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सबसे बड़ी चिन्ता

डॉ० ज्योति प्रकाश, भोपाल.

सत्ता-तन्त्र की ओर से यह घुट्टी पिलाने का प्रयास किया जा रहा है कि महिलाओं की 
अस्मिता की रक्षा के लिए कठोर कानून की ताजी माँग निरर्थक ‘हाय-तौबा’ है और सारा ‘हो-हल्ला’ महज टीआरपी की मीडियाई भूख की देन है। यह भी कि सरकार ‘कानून’ की समीक्षा कर रही है। राष्‍ट्रीय दुर्भाग्य से कोई यह पूछता नहीं दिखता कि आखिर सरकारी तन्त्र  की  ‘नीयत’ की समीक्षा कब होगी?

उधर मौनी बाबा ने अन्तत: अपना मौन तोड़ा और इधर देश के गृह मन्त्री सुशील कुमार शिन्दे ने चिर-परिचित सपाट भाव-भंगिमा के साथ गृह मन्त्री के पद पर देरी से बैठाये जाने का सार्वजनिक सियापा पढा। ‘सरकार-कानून क्या कुछ करेगा’ और ‘उसके इस कुछ कर पाने की समय-सीमा क्या होगी’ जैसे कठिन सवालों से बचने शिन्दे बार-बार यही स्पष्‍टीकरण देते रहे कि क्योंकि वे नये-नये ही गृह मन्त्री बने हैं, परिस्थितियों और कानूनों को समझने-परखने में उन्हें समय लगेगा!

जैसे एक कुशल योद्धा अपनी गद्दी को मिलती चुनौती की गम्भीरता को भाँप कर ही जिरह-बख़्तर ओढ़ने का निश्‍चय करता है, बलात्‍कार पीड़ित दामिनी के मामले पर लगातार दस दिनों से होते प्रदर्शनों की आँच के अपने राजनैतिक भविष्य तक पहुँच चुकने को भाँप कर, राष्‍ट्रीय विकास परिषद्‌ की बैठक में प्रधान मन्त्री ने कहा है कि महिलाओं की सुरक्षा सबसे बड़ी चिन्ता है। देश को सुनाने के लिए अपने लिखित भाषण से मनमोहन जिस समय यह लाइनें पढ़ रहे थे ठीक उसी समय सरकार गुप-चुप रूप से यह व्यवस्था करने में जुटी हुई थी कि बलात्‍कार पीड़िता की आखिरी साँस देश की सीमाओं से बाहर लिया जाना सुनिश्‍चित हो।

आम नागरिक अचम्भित है कि मनमोहन के हृदय-पटल पर ताजी चिन्ता अन्तत: कितने दिनों तक छायी रहेगी? विवश और हत्प्रभ हुए नागरिक के सामने बड़ा सवाल यह भी है कि एक समय राष्‍ट्रपति बनने की होड़ में रह चुके शिन्दे जैसे वरिष्‍ठ राज-नेता को, उसे सौंपे जा चुके दायित्व की गम्भीरता और उसके निर्वाह के लिए मिले अधिकारों की समीक्षा के लिए, आखिर कितने समय की दर-कार होनी चाहिए?
सबसे बड़ी चिन्ता
सन्दर्भ चाहे जो हों, समूचे भारतीय दृष्‍टि-पटल पर ही प्रकारान्तर से, मिलती-जुलती स्थितियाँ ही दिखलाई पड़ती हैं। किन्तु, दामिनी-प्रकरण में आम भारतीय को अपने सवालों की चिन्ता मुख्यत: इन कारणों से सता रही है —

(१) बीते बारह महीनों में राजनीति के इस मौनी बाबा की ‘सबसे बड़ी’ चिन्ताओं के बैनर छहों बार बदले हैं। वह भी बिना कुछ ठोस कदम उठाये या फिर, भगवान-भरोसे सफलता पाये ही। बिल्कुल, फ़ेस बुक या ट्विटर पर किये जाते अप-डेट की तरह। सम्भवत: केवल इसलिए कि उन्हें औसत भारतीय मानस की अपनी राजनैतिक समझ पर भरोसा है। वे समझ चुके हैं कि ताजे सिनेमा का पोस्टर चस्पा होते ही इस देश का सिने-प्रेमी नये तमाशे के प्रति जितना उत्सुक हो उठता है, उतारे गये सिनेमा की समीक्षा-जुगाली उसकी आंशिक गम्भीरता से भी नहीं करता।

