डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.
किसी आपराधिक कृत्य के परिणाम के आगे जब अपराधी की तात्कालिक मन:-स्थिति या फिर वास्तविक उम्र के आगे उसकी मानसिक उम्र का तर्क इतना प्रबल ठहराया जा सकता है कि दण्ड संहिता के अन्तर्गत् सम्भावित कारावास की अवधि के निर्धारण की कौन कहे, फाँसी की घोषित हो चुकी सजा तक को कम करा ले; तब उसी परिस्थिति-जन्य तात्कालिक मानसिक अवस्था का तर्क एक अ-वयस्यक को समय-पूर्व वयस्क हुआ क्यों नहीं ठहरा सकता है?
बीती सोलह दिसम्बर को ‘दामिनी’ के साथ हुए सामूहिक बलात्कार में नित नयी बहसें छिड़ रही हैं और, कोई चाहे या न चाहे, इनसे सहमति-असहमति के समाचार भी मीडिया में लगातार मुख्य स्थान पा रहे हैं। बहस का यह सैलाब इतना विस्तृत तथा प्रबल हो गया है कि एक बिल्कुल नयी बहस भी आरम्भ होती दिख रही है — सोचने का दावा करने वाले अब यह सवाल उठाने लगे हैं कि पूरी की पूरी निहित-स्वार्थी राजनैतिक बिरादरी इस एक नीयत पर एक-जुट तो नहीं हो गयी है कि यौन अत्याचार के नाम पर छिड़ी बहस के सहारे आर्थिक घपलों-घोटालों, एफ़डीआई और आरक्षण जैसे गहरे जन-उद्वेलनों के चुनावी अभिशापों से मुक्ति पायी जा सकती है?
धीरे-धीरे समर्थन पाता जा रहा यह सवाल बड़ी सीमा तक सच भी है। लेकिन इस सचाई की अपनी भी एक सचाई है कि भारतीय लोक-तन्त्र का ताना-बाना असन्तुष्ट और परस्पर संघर्ष-रत् विभिन्न पहचानों को बनाये रखने और उन्हें सन्तुष्टि के झुन-झुने थमाते रहने के क्षुद्र राजनैतिक सोच से बना है। आश्चर्य नहीं कि ऐसे लोक-तन्त्र का सबसे अनोखा पक्ष यह है कि इक्का-दुक्का सामर्थ्य-वानों को छोड़ कर बाकी बचे सारे के सारे नागरिक इस भ्रम में गद्-गद् रहते हैं कि तन्त्र पर उनकी सामूहिक चेतना का नियन्त्रण है जबकि अन्तिम सच केवल यह होता है कि यह तन्त्र केवल उन गिने-चुने सामर्थ्य-वानों की मंशा का इतना दास रहता है जो ‘कानून के राज’ में अन्तिम रूप से पारित होने वाले ‘न्यायिक निर्णयों’ तक को संशोषित करवा पाते हैं। कभी प्रत्यक्ष रूप से तो कभी परोक्ष रूप से।
दामिनी को केन्द्रित कर छिड़ी आज की सारी बहसों को सामर्थ्य-वानों की ऐसी ही प्रत्यक्ष-परोक्ष मंशाओं के सन्दर्भ में समझना होगा। तभी ठीक सवाल सूझेंगे। ठीक-ठीक राष्ट्रीय हल भी तभी निकलेंगे।
एक व्यक्ति के रूप में उसे मिलने वाले समस्त सम्मानों का आदर करते हुए भी यह समझना होगा कि ‘दामिनी’ निरन्तर उद्दण्ड होती जा रही असामजिक मानसिकता की शिकार हुई थी। समझना होगा कि जो कुछ भी उसके साथ घटा उसके बाद वह केवल इस कारण से जीवित बच गयी क्योंकि अस्मिता और जीवन की रक्षा के लिए उसके संघर्ष के बाद अपराधियों ने उसे मृत मान लिया था। तथ्य यह भी है कि उसके दिल्ली की होने और उस पर भी एक संस्थान-विशेष की छात्रा होने से ही दामिनी के मामले ने इतना तीव्र और विस्तृत तूल पकड़ा। यही नहीं, इस