निशा राठौर, झाबुआ.
पवित्र सोच होने से पवित्र दिशा प्राप्त होती है और परमात्मा की प्राप्ति संभव होती है. शनि महाराज की पुनीत कथा त्रिवेणी संगम की तरह पवित्र है और इसके श्रवण से मन की मलीनता का दमन होता है. नौ ग्रहों को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये नित्य ही सदकर्मो की आहुतियां डाली जाना चाहिये, ताकि जीवन में किसी प्रकार के कष्ट का सामना नही करना पडे. प्रारब्ध के अनुसार कर्मो के फल तो मिलते ही हैं, किंतु प्रभु भक्ति एवं सदकर्मो के कारण उनका प्रभाव कम हो जाता है. पूरी सृष्टि देवताओं के अधीन है और देवता मंत्रों के आधीन रहते है, ऐसे में सही एवं नियमानुकुल मंत्रों का जाप त्रितापों के हरण में सहायक होता है.
यह प्रेरक उद्बोधन शनि महागाथा-महाकथा के पांचवे दिन स्वामी प्रपन्नाचार्यजी ने शनि मंदिर परिसर में धर्मसभा को संबोधित करते हुए दिया. उन्होने एक साधु और वेश्या का उदाहरण देते हुए बताया कि दोनों के घर आमने सामने थे. मरने के बाद साधु को नर्क एवं वेश्या को स्वर्ग प्राप्त हुआ, कारण पूछे जाने पर चित्रगुप्त ने कहा कि साधु हमेशा पूजा आराधना के समय वेश्या के दुष्कार्याे के बारे में सोचता रहता था, जबकि वेश्या साधु के सत्कार्यो के बारे में सोच कर प्रभु की इस कृपा के लिये धन्यवाद ज्ञापित करती थी. पूजा आराधना में मन को विचलित नही होने देना चाहिये. उन्होने द्वापर युग में सूर्यवंशी महाराजा विश्वजीत के अंहकार का वर्णन करते हुए कहा कि शनि महाराज ने गुरू वशिष्ठ के अपमान करने पर उन्हें किस तरह दंडित किया और अन्तत: उसे शनि की शरण में जाना पडा. संतश्री ने कथा में आगे बताया कि जब तक भय नही होगा, प्रेम नही हो सकता. उन्होंने कहा कि बच्चों की गलती पर पक्षपात मत करों, बच्चों से प्रेम तो करों किन्तु उसके प्रति मोह नही होना चाहिये. शनि कथा में अपार जन समुह कथा का आनन्द ले रहा है.
प्रारब्ध के अनुसार भुगतना पड़ता है कर्मों का फल : प्रपन्नाचार्यजी
फ़रवरी 18, 2013
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