(२) दामिनी का बयान लेने पहुँची एसडीएम उषा चतुर्वेदी ने दो-टूक आरोप लगाया कि दिल्ली पुलिस के तीन वरिष्‍ठ अधिकारियों ने उस पर इस बात के लिए भरपूर दबाव बनाया था कि वह पुलिस की इच्छा की पूर्ति करने वाला बयान ही दर्ज करायें। इसके बाद जब दिल्ली की मुख्य मन्त्री शीला दीक्षित पूरे लाव-लश्‍कर के साथ इसकी शिकायत करने देश के गृह मन्त्री सुशील कुमार शिन्दे तक पहुँच गयीं तब केन्द्रीय सरकार के अधीन पुलिस के उच्च-पदस्थ अधिकारियों ने न केवल एसडीएम को लांछित करने वाले सार्वजनिक बयान दिये बल्कि यह भी कहा कि वैसी स्थिति में उसे पीड़िता का बयान लिए बिना लौट आना था। लेकिन क्योंकि उसके ऐसा करने से भी पुलिस का दूषित उद्देश्य पूरा हो जाता, एसडीएम ने यह नहीं किया और पीड़िता का बयान दर्ज कर लिया था; आपा-धापी में पीड़िता का बयान नये सिरे से दर्ज कराया गया। किन्तु, समर्थों के हित-संरक्षण में, पहले से लागू कानून के पालन की हुई दुर्दशा के इतने गम्भीर खुलासे के बाद भी देश के प्रधान मन्त्री ने चुप रहने को ही अपनी बुद्धिमत्ता माना।

(३) २८ दिसम्बर को देर रात सिंगापुर में दामिनी की साँसे चुक जाने के बाद २९ को देश के गृह मन्त्री ने ‘अनुभव की अपनी कमी’ का देश व उसके संविधान को शर्मिन्दा करने वाला रोना तो रोया ही; सिंगापुर में मृतक के परिवार-जनों पर दबाव भी बनाया गया कि वे अन्तिम संस्कार दिल्ली में नहीं बल्कि अपने पैत्रिक गाँव में ही करें। लेकिन, जब वे दिल्ली पर ही अड़े रहे तब पार्थिव शरीर को देश वापस लाने में इतनी देर मैनेज करायी गयी कि २९ की रात आठ बजे आने वाला विशेष विमान सुबह साढ़े तीन बजे ही दिल्ली पहुँच सका। यही नहीं, दाह-संस्कार अगले दिन करने की मीडिया खबरों के २९ को पूरे दिन चलाये जाने के बाद अन्तिम संस्कार ३० को आनन-फानन सुबह साढ़े सात बजे ही सम्पन्न करा दिया गया।

