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रचनात्मक भूमिका और संघर्ष

डॉ. ज्योतिप्रकाश, भोपाल.

अपने जीवित रहने के अधिकार की माँग करते समय दूसरे के भी जीवित रहने के अधिकार को स्वीकार करना ही यथार्थ रचनात्मक भूमिका है। ऐसे विकेन्द्रीकृत समाज की कल्पना के कारण, जिसमें सभी की अपनी अलग पहचान तो हो परन्तु सभी एक हों, गांधी-विचार बहुधा दोनों खेमों की तीखी आलोचना के शिकार होते हैं।

“गरीबी उसे विवश किये थी कि वह फटे और बिना धुले कपड़े पहने। जीविका क्या पेट का एक-एक दाना तक जिस मेहनतकश मजदूर के लिए, उसके श्रम के अलावा भी, कई-कई बातों का मोहताज हो; उस बेचारे की तो नियति ही यही है। परन्तु उसका पेट काटकर अपने और अपने परिवार-जनों के लिए चमक-दमक का चौतरफा ढेर बना रहे अधिकारी-वर्ग को यह सब कहाँ समझ आता है? ऐसे ही एक अधिकारी, एक कनिष्‍ठ यन्त्री, ने एक दिन उसके फटे-मैले कपड़ों को लेकर उसकी परिस्थितियों का मजाक बनाया और अभद्र व्यवहार किया। तब गाँव में सब लोगों ने जन-अदालत लगाई जिसमें उसके इस व्यवहार की शिकायत हुई। 

रचनात्मक भूमिका और संघर्ष
“अपराध प्रमाणित हुआ तो सजा की भी घोषणा हुई - पूरे सात दिनों तक, चौबीसों घण्टे, बिना प्रैस की हुई नाइट ड्रेस पहनने की सजा! ताकि, कपड़ों से आदमीयत की पहचान करने की उसकी मन: स्थिति शेष न रहे। सचमुच तीन दिनों तक इस दण्ड का पालन करने के बाद, अन्तत:, उस अधिकारी ने अपने व्यवहार की सार्वजनिक रूप से माफ़ी माँगी और दोबारा किसी की परिस्थिति का मजाक बनाने से तौबा कर ली।”

महाराष्‍ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जिले में काम कर रहे, एक समय ‘युवक क्रान्ति दल’ से सम्बद्ध रहे और अब लोक-संगठन का काम कर रहे, युवक शान्ताराम पण्‍ढेरे ने अपनी सामाजिक पहचान की स्थापना के लिए विसंगतियों के खिलाफ़ एक-जुट प्रयास में लगे ग्रामीणों की चर्चा करते हुए एक उदाहरण और दिया —

“एक मजदूर की गरीबी और उसके कमजोर खान-पान का मजाक बनाने वाले ओवरसियर का घेराव कर उसे विवश किया गया कि उस शाम का खाना वह उस मजदूर के साथ, उसी के घर, खाये। ताकि उसे मजदूरों की परिस्थितियों का प्रत्यक्ष अनुभव हो सके। जन-अदालत के आदेश से हुए इस ‘सह-भोज’ के बाद उस अधिकारी ने अपने व्यवहार के लिए माफ़ी माँगी और, फिर जब तक वहाँ रहा, अपने अधिकार-क्षेत्र में मजदूरों को उनके पूरे अधिकार, भर-सक, दिलवाता रहा।”

अप्रैल 1984 में सेवाग्राम, वर्धा में देश के अलग-अलग हिस्सों से आये कोई डेढ़ दर्जन युवक अपने अनुभव बाँट रहे थे। इस लेन-देन में अपनी-अपनी परिस्थितियों में खपने लायक सुझावों को कसौटी पर कस भी रहे थे। सभी इकट्‍ठे हुए भी थे इसी उद्देश्य से। गांधी और सर्वोदय विचार-धारा के चौगिर्द काम कर रहे इन युवकों के बीच, स्वाभाविक ही था कि, बातचीत इस विवाद के आस-पास केन्द्रित हुई कि क्या संघर्ष अवश्यंभावी है?

