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भगोरिया प्रणय पर्व नहीं, सांस्कृतिक एवं मस्ती का पर्व


भगोरिया प्रणय पर्व नहीं, सांस्कृतिक एवं मौज-मस्ती का पर्व
भारतीय पंरपरा में रीति-रिवाज आज भी विद्यमान है। पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक विभिन्न प्रकार की परंपराएं व मान्यताएं हैं। ऐसा ही एक पर्व मालवांचल के कुछ जिलों में प्रमुख्ता से मनाया जाता है, जिसे भगोरिया पर्व के नाम से जाना जाता है। वर्ष में एक बार होली से एक सप्ताह पूर्व से शुरू होकर होली जलने तक बडे ही धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व धार, झाबुआ, अलिराजपुर व बड़वानी जिले के आदिवासियों के लिए खास महत्व रखता है। आदिवासी समाज मूलत: किसान है। ऐसी मान्यता है कि यह उत्सव फसलों के खेतों से घर आने के बाद आदिवासी समाज हर्ष-उल्लास और मौज-मस्ती को पर्व के रूप में सांस्कृतिक परिवेष में मनाता है। इसमें समाज का हर आयु वर्ग सांस्कृतिक पर्व के रूप में सज-धज कर मनाता है। भगोरिया पर्व आदिवासी संस्कृति के लिए धरोहर है, इसलिए ये वाद्य यंत्र के साथ मांदल की थाप पर हाट-बाजार में पहुंचते हैं और मौज-मस्ती के साथ उत्सव के रूप में मनाते हैं। 
 
भगोरिया प्रणय पर्व नहीं, सांस्कृतिक एवं मौज-मस्ती का पर्व
धार, झाबुआ, अलिराजपुर एवं बड़वानी में मनाया जाता है उत्सव

भगोरिया पर्व से जुड़ी कई किवदंतिया हैं। इसके बारे में आम जन मानस के बीच सही तथ्यों को नहीं रखा जाता। वहीं, मीडिया द्वारा सही जानकारी के अभाव में गलत जानकारी को ही परोसा जा रहा है। यह कहना कि भगोरिया आदिवासी समाज का प्रणय पर्व है, पूर्णत: असत्य एवं भ्रामक है। भगोरिया पर्व को प्रणय पर्व न कहकर आदिवासी समाज का सांस्कृतिक पर्व कहा जाए, तो ही इस उत्सव की सार्थकता सिद्ध होगी। इस बात को पिछले वर्ष मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भी कुक्षी में आयोजित भगोरिया पर्व के दौरान मंच से संबोधित कर सभी को कहा था कि, भगोरिया पर्व प्रणय पर्व नहीं है। मैंने यहां आकर स्वयं यह महसूस किया कि इस पर्व के बारे में जो दुष्प्रचारित किया गया है, वह बिलकुल ही गलत है। यह तो आनंद का पर्व है, मैंने तो इस पर्व का आनंद खूब उठाया आप भी इस पर्व का आनंद उठाइए।

भगोरिया पर्व से जुड़ी भ्रांतियों को दूर किया जाना चाहिए जैसे, कि युवक-युवतियां अपने जीवनसाथी का चयन कर प्रतीकात्मक रूप से भाग जाते हैं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, बल्कि कई हाट-बाजारों में किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना को दुर्घटना में बदलने में क्षण मात्र ही लगता है। भगोरिया पर्व को प्रणय पर्व कहने पर मैंने, आदिम जाति, अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री विजय शाह, कुक्षी विधायक मुकाम सिंह किराडे सहित एक दर्जन विधायकों ने कड़ा विरोध जताया है और संस्कृति मंत्री के समक्ष लिखित में आपत्ति दर्ज कराई है।
मैं बचपन से इस पर्व को परिवार के साथ देखते आ रही हूं, जिस दिन से होली का डंडा गड़ता है, उस दिन से मांगलिक कार्य नहीं होते एवं विवाह संबंधी चर्चा तक नहीं की जाती है। होलिका दहन के बाद ही मांगलिक कार्य एवं विवाह संबंधी कार्य होते हैं। मीडिया को चाहिए कि भगोरिया पर्व में शामिल होकर रिसर्च करें कि आदिवासी भाग कर शादी नहीं करते, बल्कि सामाजिक रूप से विवाह करते हैं। आदिवासी कितने ही आर्थिक अभाव में हो, लेकिन वह अपने बच्चों की शादी सामाजिक रीति-रिवाज से ही सम्पन्न कराते हैं। हां यह जरूर है कि पहले बारात बैलगाड़ियों से जाया करती थी, आज उसका स्वरूप वाहनों ने ले लिया है। विवाह मुहूर्तों में आज भी एक-एक गांव में 20 से 30 शादियां होती है। 

