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न्यायिक समितियों के सुरखाब के पर!

डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.

...न्यायिक गुण-वत्ता को बनाये रखने के वर्मा समिति के सुझाव से आयोगों और जाँच समितियों में न्याय-पालिका से सम्बद्ध व्यक्तियों की नियुक्ति के बढ़ते जा रहे रुझान पर भी गम्भीर प्रश्न-चिन्ह लग जाते हैं। यही नहीं, ज्वलन्त प्रश्न तो यह भी है कि सुझावों में ऐसा क्या है जो न्यायिक प्रक्रिया से दूर रहा व्यक्ति सुझा ही नहीं सकता था?


न्यायिक समितियों के सुरखाब के पर!महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अपराधों के लिए वर्तमान कानूनी ढाँचे में समुचित सुधार सुझाने के लिए गठित जस्टिस वर्मा समिति ने अपनी रपट सरकार को सौंप दी है। समिति को सौंपा गया दायित्व कितना गहन था और उसने अपने इस दायित्व को कितनी समझ और जिम्मेदारी से निभाया है, इसकी किसी भी समीक्षा से पहले रपट को एक माह की निर्धारित अवधि के भीतर सौंपने के लिए उसे खुली बधाई मिलना ही चाहिए।

हमारे देश में एक प्रथा सी बन गयी है कि जाँच आयोगों या सुझाव के लिए बनायी गयी समितियों के उपकृत हुए अध्यक्ष अपनी रपट को जितना सम्भव हो सकता हो उतना लटकाये रखते हैं। सम्भवत:, दो कारणों से - (1) हाथ आये अवसर के स्वयं अपने ही निहित-स्वार्थी दोहन में लिप्त हो कर, या फिर (2) अपने नियोक्ता के किसी अघोषित रुझान की पूर्ति का माध्यम बन कर। सौंपी गयी रपट की गुण-वत्ता के किसी भी मूल्यांकन से परे, वर्मा समिति बधाई की पात्र है, क्योंकि वह, बड़ी सीमा तक, इन फेरों में नहीं पड़ी। रपट 29 दिनों में सौंप दी गयी। और, सरकार अपनी असहमति की पीड़ा को इससे आगे व्यक्त नहीं कर पायी कि, समिति अपने सन्दर्भों के दायरे को तोड़ कर बाहर निकल गयी। यही नहीं, सरकारी तन्त्र के नियन्ता बने बैठे वर्ग के साथ ही भविष्य में उस पर नियन्त्रण पाने की जुगत में जुटे तत्वों ने भी अपनी-अपनी यह प्रति-क्रिया देने में देर नहीं की, कि जाँचों या सुझावों के लिए नियुक्त आयोगों अथवा समितियों की रपटें मान ही ली जायें, यह बन्धन-कारी नहीं है।

न्यायिक समितियों के सुरखाब के पर!
किन्तु, समिति की इस तरफ-दारी का यह अर्थ भी नहीं कि उसने राष्ट्र-समाज के साथ उससे अपेक्षित न्याय में कोई चूक की ही नहीं है। हाँ यह चूक, अथवा कहें कि त्रुटि, कितनी सोच-समझ के साथ हुई है और कितनी समझ की कमी से; इस पर बहस हो सकती है। ऐसे अधिकांश न्यायिक-गैर न्यायिक विनिश्चयों के बारे अनुभव बतलाता है कि सम्भावित कठोरतम निर्णय इसलिए नहीं लिये जाते हैं, क्योंकि विनिश्चय-कर्ता इस मत का होता है कि आगे बढ़ कर निष्पादित कठोरतम विनिश्चयों को लागू कर पाने की ‘व्यवहारिक’ सम्भावनाएं न्यूनतम होती हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ ही राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष भी रह चुके न्याय-मूर्ति जगदीश शरण वर्मा की अध्यक्षता में गठित समिति ने महिलाओं के विरुद्ध लगातार बढ़ते जा रहे अपराधों पर नियन्त्रण के लिए अपनी रपट में जो सुझाव दिये हैं, वे बहु-आयामी हैं। उनको लेकर सरकार में हड़कंप है तो आम नागरिक भी उद्वेलित हुआ है। ‘कठोरता’ के लिए कहा गया है कि महिला को बद-नीयती से देखने पर भी एक साल और महिला के कपड़े फाड़ने पर सात साल की सजा हो। दुष्कर्म का प्रकरण दर्ज नहीं करने या फिर देरी से कार्यवाही करने के जिम्मेदारों के विरुद्ध कार्यवाही का सुझाव भी दिया गया है। किन्तु, दुष्कर्म के लिए अपराधी को फांसी देने की सबसे बड़ी मांग को सिरे से ठुकरा दिया गया है। कहा गया है कि ऐसे अपराधी को मृत्यु होने तक जेल में रखा जाये।