जनता की संगठन-शक्‍ति और उसके अहिंसक सोच के व्यापक प्रभाव का बिगुल बजा रहे उपर्युक्‍त दोनों उदाहरण देने वाले शान्ताराम पण्‍ढेरे ने अपनी बात की समाप्‍ति पर, अचानक ही, जब यह घोषणा की कि उनका संगठन शान्ति-मय तरीकों से भरपाया है और इसलिए अब संघर्ष की राह पर ही आगे बढ़ेगा तब ‘रचनात्मक भूमिका’ और ‘संघर्ष’ के बीच छिड़ती आयी पुरानी बहस जैसे जीवन्त हो उठी थी।

सम्भव है, शान्ताराम ने वही क्या हो जिसकी मंशा उसने बतलायी थी। किन्तु, इक्कीसवीं सदी में आकर भी, परिस्थितियाँ सुधरी नहीं है। इसके सर्वथा उलट, परिस्थितियाँ न केवल विकृत हुई हैं अपितु उनका भौगोलिक दायरा भी अकल्पित अनुपात में विस्तृत हुआ है। खेमों में बँटी इस दुनिया में, जहाँ सैन्य-वादी प्रवृत्तियाँ अपनी पकड़ दिन-प्रतिदिन मजबूत करती जा रही हैं, ‘संघर्ष’ आज बड़ी चमक-दमक वाला शब्‍द है। सिद्धान्‍तों के नाम पर फैले भ्रम ने इस शब्‍द को इतनी चकाचौंध दी है कि कई बार तो उसके राजनैतिक अर्थ को आत्म-सात किये बिना ही (और कई बार तो, उसके विरोधी होते हुए भी) रोज-मर्रा की बातचीत में इसे शामिल करने की आदत पाल ली जाती है। सम्भवत:, केवल राजनीति की फैशन में स्वयं को पिछड़ा हुआ प्रमाणित होने से बचाने के लिए।

एक ऐसे विकेन्द्रीकृत समाज की संरचना की कल्पना से जुड़े होने के कारण, जिसमें सभी की अपनी अलग पहचान तो हो परन्तु सभी एक हों; गांधी-विचार के व्यक्‍ति बहुधा, धुर बाँये और धुर दाँये, दोनों ही खेमों की तीखी आलोचना के शिकार होते हैं। मुक्‍त उपभोग के पक्ष-धर दक्षिण-पन्थी समूह, जो दूसरों को अपने उपभोग का साधन मानते हैं, इनसे इसलिए ना-खुश हैं क्योंकि गांधी के विचार मर्यादित उपभोग वाले शोषण-विहीन और सर्वोदयी समाज की वकालत करते हैं। दूसरी ओर किताबों के पन्नों पर लुभावने दर्शन, किन्तु व्यवहार में इतनी ही क्रूर राजनीति, के पक्ष-धर वाम-पन्थी खेमे हैं। बिल्कुल दूसरी किस्म की तानाशाही के पोषक यह खेमे भी गांधी-विचार को गम्भीर चुनौती मान कर उससे इसलिए खिंचे-खिंचे रहते हैं क्योंकि गांधी-निष्‍ठ कार्य-शैली, सच में ही, सारी ताकत आम आदमी के हाथों सौंपने को कृत-संकल्प है। गांधी-विचार का सत्याग्रही संकल्प एक रचनात्मक भूमिका की माँग करता है; किसी प्रत्यक्ष-परोक्ष वाम अथवा दक्षिण पन्थी विघटन-कारी भूमिका की नहीं।

दिन-रात संघर्ष की आशंका पाल रहा मन राष्‍ट्र या समाज को उसके पूरे परिप्रेक्ष्य में देख ही नहीं सकता। हर समय घात की जुगत में लगी, और प्रति-घात की आशंका से संकुचित, उसकी नजरें एक तंग गलियारे पर ही टिकी रहती हैं। इस मृग-मरीचिका के प्रभाव में कि इस तंग दायरे का भविष्य ही उसका भविष्य तय करेगा।