तथ्य ने भी अपनी विशिष्ट भूमिका निभायी कि निकट अतीत में युवा वर्ग को आगे कर हुए अनेक आह्वानों ने बरसों से कुण्ठित रही युवा पीढ़ी को सामाजिक दायित्वों के प्रति विशेष चेतना से ओत-प्रोत कर रखा था। हाँ, पीड़िता की इस जिजीविषा की प्रशंसा अवश्य की जानी चाहिए कि अपराधियों को दण्ड दिलाने की हिम्मत उसमें अन्तिम साँस तक बनी रही। लेकिन, अपने साथ घटी सामूहिक बलात्कार की इस घटना के घटने में दामिनी-नामित अब तक अनाम छात्रा का अपनी ओर से अलग से ऐसा कोई अपना ‘योग-दान’ नहीं था जिसे ‘शहादत’ का दर्जा दिया जाये। असहाय होकर पीड़ित होने वाली ऐसी प्रत्येक स्त्री की तरह वह भी एक पीड़िता ही थी, इन सबसे पृथक ‘शहीद’ नहीं हुई थी।
क्योंकि ‘शहीद’ अनाम नहीं होता उसका अपना एक नाम होता है, मामलों को भटकाने के माहिर शातिरों ने एक अनाम की शहादत का अनावश्यक सवाल उठा कर वास्तविक सवाल से बच निकलने की अपनी शातिर चाल चल दी है। प्रयास है कि उद्दण्डता को प्रभावी रूप से दण्डित करने का सुलग चुका बड़ा सामाजिक सवाल नाम-करण की निरर्थक कानूनी बहस की राख के नीचे दबा दिया जाए। चाल काम भी करती दिख रही है। एक ओर भावावेश में माँग की जाने लगी है कि यौन उद्दण्डता के विरोध में बनने वाले नये कानून को पीड़िता का नाम दिया जाए तो दूसरी ओर कानूनी प्रावधान और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के हवाले इस माँग को ठुकराना आरम्भ हो गया है। दामिनी, और उसके माध्यम से समूची यौन-पीड़ित महिलाओं के बलात्कारियों के लिए मृत्यु-दण्ड की माँग को लेकर एक-जुट हुए देश में पीड़िता के नाम को उजागर करने को लेकर शुरूआती दरार उभर आयी है। आन्दोलन-कारियों की प्राथमिकताएँ ‘अपराधियों को मृत्यु-दण्ड’ और ‘पीड़िता की पहचान’ के बीच विभाजित होती दिखने लगी हैं।
इस बीच ‘जी न्यूज’ ने दिल्ली सामूहिक बलात्कार के इकलौते प्रत्यक्ष-दर्शी से हुई अपनी लम्बी बात-चीत प्रसारित कर दी है। सम्हल कर की गयी इस बात-चीत ने दिल्ली और केन्द्र सरकार को बहुत असुविधा-जनक परिस्थिति में उलझा दिया है। दामिनी से जुड़ी बहस को एक नया आयाम देने का प्रयास हुआ है। टीवी पर हुई इस पूरी बात को देख-सुन कर समझ आता है कि चैनल ने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से समूचे तन्त्र के घिनौने नकारे-पन की पोल खोल कर रख दी है। पुलिस, प्रशासन और सरकारी तन्त्र की संवेदन-हीनता जग-जाहिर हो गयी है। जहाँ तन्त्र के पक्ष-धर बगलें झाँकते हुए आम आदमी की संवेदन-हीनता पर भी सवाल दागने लगे हैं वहीं स्वयं को निष्पक्ष कहने वाले पलट-वार कर सकते हैं कि जी टीवी ने नवीन जिन्दल मामले में अपने विरुद्ध हुई आपराधिक कार्यवाही का बड़ा सटीक प्रत्युत्तर दिया है। लेकिन, सरकार ने केवल यही दर्शाया है कि घबराहट और हड़-बड़ी में उसके सलाह-कारों की विवेक-बुद्धि कितनी बचकानी हो जाती है? दिल्ली पुलिस ने चैनल के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा २२८ (क) के अन्तर्गत् आपराधिक प्रकरण कायम कर लिया। प्रसारण के कुछ ही घण्टों के भीतर।