कभी अंचल की शान और खुशहाली का सबब माना जाने वाला कैलारस का सहकारी शकर कारखाना अर्से से बीमार है। हालात यह हैं कि, विगत चार वर्षों से कारखाने में एक दाना भी शकर नहीं बन सकी है। कारखाने के कुछ शुभेच्छु किसानों ने 2011 में फिर से शुरु करने की कोशिश भी की थी, लेकिन तमाम कोशिशें परवान नहीं चढ़ सकीं।
सहकारी शकर कारखाना कैलारस |
-औद्योगिक विकास के दावों के बीच दम तोड़ता शकर कारखाना
-सरकार ने ओढ़ी टालमटोल की चादर तो बेबस किसान हो रहे बर्बाद
कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि हजारों किसानों को जीवनदान देने की क्षमता वाले सहकारी शकर कारखाने को सियासी लोगों ने अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिये अपने हाल पर छोड़ रखा है। जानकारों के मुताबिक, कारखाने की तीमारदारी के लिये किसी बड़ी रकम की जरूरत नहीं है, लेकिन नये कारखानों के लिये औद्योगिक विकास के नाम पर अपने खजाना खोलने वाली किसान हितैषी सरकार कारखाने को पुनर्जीवन देने के नाम पर रहस्यमय ढंग से मौन है। सरकार में बैठे नुमाइंदे यह साधारण सी बात नहीं समझ पा रहे हैं कि, नये उद्योग लगाकर उन्हें स्थापित करने और संचालित करने से इस पुराने कारखाने को चालू करना कहीं ज्यादा आसान और लाभप्रद है। लोग कारखाने की बीमारी पर आज भी यकीन नहीं करते, बल्कि लोगों का संदेह है कि जानबूझकर कुछ लोग अपने फायदे के लिये कारखाने को बीमार साबित कर अंचल की खुशियों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
गौरतलब है कि सन् साठ के दौर में अंचल के औद्योगिक विकास के लिये लगाया गया सहकारी शकर कारखाना कैलारस अपनी स्थापना के बाद से ही समूचे अंचल के किसानों की खुशियों का पर्याय था। गन्ने के लहलहाते खेत यहां की समृद्धि और किसानों की खुशहाली की कहानी कहते थे। किसान गन्ना बेचने से लेकर उसका भुगतान पाने के लिये भी लाइन में लगने को तैयार था। कारखाने में बनी शकर देशभर में एक अलग प्रतिष्ठा और स्वाद रखती थी।
आज सहकारी शकर कारखाना कैलारस का नाम प्रदेश की सुगर फैक्ट्रियों की सूची से भी नदारद हो चुका है। सैकड़ों लोगों को आजीविका देना इस कारखाने का एक अतिरिक्त लाभ था। लगभग 3 दशक तक सबकुछ ठीक चला, लेकिन इसके बाद अंचल की इन तमाम खुशियों को न जाने किसकी नजर लग गई।
कारखाने के मैनेजमेंट में भृष्टाचार का ऐसा लाइलाज रोग लगा कि फिर यह कारखाना जब भी अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश करता, लड़खड़ा कर गिर जाता। लाखों करोड़ों के घोटालों का साक्षी बने शकर कारखाने ने उतार-चढ़ाव के कई दौर देखे हैं, वर्तमान दौर में वह कुशल व्यवस्थापन के अभाव में दम तोड़ रहा है। कारखाना बंद होने के बाद लगभग पांच सैकड़ा परिवारों के घरों के चूल्हे बुझ चुके हैं। अंचल में होने वाली गन्ने की कास्तकारी भी पहले की तुलना में अब मात्र 10 फीसदी के आंकड़े से भी नीचे आ चुकी है। कारखाने की मशीनरी से लेकर उसके कृषि फार्म आज किस हाल में हैं, कोई नहीं जानता। महज कुछ लाख रूपये से ठीक हो सकने वाला शकर कारखाने का मर्ज अब बढ़ता जा रहा है। हालांकि, जानकारों का दावा है कि कारखाने को कोई लाइलाज मर्ज नहीं है, बल्कि कुछ लोग उसे बीमार साबित करने के अभियान में लगे हैं, ताकि उनके अपने स्वार्थ पूरे हो सकें।
कारखाने से रहते थे बाजार भी गुलजार
कभी सहकारी शकर कारखाने के अच्छे दिन थे, तब यहां कार्यरत लगभग पांच सैकड़ा कर्मचारी इससे अपने परिवारों का गुजारा ही नहीं करते थे, कारखाने के कर्मचारी कैलारस सहित अंचल के बाजारों की अर्थव्यवस्था की भी रीड़ थे। कारखाने के सही ढंग से संचालित होने से यहां के किसानों पर भी सम्पन्नता बरसती थी। किसान एवं कर्मचारियों के लेन-देन से यहां के बाजार भी किसी बड़े शहर के बाजारों की तरह गुलजार रहते थे।
कभी पेट पालते थे, अब वेतन के भी लाले
पांच सैकड़ा से अधिक परिवारों को रोटी-रोजगार देने वाला सहकारी शकर कारखाने में आज कर्मचारियों को वेतन के भी लाले हैं। नाम मात्र के लिये बचे कारखाने में कार्यरत 35 कर्मचारियों को पिछले अढ़ाई वर्ष से अधिक समय से वेतन नहीं मिला है। बकौल, कारखाना महाप्रबंधक पीडी शाक्य, कारखाने में लगभग अढ़ाई सौ स्थाई कर्मचारियों में से अधिकांश सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इतने ही सीजनल कर्मचारी, जिन्हें कारखाना चालू होने के बाद काम पर रखा जाता था अब पूरी तरह बेरोजगार और भुखमरी के शिकार हैं।
किसानों के मसीहा भी साधे हैं मौन
कहने को प्रदेश को स्वर्णिम प्रदेश बनाने के दावे चारों ओर से किये जा रहे हैं। प्रदेश के मुखिया को भी किसानों का सबसे बड़ा शुभचिंतक होने का दावा जोर-शोर से किया जा रहा है। दूसरी ओर, इन दावों का सच दम तोड़ते सहकारी शकर कारखाने की हकीकत से समझा जा सकता है। प्रदेश के औद्योगिक विकास के जयघोषों के बीच जहां सरकार हजारों करोड़ रूपये के नये निवेश से प्रदेश की तकदीर जगमगाने का दावा करते नहीं अघा रही, वहीं चंबल अंचल में सहकारिता क्षेत्र के इस इकलौते कारखाने की यह उपेक्षा किसानों के साथ एक मजाक ही मानी जा रही है। इस गंभीर मुद्दे पर प्रदेश के मुखिया का मौन इसे और गंभीर बनाता है।