बेशक, समाज-परिवर्तन की प्रक्रिया के सोच के किसी भी स्तर के व्यक्‍ति की दृष्‍टि, बरबस, उसके निचले तबके पर आकर टिक जाती है। परन्तु बड़ी आवश्यकता तो यह है कि यह ठहराव उसकी सोच-यात्रा का एक पड़ाव ही हो। कि, यह सामने आ खड़ी वि-संगतियों को दूर करने की जरूरत में खड़ा किया गया मात्र अस्थाई शिविर भर हो। यह पड़ाव स्वयं ही मंजिल बनकर सोच को कुण्ठित न कर दे, इतनी सावधानी रखना आधार-भूत हो। रचनात्मक भूमिका का अर्थ ही यह है कि दर्शन के केन्द्र में समूचा समाज हो, उसका कोई वर्ग-विशेष नहीं। 

रचनात्मक भूमिका और संघर्ष
गांधी-विचार की शैली में जैसे एक चतुराई भरी सेंध लगाने के लिए ही, पिछले लम्बे समय से, एक सूत्र-वाक्य उछाला जा रहा है — ‘रचनात्मक भूमिका और संघर्ष में एक सामंजस्य-संतुलन होना चाहिए।’ संघर्ष को ओढ़ायी गयी चका-चौंध भी जिनकी आँखों को अन्धा नहीं कर पायी है, उन्हें इसकी माया में, फाँसने की नयी तरतीब है यह। वि-संगतियों की चिता जलाये बिना (दफ़नाना नहीं) मूल्यों पर आधारित एक नये समाज की संरचना क्या सम्भव भी है? सच में तो, एक परिपक्‍व रचनात्मक भूमिका अपने में तथा-कथित संघर्ष को (यदि इसे इसके क्रूर शाब्दिक अर्थ में प्रयोग न किया जा रहा हो तो ही) आत्म-सात्‌ किये हुए है।

रचनात्मक भूमिका का अर्थ कोरी लाभ-कारी और उत्‍पादक गति-विधियों में लेने से भी यह भ्रम फैला है। रचनात्मक कार्य आदमी को ‘आदमी’ न बनायें, नये मूल्य स्थापित न करें, तो वे व्यर्थ की कवायद भर हैं। और फिर, रचनात्मक कार्य ऐसे भी न हों जो हमें बाँध लें। अर्थात्‌, जब इन्हें छोड़ने की आवश्यकता आ खड़ी हो या इन कार्य-क्रमों को साथ समेट कर कहीं जाना समय की माँग हो जाये तब, निर्द्वन्द्व जा सकें।

अपने जीवित रहने के अधिकार की माँग करते समय दूसरे के भी जीवित रहने के अधिकार को स्वीकार करना ही यथार्थ रचनात्मक भूमिका है।

अन्त्योदय जिनकी कार्य-प्रणाली है, सर्वोदय जिनका लक्ष्य है और इस अ-हिंसक क्रान्ति में जो अपनी भूमिका मात्र उत्‍प्रेरक के रूप में देखते हैं; उनके लेखे, वैसे तो, इसका एक सीधा जवाब है — ‘हमारा व्यवहार ऐसा हो कि एकदम साफ हो जाए कि हम किसी के साथ तो हैं परन्तु किसी के खिलाफ़ नहीं।’ किन्तु सिद्धान्त के धरातल पर सीधा-सरल सा लगने वाला यह वाक्य, विरोधाभासों और निहित स्वार्थों से अटे पड़े इस समाज में, व्यवहार के धरातल पर आकर बहुत जटिल हो जाता है।

कैसे सधेगा यह सब? इसका, कम से कम, एक छोर तो दिखलाई देता है — गाँव-गाँव का समाज आज जैसा भी है उसमें उपेक्षित पड़े, और छूट गये, पहलुओं पर इस तरह काम शुरू किया जाए कि एक वर्ग-विशेष की दूसरे वर्ग-विशेष पर निर्भरता की वर्तमान स्थिति बदलकर, सहज ही, परस्पर निर्भरता की हो जाए। जिससे स्वाश्रयी गाँव और वैसे ही स्वतन्त्र, किन्तु परस्पर निर्भर, आदमी की कल्पना साकार हो जाए।

परन्तु कितनी दूर तक ले जा सकेगा यह छोर? बस, एक सुदृढ़ धरातल पर खड़ा विश्‍वास है कि नये आयाम खुलेंगे तो सत्य के प्रति आग्रह भी बढ़ेंगे; नये मूल्य भी स्थापित होंगे।

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