न्यायिक समितियों के सुरखाब के पर!वर्मा समिति ने 630 पन्नों की अपनी रपट में किसी को नहीं छोड़ा है। उसने पुलिस, सरकार और अदालतों के साथ ही जन-प्रतिनिधियों के जवाब-देह तन्त्र को लेकर भी बड़े तीखे और बे-बाक सुझाव दिये हैं। जहां, महिलाओं के विरुद्ध अपराध में लिप्त राजनीतिज्ञों को चुनावों से बाहर करने और जिन पर ऐसे मामले चल रहे हैं उनकी सदस्यता निरस्त करने के सुझाव हैं, वहीं जजों की संख्या बढ़ाने और सुनवाई तेजी से करने की बात करते हुए भी सावधान किया गया है कि, इस तेजी के फेर में न्याय की गुण-वत्ता से समझौता न हो। न्यायिक गुण-वत्ता को प्रत्येक स्थिति में सुनिश्चित करने को रेखांकित किया गया है। रपट सौंपने के बाद बुलाई पत्रकार-वार्ता में न्याय-मूर्ति वर्मा ने एकाधिक तीखी और दूर-गामी टिप्पणियां कीं। इतनी कि उनसे असहमति रखने वालों को इनमें राजनीतिक गन्ध तक का अनुभव हो गया।

न्यायिक गुण-वत्ता को लेकर वर्मा समिति के सुझावों से जान-कारों के मानस पर दो बातें उभरी हों तो अचरज नहीं होना चाहिए।

पहली बात खुल कर सामने नहीं आये अतीत के एक महत्वपूर्ण घटना क्रम की है। जानकार बतलाते रहे हैं कि अपने समय का चुनौतीहीन राजनैतिक नेतृत्व इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गये अपने ही एक पिछलग्गू राजनेता से इतना क्रोधित हो गया कि उसके संकेत पर एक राज्य में उस अपराध के लिए प्रकरण दर्ज हो गया, जो किया तो नेतृत्व के निर्देश पर गया था लेकिन जिसकी नैतिक जिम्मेदारी उस पिछलग्गू ने ले ली थी। बतलाते हैं कि जब प्रकरण में अन्तिम आदेश आने वाला था तभी, दो-तीन दिन पहले, आरोपी राजनेता व्यवसायिक हितों के लिए अपने गृह-राज्य आया। इस राज्य के मुख्य मन्त्री रहे सज्जन की इच्छा थी कि ‘आरोपी’ राजनेता उनके सूने हो चुके दरबार में मत्था टेके। इसके लिए उसने बाकायदा सन्देश भी भिजवाया। किन्तु, ढीठ राजनेता ने इस इच्छा का थोड़ा सा भी मान नहीं रखा। मिलना तो दूर, फोन भी नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि उस रात जिस रेल से ‘आरोपी’ राज्य की राजधानी रवाना हुआ, उसी से उससे रुष्ट पूर्व मुख्य मन्त्री का निजी पत्र ले कर एक पत्रकार भी राजधानी के लिए निकला। पत्र उस समय के मुख्य मन्त्री के लिए था, जिसके बारे में कहा जाता था कि वह रुष्ट नेता का राजनैतिक चेला तो हुआ ही करता था ‘आरोपी’ का गला-काट राजनैतिक प्रति-द्वन्द्वी भी था।

