...! इधर भारत सरकार संसद्‌ में अपनी पीठ थप-थपाते थक नहीं रही है और उधर इटली के राज-नेता फूल कर कुप्पा हुआ जा रहा अपना सीना दिखाते फिर रहे हैं! ‘अपने मुँह मियां मिट्‍ठू’ इन दो बातों में समानता है भी और नहीं भी। घटना-क्रम एक ही है। भारतीय मछुआरों के हत्यारे नौ-सैनिक इटली से भारत वापस लौट आये हैं। इटली की सरकार द्वारा किये गये सारे दंभ-प्रदर्शन के बाद भी। और, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गयी समय-सीमा का सूरज ढलने के बाद लेकिन कैलेण्डर की तारीख अन्तिम रूप से बदल दिये जाने से कुछ पहले ही।

अपनी-अपनी विजय-पताकाएँ लहराती दो ‘मित्र’ सरकारों के विजयी-दावों का परस्पर विरोधी ध्रुवों पर टिका होना इस तरह समझा जा सकता है कि आम चुनाव की घम-छैंयाँ से आतंकित भारत की यूपीए सरकार देशी मत-दाताओं के मन पर निरन्तर छाते जा रहे इस भय को झुठलाने का प्रयास करने में एड़ी-चोटी का पसीना बहा रही है कि दुनिया के सबसे बड़े इस लोक-तान्त्रिक देश की सम्प्रभुता कांग्रेस-प्रमुख की पीहर-निष्‍ठा की रेहन होकर रह गयी है। मनमोहन प्रसन्न हैं कि इतालवी सैनिक लौट आये हैं और इससे विदेशों में भारत का मान बच गया है। दूसरी ओर, इटली की सरकार आम चुनाव के उन्माद से शनै:-शनै: मुक्‍त हो रहे अपने देश-वासियों को यह सन्देश देने में जुटी है कि उसने भारत सरकार से घुटने टिकवा लिए हैं। इतालवी विदेश मन्त्री ने अपने देश की मीडिया से कहा है कि इटली सरकार ने यदि आरोपी सैनिक भारत को लौटाने से मना नहीं किया होता तो इटली न तो भारत से सौदे-बाजी की स्थिति बना पाता और ना ही उससे अपनी शर्तें मनवा पाता। 

ठेंगे से न्याय-पालिका...!
22 मार्च को आरोपियों की वापसी से कुछ घण्टों पहले भारतीय विदेश मन्त्री सलमान खुर्शीद ने भी लोकसभा को बतलाया कि हमारी मान-गर्वित सरकार ने इटली को लिखित आश्‍वासन दिये हैं। भारत सरकार मानती है कि यदि ऐसा नहीं किया जाता तो आरोपियों को भारत ‘भेजने’ पर इतालवी सरकार को मना पाना सम्भव ही नहीं होता। और, यदि ऐसा होता तो दुनिया भर में भारत का मान मिट्‍टी में मिल जाता। मनमोहन ने तो एक कदम आगे जा कर यह तक कह दिया कि इससे हमारी न्याय-पालिका के सम्मान की रक्षा हुई है। 

यह दु:खद् नहीं तो और क्या है कि उँगलियों पर गिने जा सकने वाले निहित-स्वार्थी हितों के लिए देश के आत्म-सम्मान को हर किसी की झोली में डाल देने को आतुर रहने वाली सत्तासीन राजनैतिक मण्डली जब अपने इस घोर निन्दनीय दुष्‍कर्म की बड़-बोली वाह-वाही लूटने में लगी थी तब विरोधी राजनेताओं की भारी भीड़ में एक भी ऐसा नहीं मिला जो कांग्रेस के झाँसे से बच पाया हो? हर छोटा-बड़ा विरोधी नेता देश को यह समझाने में जुट गया कि इटली को घुटने टिकवाने के अपने जिस थोथे दम्भ को कांग्रेस अपनी बड़ी उपलब्धि ठहराने में पर तुली हुई है वह इसलिए सम्भव हो पाया है क्योंकि उसने या फिर उसकी पार्टी ने ही सरकार पर ऐसा करने का भारी दबाव बनाया था। परिणाम यह कि बहस भटक कर श्रेय के बँटवारे की उस प्रायोजित दिशा में घूम गयी है जिस ओर कांग्रेस उसे ले जाना चाहती थी। देश की एक भी राजनैतिक शक्‍ति ने इस सवाल पर विचार करना आवश्यक नहीं समझा कि सच-मुच कोई उपलब्धि हुई भी है या नहीं? निहित-स्वार्थी सोच के ताने-बाने से बुनी और दल-गत्‌ राजनैतिक क्षुद्रता से रंगी जो पट्‍टी इन सब ने अपनी आँखों पर बाँध रखी है वह इन्हें यह देख पाने से रोके हुए है कि जो कुछ भी हुआ है उसने देश की अस्मिता को अनेक अर्थों में तार-तार करके रख दिया है। 