(४) इस सब के बीच, दामिनी की साँसें थम जाने के बाद, बलात्‍कार के अपराध के लिए अपराधियों को मृत्यु-दण्ड ही देने की माँग को लेकर उग्र हुए आन्दोलन-कर्त्ताओं को यह सन्देश देकर सन्तुष्‍ट कराने का बे-हद चतुर प्रयास भी किया गया कि अभियोजन अपराधियों को मृत्यु-दण्ड देने की माँग अवश्य करेगा। किन्तु, इस सन्देश को आन्दोलन के दबाव में सरकार की नीयत में आया बदलाव मान लेना गम्भीर भूल होगी। कड़वी सचाई यही है कि देश का समूचा मानस चीख-चीख कर माँग कर रहा था कि बलात्‍कारियों को मृत्यु-दण्ड देने का कानून अविलम्ब बनाया जाये जबकि सरकार इसके लिए बिल्कुल तत्पर नहीं थी। लेकिन, क्योंकि किसी अपराध के क्रम में पीड़ित की मृत्यु हो जाने की स्थिति में मृत्यु-दण्ड का प्रावधान कानून में पहले से ही है; दामिनी की मृत्यु की बदली हुई परिस्थिति ने सरकार को इस दबाव से बाहर निकलने का मार्ग उपलब्ध करा दिया। दामिनी की हत्या के अपराध में अपराधियों को मृत्यु-दण्ड की माँग को रखने में अब उसे कोई विशेष द्विविधा नहीं होगी। ‘साँप का मरना और लाठी का भी नहीं टूटना’ इसे ही कहते हैं। 
डॉ० ज्योति प्रकाश, भोपाल.
डॉ० ज्योति प्रकाश, भोपाल.
 शासन-तन्त्र की धुरी में विराज-मान अत्यन्त विशिष्‍ट जनों की ऐसी सर्वथा निन्दनीय सोच वास्तव में अभिजात्य वर्ग की उस निकृष्‍ट मानसिकता की ही देन है जो दायित्व-निर्वाह के लम्बे-चौड़े आश्‍वासनों का झुन-झुना थमा कर सत्ता-सूत्र तो हथिया लेते हैं लेकिन इसको पाते ही देश और समाज के प्रति सत्ता के शाश्‍वत् दायित्वों से हाथ झाड़ लेते हैं — वे ऐसे बातूनी हथ-कण्डों के माहिर होते हैं। कांग्रेसी सांसद और महामहिम राष्‍ट्रपति के बेटे अभिजीत मुखर्जी ने तो सत्ता-तन्त्र पर वारिसाना कब्जे का दावा रखने वाली जमात की एक तरह से कलई ही उतार कर रख दी है। अभिजीत ने महिला-अस्मिता की रक्षा के लिए ठोस कदम की माँग के साथ उठे आन्दोलन पर व्यंग्य करते हुए कहा कि आन्दोलन-कारी कैण्‍डल-मार्च करते हैं और फिर डिस्को चले जाते हैं। ऐसी भाषा और उसमें निहित छिछोरे भाव से ताजे शर्म-नाक घटना-क्रम को कुहासे के पीछे ढकेलने में जुटने वाले अभिजीत ऐसे अकेले व्यक्‍ति नहीं हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि विकास के झूठे सपने दिखला कर, और न्यौत-न्यौत कर, आयातित किये बाजार-वाद तथा उसके लिए ग्राहक-फाँसने में जुटे दूषित विज्ञापनों के कारण विकृत होते समाज में शरीर सौष्‍ठव तथा प्रसाधन उपकरणों के सहारे अपने अंग-सौंदर्य के पोस्टर्स फहराते घूमने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। इसमें भी सन्देह नहीं कि, क्योंकि सभ्यता के विकास का नाम देकर ऐसी मानसिकता को बढ़ावा देना भी हमारे समाज से छल करना है; इससे सतर्क रहने का पाठ पढ़ाना भी न तो कानूनी अपराध है और ना ही नैतिक। इसके उलट, भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में, यह सराहनीय है। लेकिन इतना सब होते हुए भी और न चाहते हुए भी, केवल तर्क की सुविधा के लिए यह मान लेने पर भी कि अब तो बहुसंख्य भारतीयों की ही मानसिकता अत्यन्‍त विकृत हो चुकी है; यह मूल प्रश्‍न शाश्‍वत्‌ है कि, भले ही वह अकेला ही क्यों न हो, इस सबसे अछूते बच रहे नागरिक की अस्मिता की रक्षा का ठोस समाधान करने के प्रति सत्ता इतनी निर्विकार होकर कैसे बैठी हुई है?

कहने को बहुत कुछ है। जहाँ, बुद्धू-बक्से के एक चैनल पर जीवन्त बहस में एक बड़-बोले ‘पुरुष’ राज-नेता ने अपनी विपक्षी एक ‘महिला’ नेत्री पर बड़ी अभद्र टिप्पणी कर दी कि वे स्वयं तो ‘ठुमके’ लगाती हैं लेकिन ‘मेक-अप करके’ टीवी की ऐसी बहसों में भाषण झाड़ती हैं। वहीं, एक ‘महिला’ वैज्ञानिक ने पूरे होशो-हवास में वक्‍तव्य दे डाला कि यदि सामूहिक बलात्‍कार की उस घटना में दामिनी ‘समर्पण’ कर देती तो उसकी आँतें निकालने की नौबत कभी नहीं आती!