पत्र का शाब्दिक वाचन क्या था यह तो वह पत्रकार भी नहीं बतला सका, किन्तु उसका निहितार्थ यही था कि बुजुर्ग ने चेले को तुरन्त तलब किया था। चेला अगली सुबह हाजिर भी हुआ। दोनों के बीच हुई मन्त्रणा के बाद मुख्य मन्त्री राज्य के उन न्यायाधीश महोदय से मिला, जिन्हें अन्तिम आदेश देना था। सच-झूठ का दावा करना तो सम्भव नहीं, लेकिन सुना गया कि मुख्य मन्त्री ने न्यायाधीश को पहले समझाया कि किस प्रकार का आदेश पारित होना चाहिए। यह भी कि ऐसा होना ही उनके कैरियर के लिए कितना महत्व-पूर्ण है। और फिर उन्हें धमकाया भी अपनी बात के नहीं माने जाने पर वह, अतीत के काले दिनों में, उनके किये एक भारी ‘राजनैतिक अपराध’ का कच्चा चिट्ठा देश के राजनैतिक नेतृत्व के सामने खोल देगा। ‘आरोपी’ को ‘अपराधी’ ठहरा दिया गया।

पत्रकार-वार्ता में न्याय-मूर्ति वर्मा द्वारा व्यक्त विचारों को सुन कर समझा जा सकता है, कि समिति के सुझावों को अन्तिम रूप देते समय न्याय-पीठ के सर्वोच्च सम्मानित पर आरूढ़ हो चुके न्याय-मूर्ति को न्यायिक गुण-वत्ता से जुड़ी ऐसी सच्ची-झूठी कहानियों का ध्यान आया ही होगा।

न्यायिक समितियों के सुरखाब के पर!
वर्मा समिति के न्यायिक गुण-वत्ता को बनाये रखने के सुझाव से जान-कारों के मानस पर जो दूसरी बात उभरती है, वह यह कि, अनजाने ही सही, इसने जहां आयोगों और जांच समितियों में न्याय-पालिका से सम्बद्ध व्यक्तियों की नियुक्ति के बढ़ते जा रहे रुझान/दबाव पर गम्भीर प्रश्न-चिन्ह लगा जाते हैं। वहीं यह समझ पाना भी असम्भव हो गया है कि, दिये गये सुझावों में ऐसा क्या है जो न्यायिक प्रक्रिया से कोसों दूर रहा, लेकिन सामाजिक सरोकारों के प्रति हृदय की गहराइयों तक सम्बद्ध रहता आया एक सद्-चरित्र बुद्धि-निष्ठ व्यक्ति कभी सुझा ही नहीं सकता था? समझना होगा कि केवल न्याय-संस्थानों से जुड़े व्यक्तियों के हाथ में सौंप देने भर से ही आयोगों और जाँच-समितियों को सुरखाब के पंख नहीं लग जाते हैं।

छह लोगों द्वारा चलती बस में एक छात्रा के साथ किये जघन्य दुराचार के अपराध में बढ़-चढ़ कर आगे रहने वाले आरोपी के सम्भावित दण्ड को, उसके कथित रूप से अवयस्क होने की आड़ में, कम करके आँकने के कानूनी प्रावधान पर चुप्पी साध कर वर्मा समिति ने यही सिद्ध किया है कि, कानूनी प्रावधानों के आगे न्याय की मंशा की बेचारगी से आये दिन दो-चार होते रहने के बाद भी, एक न्याय-विद् कितना कूप-मण्डूक बना रह सकता है? फाँसी की जगह ‘आजन्म’ कारावास का सुझाव देकर भी समिति ने सरकार के संकट को हल्का भले कर दिया हो, प्रमाणित यही किया है कि न्याय की सर्वोच्च पीठ पर बैठने से कोई संविधान और कानून की समझ से चाहे जितना सम्पन्न हो जाता हो, किन्तु आवश्यक नहीं कि उसमें सामाजिक मूल्यों के संरक्षण की महत्ता, और फिर उसके निर्वाह की जिम्मेदारी, भी आ जाये।

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