स्पष्‍ट है, बहस की वास्तविक धुरी यह है कि क्या सच में ही हमारी न्याय-पालिका के सम्मान की रक्षा हुई है या फिर, हमारी सबसे बड़ी अदालत को उसके इतिहास के अब तक के सबसे गम्भीर अपमान की दहलीज दिखा दी गयी है? 
ठेंगे से न्याय-पालिका...! इसी बिन्दु पर भारत और इटली की सरकारों द्वारा फहरायी जा रही विजय-पताकाओं में दावों की समानता का रंग बड़ी सरलता से दिख जाता है — दोनों ही देशों की सरकारों ने भारतीय उच्चतम्‌ न्यायालय को ठेंगा दिखाया है। बराबरी से। सम्भवत:, पूरे ताल-मेल के साथ रची मिली-भगत से। भारतीय न्याय-पालिका के समक्ष दो इतालवी नागरिक हत्या के आरोपी थे। और, अपनी वैयक्‍तिक हैसियत में, वे विभिन्न स्तरों पर भारतीय न्याय-व्यवस्था के सामने प्रस्तुत भी हो चुके थे। पूरे मामले में, तकनीकी रूप से, इतालवी सरकार कहीं से भी पक्ष-कार नहीं थी। तब तक भी नहीं जब चुनावों में उनकी भागी-दारी के लिए आरोपी इतालवियों को एक निश्‍चित अवधि के लिए भारत से बाहर जाने की अनुमति पर सह-मत कराने के लिए, सोचे-समझे रूप से, इटली के राजदूत ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपनी व्यक्‍तिगत्‌ जमानत दी थी।

पूरे घटना-क्रम की निष्‍पक्ष कानूनी समीक्षा बतलाती है कि, आरोपियों को सीमित और निर्धारित अवधि के लिए देश छोड़ कर जाने की न्यायिक अनुमति दिये जाने से लगा कर यथार्थ में उनके देश से बाहर निकल जाने के दिन तक, पूरी कानूनी प्रक्रिया में अन्तर्राष्‍ट्रीय राजनय जैसा विशेष आग्रह कभी भी सामने नहीं आया। इसका पहला संकेत तब मिला जब भारत सरकार ने माना कि इटली की सरकार अपने नौ-सैनिकों को भारत वापस ‘भेजने’ को बिल्कुल भी तैयार नहीं है। इस बिल्कुल अप्रत्याशित परिस्थिति को इटली के पक्ष में हवा देने के लिए ही भारत सरकार की ओर से संकेत दिये जाने लगे कि वह सर्वोच्च न्यायालय में आरोपियों की वापसी की जमानत देने वाले इटली के राजदूत को लिए ‘अवांछित व्यक्‍ति’ घोषित कर देश छोड़ने का आदेश देगी। कहा जाने लगा कि इस तरह से उसे भारतीय न्यायालय में दिये अपने वचन का पालन नहीं करने का समुचित दण्ड मिल जायेगा। 

सुखद्‌ यह रहा कि न्याय-पालिका ने इसके पीछे छिपी सरकारी दुर्भावना को समय रहते भाँप लिया और जमानत-दार राजदूत को अपने समक्ष बुला कर निर्देशित किया कि वह उसकी अनुमति के बिना देश छोड़ कर नहीं जाये। जाहिर है, प्रकारान्तर से भारत सरकार भी न्यायिक आदेश से बँध गयी। तब उसने अंतर्राष्‍ट्रीय वचन-बद्धता का यह नया तुरुप का ताजा पत्ता इस खुली मंशा से चला कि न्यायालय को राजनय की संकरी गली में उलझाया जा सके। इसके लिए भारत सरकार ने इटली को जो आश्‍वासन लिखित रूप से दिये उनमें सबसे गम्भीर यह है कि आरोपी इतालवी नौ-सैनिकों को फाँसी की सजा नहीं दी जायेगी। भारतीय न्यायिक पक्ष को कमजोर करने के लिए भारत सरकार ने इटली को अपनी ओर से यह अनधिकृत निष्‍कर्ष तक लिख कर थमा दिया कि आरोपियों का अपराध ‘विरल में भी विरल-तम्‌’ नहीं है। 

ठेंगे से न्याय-पालिका...!
इसमें दो मत नहीं हैं कि आरोपियों पर लगे हत्या के आरोप में अन्तिम रूप से न्यायिक निर्णय के पारित हो जाने तक, दोष-मुक्‍ति से ले कर दण्ड के स्वरूप तक के निर्णय के सारे अधिकार, केवल और केवल, भारतीय न्याय-पालिका के सम्प्रभु विशेषाधिकार हैं। प्रकरणों से सम्बद्ध प्रार्थी और प्रत्यर्थी पक्षों के अपने अधिकार अवश्य हैं किन्तु वे अपने-अपने पक्ष में तथ्य रखने और निवेदन करने तक ही सीमित हैं। इस सीमा का अतिक्रमण करने वाला न्यायिक अवमानना का अपराधी होता है। ऐसे में, ‘आरोपियों को भारत भेजने की अनुमति’ देने को सह-मत कराने के लिए भारत सरकार ने इटली को जो लिखित वचन-पत्र अग्रिम रूप से सौंपा है उसका प्रत्येक शब्द न्याय-पालिका के अधिकार-क्षेत्र में खुले हस्तक्षेप का सूचक है। वचन-पत्र का प्रत्येक शब्द किसी भी सन्देह से परे यही स्थापित करता है कि, सरकारों के स्तर पर, देश के सबसे बड़े न्याय-मन्दिर तक का अपमान करने का दम्भ निर्लज्जता की सारी अघोषित सीमाएँ तक लाँघ चुका है।

किन्तु, बहस यहीं तक सीमित नहीं रखी जानी चाहिए। सवाल तो यह भी है कि भारत सरकार द्वारा प्रायोजित न्याय-पालिका की इस अवमानना के लिए क्या कोई एक अकेला व्यक्‍ति ही वास्तविक दोषी ठहराया जायेगा या फिर इसके लिए एकाधिक व्यक्‍तियों को नामांकित किया जाना चाहिए? और यदि ऐसा हुआ तो किसे या फिर किस-किस को?
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