कानून और व्यवस्था के पालन को होते देखने की मंशा के ऐसे कितने ही विकृत उदाहरण प्रति-दिन अनुभव होते हैं। इस सब के बीच समाज का सबसे गहरा यह तत्‍व सिरे से ही विस्मृत रखा जाता है कि ‘समाज’ की धारणा में ‘कानून का पालन’ मात्र दूसरी सीढ़ी ही है। पहली सीढ़ी तो यही है कि ऐसी व्यवस्था बनाये रखी जाये कि कानून के दण्ड के प्रयोग की आवश्यकता निम्नतम्‌ रूप से पड़े। और, इसमें सन्देह नहीं कि यह आदर्श स्थिति केवल तभी सम्भव है जब सत्ता की धुरी में न केवल व्यवस्था को सुनिश्‍चित करने की नैतिकता हो बल्कि उसमें, आवश्यकता पड़ने पर, कानून का निष्‍छल पालन होते देखने का आत्म-बल भी हो। हमारे देश में इन दोनों ही मूल-भूत सामाजिक पक्षों का निरन्तर ह्रास हो रहा है। देश और समाज की सबसे बड़ी चिन्ता तो यही होनी चाहिए कि आज क्या राजनैतिक नेतृत्‍व, क्या प्रशासनिक वर्ग, क्या मीडिया और क्या न्याय-व्यवस्‍था; प्रत्येक जिम्मेदार पक्ष में इसके प्रति अत्यन्त निष्‍ठुर तटस्थता व्याप गयी है। दुर्भाग्य से, कानून के प्रति आस्था रखने की दुहाई तो हर कोई देता फिर रहा है लेकिन इस ‘हर कोई’ में से एक भी यह ठोस आश्‍वासन देने की स्थिति में नहीं दिख रहा कि कानून का पालन कराने के जिम्मेदार विभिन्न घटकों की नीयत पर भी आस्था रखी जा सकती है। दामिनी-प्रकरण ऐसा पहला मामला नहीं है जिसमें किसी घटना-विशेष के मुखर रूप से सामने आने पर जिम्मे-दारों में से ‘हर कोई’ भर-सक प्रयास करता है कि उसे ‘घटना-विशेष’ से अधिक महत्‍व कतई नहीं मिले; उससे इसी तरह निपटने भी दिया जाये।

परिस्थितियों का व्यंग्य समझना हो तो कार्य-पालिका, विधायिका और न्याय-पालिका की वर्तमान चिन्तनीय दशा के साथ ही प्रचार-प्रसार के शक्‍ति-शाली माध्यमों की कथनी और करनी के परस्पर विरोधी स्वरूप की भी पड़ताल करनी होगी। इस एक सचाई में निहित गम्भीरता की व्यवहारिक समीक्षा करनी होगी कि दामिनी-प्रकरण पर दिन-रात एक कर देने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अधिकांश चैनलों के ध्येय-वाक्य (सिग्नेचर-स्लोगन) चाहे जो हों कमो-बेस सभी ने स्वयं को विज्ञापन-प्रसार के सुलभ ठिकानों के रूप में इस सीमा तक विकसित कर लिया है कि वे दामिनी-प्रकरण में नैतिकता से जुड़ा छोटे से छोटा सवाल उठाने की भी पात्रता खो चुके हैं। 