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा २२८ (क) के अन्तर्गत् किसी पर आपराधिक प्रकरण तभी कायम किया जाता है जब उस पर यह आरोप हो कि उसने ऐसे पीड़ित व्यक्ति की पहचान उजागर कर दी है जिसके विरुद्ध कथित आरोपियों ने संहिता की धारा ३७६, ३७६(क), ३७६(ख), ३७६(ग) अथवा ३७६(घ) के अधीन कोई अपराध किया हो। प्रकट रूप से, दण्ड संहिता की यह धारा पीड़ित व्यक्ति को उसके नाम के उजागर होने से हो सकने वाले सम्भावित नुकसानों से वैधानिक संरक्षण देने की मंशा मात्र से प्रेरित है। इस मंशा के केन्द्र में विधान की यह चिन्ता है कि नाम के उजागर किये जाने से पीड़ित के मान-सम्मान को अपूरणीय क्षति पहुँच सकती है। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्देशों की इससे हट कर की गयी कोई विवेचना कतई मन-मानी है। स्पष्ट है कि यह कानूनी प्रावधान पीड़ित के, अपने नाम को उजागर करने के, निर्णय पर कतई भारी नहीं पड़ सकता है। जब तक यह स्थापित हुआ न हो कि वह मानसिक रूप से अ-विकसित अथवा विक्षिप्त है, पीड़ित का अपना निर्णय सर्वोपरि होता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश से भी।
उपर्युक्त प्रकाश में, दिल्ली पुलिस द्वारा चैनल के विरुद्ध प्रकरण का कायम किया जाना कानून व न्याय को अपने हाथों का खिलौना मानने जितना ही बचकाना कृत्य ठहरेगा। वह भी तब जबकि चैनल द्वारा प्रसारित हुई उस पूरी बात-चीत में न तो पीड़िता का नाम-पता उजागर हुआ था और ना ही उस प्रत्यक्ष-दर्शी का। सम्भवत: पुलिस ने इस बचकाने कुतर्क का सहारा लिया होगा कि प्रत्यक्ष-दर्शी का नाम भले ही उजागर नहीं हुआ हो, शक्ल से तो उसकी पहचान स्पष्ट हो चुकी है। और इस तरह से, प्रयास करके, पीड़िता की पहचान को भी उजागर किया जा सकता है। यह अलग बात है कि न तो पीड़िता के पिता अथवा किसी परिजन ने ऐसी सम्भावना के डर का सवाल उठाया था और ना ही उनकी ओर से कोई औपचारिक शिकायत दर्ज करायी गयी थी। यही नहीं, दिल्ली पुलिस की पगड़ी में यह तुर्रा अलग से जड़ गया है कि आरोपियों के विरुद्ध आरम्भिक अभियोग-पत्र को दायर करते समय उसने न्यायालय से यह निवेदन किया बताया जाता है कि आरोपियों की ‘सुरक्षा’ के ख़याल से वह उनके नामों को उजागर करने पर रोक का आदेश पारित करे।
दामिनी प्रकरण में अपराधियों द्वारा किये गये कृत्यों की नृशंस क्रूरता ने किशोर न्याय अधिनियम की व्यवहारिकता पर पुनर्विचार का गम्भीर सवाल भी खड़ा कर दिया है। पुलिस ने कुल छह में से पाँच आरोपियों के विरुद्ध विभिन्न आपराधिक धाराओं में आरोप-पत्र प्रस्तुत कर दिया है। जबकि छठवें के बारे में कहा जा रहा है कि उसकी उम्र अठारह सालों से तीन या छह महीने कम है। इस आधार पर उसके विरुद्ध आरोप-पत्र अलग से प्रस्तुत किया जायेगा। ऐसा किशोर न्याय अधिनियम के अन्तर्गत् किया जायेगा। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि उसे उतना गम्भीर दण्ड नहीं दिया जायेगा जितना गम्भीर उसका अपराध रहा। पीड़िता के हित के नाम पर घटना के बारीक विवरणों को सार्वजनिक होने से दबाये जाने के बाद भी उसकी आँतों को गहरी क्षति पहुँचने का सामने आ चुका तथ्य अपराधियों द्वारा उसके साथ की गयी क्रूरता की पराकाष्ठा का ही संकेत करता है। संकेत हैं कि इस छठे, अ-वयस्क, अपराधी ने इस क्रूरता में बढ़-चढ़ कर योग-दान किया था। चर्चा तो यह भी है कि कुछ अमानवीय अपराध तो इसने अकेले ही किये थे।
इस सचाई से यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि किसी आपराधिक कृत्य के परिणाम के आगे जब अपराधी की तात्कालिक मन:-स्थिति, या फिर वास्तविक उम्र के आगे उसकी मानसिक उम्र का तर्क, इतना प्रबल ठहराया जा सकता है कि दण्ड संहिता के अन्तर्गत् सम्भावित कारावास की अवधि के निर्धारण की कौन कहे, फाँसी की घोषित हो चुकी सजा तक को कम करा ले; तब उसी परिस्थिति-जन्य तात्कालिक मानसिक अवस्था का तर्क एक अ-वयस्यक को समय-पूर्व वयस्क हुआ क्यों नहीं ठहरा सकता है?
दामिनी-प्रकरण के बहाने यौन-दुराचारियों और बलात्कारियों को मृत्यु-दण्ड से अभय-दान की एक अनोखी मुहिम चल निकली है। ऐसे यौन दुष्कृयों के लिए रसायनों के द्वारा नपुंसक बनाने का दण्ड देने का प्रावधान करने की माँगें उठने लगी हैं। कांग्रेस ने तो इस पर बा-कायदा प्रस्ताव तैयार करने के लिए अपनी पार्टी के चुनिन्दा नेताओं का एक समूह तक गठित कर डाला। आश्चर्य नहीं कि उत्साही नेताओं के इस समूह ने अपने गठन के चन्द दिनों में ही प्रस्ताव को अन्तिम रूप तक दे दिया। अथवा रसायन-आरोपित ऐसी नपुंसकता से शर्तिया मुक्ति की सम्भावनाओं जैसी निरर्थक तकनीकी बहसों से ऊपर उठ कर, और सामाजिक मूल्यों के धरा-तल पर खड़े होकर भी, सोचने से स्पष्ट हो जाता है कि रसायनों के माध्यम से अस्थाई अथवा स्थाई नपुंसकता थोपने के पक्ष-धर या तो क्षुद्र राजनैतिक लाभ-हानि से उठ कर नहीं देखने की बीमारी से ग्रसित हो चुके हैं या फिर आतंकित हैं कि यौन-अपराधों के लिए मृत्यु-दण्ड जैसे कठोर कानून के बनाये जाने का प्रत्यक्ष-परोक्ष परिणाम उन्हें भी भोगना पड़ सकता है। यदि ऐसा नहीं हो तो वे इस मनो-वैज्ञानिक सचाई की अन-देखी कैसे कर सकते हैं कि यौन-विकृतियाँ केवल पुंसत्व की ही मोहताज नहीं हैं; यह तो एक मानसिकता है जिसका यौन-क्षमताओं से कोई सीधा लेना-देना नहीं होता है।