भगोरिया प्रणय पर्व नहीं, सांस्कृतिक एवं मौज-मस्ती का पर्व आज भी आदिवासी ग्रामीण क्षेत्र में अपनी वही पुरानी रीति-रिवाज के साथ विवाह सम्पन्न कराते हैं। आदिवासी समाज सामूहिक जीवन जीता है। आज भी यह समाज सामाजिक मूल्यों का पालन एवं रीति-रिवाज के लिए जाना जाता है। कई बार कुछ मीडियाकर्मी व फोटोग्राफर द्वारा युवक-युवतियों के फोटो खींच कर या वीडियो बनाकर दिखाया जाता है, जिससे प्रणय का आभाष होता है। वास्तविकता में फोटो में दिखाए गए जोड़े या तो सगे भाई-बहन, चचेरे-मामेरे भाई-बहन समूह के होते हैं। जब यह कोई खरीदारी कर रहे होते है या आपस में खाद्य सामग्री को ग्रहण कर रहे होते हैं, तब यह फोटोग्राफ्स या वीडियों लिए जाते है, साथ ही इसमें परिवार के अन्य लोग भी शामिल होते हैं। फिर भी मीडिया में भगोरिया पर्व को वेलेंटाइन डे, प्रणय पर्व, भाग जाना आदि रूप से जोड़कर प्रस्तुत करना गलत है। मीडिया को चाहिए कि तथ्यों को सही तरीके से प्रस्तुत करें। चूंकि आदिवासी समाज भोला भाला है, इसलिए जैसा चाहे वैसा नहीं लिखा व दिखाया जाना चाहिए। मीडिया को भगोरिया पर्व के दौरान गांवों में जाकर रिसर्च करने की आवश्यकता है। प्रदेश में आदिवासी समाज ही ऐसा समाज है जहां कई जिलों के लिंगानुपात में लड़कियों की संख्या ज्यादा है। हमारे यहां दहेज प्रथा नहीं है, बल्कि लड़के वाले खुद दहेज देते हैं। सामाजिक रूप से तय किया जाता है, जिससे दुल्हन के साथ ससुराल चला जाता है दहेज। 

भगोरिया प्रणय पर्व नहीं, सांस्कृतिक एवं मौज-मस्ती का पर्व भगोरिया पर्व में गांव के मजरों-टोलों का अलग-अलग समूह होता है। एक ही परिवार के लोग बच्चे, युवा, बुजुर्ग और गांव के गांव इस पर्व में सम्मिलित होते हैं। इस पर्व के लिए वर्ष में एक बार नये कपड़े लेते हैं। इस पर्व में मौज-मस्ती से बाजार में गेर के साथ घूमते हुए आनंद उठाते हैं। मुझे आज भी याद है कि मैं इन्दौर छात्रावास में पड़ती थी, तब मेरे भैया दोनों बहनों के लिए नए कपड़े लाते थे और फिर हम कुक्षी का भगोरिया पर्व देखने जाते थे। मैंने बचपन से भगोरिया पर्व देखा और इसका आनंद उठाया, इसलिए इसे प्रणय पर्व कहना या युवक-युवतियों द्वारा भाग जाना फिर बाद में सामाजिक रूप से शादी कर दी जाना बिलकुल ही गलत है। फिर भी न जाने मीडिया ने कब कहां देख लिया कि भगोरिया पर्व में ऐसी कोई घटना घटी हो, अगर कोई घटना घटी हो, ऐसा कोई प्रमाणिक उदाहरण नहीं है। मीडिया द्वारा बार-बार इस पर्व को वेलेंटाइन डे, प्रणय पर्व, भाग जाना, एक-दूसरे को गुलाल लगाना, स्वयंवर जैसे शब्दों के साथ जोड़ कर देखा जाना, आदिवासी समाज पर मानसिक कुठाराघात एवं आदिवासी संस्कृति पर प्रहार है। 

भगोरिया प्रणय पर्व नहीं, सांस्कृतिक एवं मौज-मस्ती का पर्व आदिवासी समाज इन्दौर संभाग के सभी जिलों में भील-भीलाला, बारेला समाज है। इनमें आपस में रोटी एवं बेटी के व्यवहार का अंतर हो सकता है, लेकिन रीति-रिवाज लगभग एक जैसे हैं। सामाजिक मूल्य, शिष्टाचार, सामूहिक जीवनयापन, एक जोड़ी कपड़ों में भी सभ्यता दिखाई देती है, वो टीवी चैनलों में दिखाई जाने वाली संभ्रातों की फूहड़ता से कई लाख गुना अच्छी है। आदिवासी समाज संयमित, भौतिक सुविधाओं से परे सभ्य समाज है। यह भारतीय संस्कृति की सांस्कृतिक धरोहर है।

श्रीमती रंजना बघेल
(लेखिका, मध्यप्रदेश सरकार में महिला एवं बाल विकास विभाग की मंत्री हैं.)

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