डॉ० ज्योति प्रकाश, भोपाल.
दो-पहिया वाहन हों अथवा शयन-कक्ष में आराम-देही के सहज-स्वाभाविक साधन, स्वाद के चटखारे लेने वाले व्यंजन हों या खुशबुओं का आनन्द लुटाने वाले आधुनिक माध्यम, ठण्डक से राहत दिलाने वाले अधो-वस्‍त्र हों या फिर त्वचा की नैसर्गिक सुन्दरता लौटाने/बढ़ाने का दावा करते क्रीम-लोशन; इन सभी में नारी और उसके देह-आकर्षण को इतने विकृत रूप में परोसने की होड़ लगी हुई है कि समाचार प्रसारित हो रहा हो या मनोरंजन परोसता कार्य-क्रम, टीवी के सामने स-परिवार बैठा हर पिछली पीढ़ी का व्यक्‍ति अपनी ही संतति के आगे बगलें झाँकता मिल सकता है। मोबाइल और फ़ैशन उत्‍पादों के तो क्या कहने? स्‍त्री-स्वातन्त्र्य की प्रायोजित बहसों के बीच स्‍त्री तथा पुरुष दोनों ही मानसिकताओं को बराबरी से विकृत करते ऐसे ही भौतिकता-वादी बाजारू वातावरण के बीच ठण्ड से बचाव का अतिरेक-भरा दावा करता एक टीवी विज्ञापन प्रत्येक चैनल पर दिख जाता है — ‘जितना कम पहनोगे उतना हॉट दिखोगे!’ वहीं, बहुत ही कम उम्र के बच्चे और उसके युवा माता-पिता वाले उस विज्ञापन को नैतिकता की किस कसौटी पर स्वीकार्य ठहराया जा सकता है जो बच्चे के सामने ही माता की देह को टटोलने के बहाने तलाशते पिता को दिखलाता है? 
 हमारे देश में इस सब का विरोध करने वालों को ‘पिछड़ी मानसिकता’ वाला ठहरा कर मूल्य-पतन की राह खोलने के प्रयास में जुटे भौतिकता-वादी वर्ग का ‘पश्‍चिम से सीख लेने’ वाला जुमला आज आम हो गया है। इस सब के बीच, हाल ही में, एक नया टीवी विज्ञापन आया है। यों, सतही रूप से तो यह विज्ञापन इस पश्‍चिम-समर्थक जुमले के पीछे छिपी कलई को उतारता है; लेकिन, इसकी यथार्थ नीयत पश्‍चिमी समाज के तथा-कथित खुले-पन तक को प्रभावित करने वाले उत्पादों को भारत में विज्ञापित कर उसके लिए बाजार तलाशने की है। 

डॉ० ज्योति प्रकाश, भोपाल.
संक्षेप में रखें तो, यह विज्ञापन कुछ इस तरह का है कि एक अमरीकी युवक अपनी ‘दोस्‍त’ का परिचय पिता से कराता है। बाहर से आया पिता वाश-रूम जाता है और संयोग से वहाँ रखे परफ़्यूम का स्प्रे कर लेता है। पिता के बाहर लौटने के बाद, उस परफ़्यूम से उत्तेजित, बेटे की वह मित्र अत्यन्त भद्दे ढंग से पिता की ओर खिंची जाती है। जैसे यही पर्याप्‍त न हो, उत्तेजना के उसी क्रम में वह मित्र के पिता के बाहरी वस्‍त्रों को एक ही झटके में खींच कर इतनी बुरी तरह से फाड़ डालती है कि बुजुर्ग बाकी के सारे लोगों के बीच केवल पश्‍चिमी अन्त:-वस्‍त्रों पर आ जाता है। अपनी इस अट-पटी दशा पर बुजुर्ग की टिप्पणी होती है, “गॉड ब्लैस अमेरिका!” क्या दामिनी-प्रकरण के प्रकाश में कानूनी प्रावधानों के लिए उत्सुक दिखती बिरादरी ऐसे विज्ञापनों पर भी कोई बिल्कुल स्पष्‍ट नीति के बनाने और बिना कोई छूट दिये उसके लागू करने पर सर्वथा सार्थक विचार करेगी?

दामिनी-प्रकरण पर कानून के साथ ही स्वयं को भी खँगालने में रुचि रखने वालों को अपनी-अपनी चिन्ताओं को पूरी स्पष्‍टता से परिभाषित करने के अलावा यह प्रयास भी करना होगा कि ‘सबसे बड़ी’ चिन्ता को मुखर करने से पहले, इस चिन्ता की मूल-भूत प्राथमिकता को भी रेखांकित कर लिया जाये। ऐसी निर्विवाद एक-रूपता के साथ जिसके रहते अपराधियों के बच निकलने के सारे रास्ते बन्द होना सुनिश्‍चित होता हो।
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