बात को मनो-वैज्ञानिक दृष्टि-कोण से आगे बढ़ाया जाए तो यह तथ्य भी सामने आ जायेगा कि कई बार तो ऐसे यौन अपराध केवल इसलिए किये जाते हैं कि उनमें लिप्त हुआ व्यक्ति यौन रूप से अक्षम होता है। इस तरह, यह स्पष्ट हो जाता है कि पुंसत्व के दम्भ में स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अपराधों से मुक्ति के लिए नपुंसकता या बधिया-करण थोपने के कानूनी प्रावधान का सुझाव मानसिक दीवालिये पन से उत्प्रेरित शुतुरमुर्गी सोच से भिन्न और कुछ नहीं है। समझना होगा कि ऐसे किसी भी प्रावधान के लागू होते ही विकृत मानसिकता के कानून-पुष्ट अपराधी प्रकार-विशेष के मानव-बम समाज में खुले आम घूमने का जैसे लायसेंस ही पा जायेंगे।
सवाल और भी हैं। जैसे, अनेक कानूनी विवेचनाओं की ऐसी क्लिष्टताओं से कभी-कभी बड़ी अट-पटी स्थितियाँ भी निर्मित हो जाती हैं। इस पर भी अट-पटा पन यह कि न्यायिक सम्मान की रक्षा के नाम पर इन स्थितियों पर विचार करने से कतई बचा जाता है। ऐसी ही एक अट-पटी स्थिति दामिनी-प्रकरण के खाते में आ गयी है। कहा गया कि दिल्ली पुलिस द्वारा प्रकरण का अभियोग-पत्र सम्बन्धित न्यायिक दण्डाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किये जाने से पहले उच्च न्यायालय उसका अवलोकन करेगा। सरल शब्दों में, सम्बन्धित न्यायिक दण्डाधिकारी के समक्ष जो अभियोग-पत्र प्रस्तुत हुआ होगा वह उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित किया गया ही रहा होगा।
सतही रूप से देखें तो यह प्रक्रिया प्रशासन-पुलिस तन्त्र द्वारा किये गये किसी दायित्व-हीन व्यवहार पर न्यायिक प्रशासन की निगरानी की लगाम कसने की एक स्वागत-योग्य पहल होगी। लेकिन, थोड़ी अधिक गम्भीरता से विचार करें तो दो गम्भीर न्यायिक बिन्दु उभर कर आते हैं। पहला यह कि इस प्रक्रिया के माध्यम से एक आपराधिक प्रकरण में किये गये अपराध की गम्भीरता और नामित आरोपियों की उसमें संलिप्तता पर उस न्यायिक प्राधिकरण की परोक्ष मुहर अंकित हो चुकी होती है जो प्रशासनिक रूप से केवल सम्बन्धित न्यायिक दण्डाधिकारी का ही नहीं बल्कि समूचे अधीनस्थ न्यायिक प्राधिकरण का ही प्रशासक है। इतना ही नहीं, यही न्यायिक प्राधिकरण अधीनस्थ न्यायालय द्वारा पारित अन्तिम आदेश की अपीलीय सुनवाई का संवैधानिक अधिकारी होता है। और, दूसरा यह कि न्यायिक दण्डाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत होने वाले समस्त आपराधिक प्रकरणों में पालनीय प्रक्रिया यही होती है कि अभियोग-पत्र की प्रस्तुति के बाद सम्बन्धित न्यायिक दण्डाधिकारी स्व-विवेक से यह विचारण करता है कि उसके समक्ष प्रस्तुत प्रकरण और उसमें आरोपियों पर लगायी धाराएँ, प्रथम दृष्टया, विचारणीय हैं भी या नहीं? प्रशासनिक रूप से अपने ही नियन्त्रक द्वारा अनुमोदित किये जाकर प्रस्तुत हुए अभियोग-पत्र की ग्राह्यता और फिर, इस सम्भावना के पूरे खुले पन से कि नामित आरोपी कतई निर्दोष भी हो सकते हैं, समूचे प्रकरण पर न्यायिक विचारण भी; ऐसी ही अट-पटी न्यायिक परिस्थितियों के संकेतक हैं। प्रजातान्त्रिक दुर्भाग्य से, इनकी विवेक-पूर्ण समीक्षा को टालना ही न्याय-हित में हित-कर समझा जाता रहा है।