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काश, राहुल के जज्बाती भाषण में महंगाई का भी जिक्र होता

एमए कमाल, भोपाल. 

काश, राहुल के जज्बाती भाषण में महंगाई का भी जिक्र होता
राजनीतिक विश्लेषक अभी भी राहुल की अगुवाई में बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात की पराजय को भूल नहीं पाए हैं। 
कुल मिलाकर राहुल का ग्लेमर अभी तक कोई करिश्मा नहीं कर पाया है। 
ये बात अलग है की अर्बन मीडिया राहुल को आज भी ब्रेकिंग न्यूज मटेरियल के रूप मे प्रस्तुत कर देता है। 
इसके पीछे भी उनकी न जाने क्या मजबूरी हो।

‘की मेरे कत्ल के बाद उसने जफा से तौबा,
हाय उस जूद पिशेमां का पशेमां होना. 

मिर्जा गालिब की उक्त पंक्तियाँ पिछले दिनों कांग्रेस के अधिवेशन में उपाध्यक्ष बनने पर राहुल गांधी ने जिस प्रकार का जज्बाती भाषण दिया और उसके माध्यम से कांग्रेस के लोगों ने अपनी पिछली तमाम गलतियों को भुलाने का प्रयास किया, उस पर शत प्रतिशत फिट बैठती हैं। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस को अपनी कुछ जन विरोधी या पी. चिदंबरम की भाषा में सुधारवादी गलतियों का पूरा आभास है। 
अभी कुछ दिनों पूर्व तक कांग्रेस ने जो भी काम किए, उनसे ऐसा लगने लगा था कि, उनको अगला आम चुनाव लड़ना ही नहीं है, या वे जान बूझकर दूसरों को मौका देने के लिए प्रयासरत हैं। चाहे वो महंगाई की बढती ही नहीं बल्कि बेकाबू होती समस्या हो, सस्ते रसोई गैस सिलेंडर की संख्या को कम किया जाना हो, अपने पुराने साथियों को नजरंदाज करना हो, या फिर भ्रष्टाचार के खेल को खुल कर खेलने की बात हो। 
सच्चाई तो यह है की यूपीए-2 में मनमोहन सरकार ने जो कुछ भी किया, वो इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की कर्बानी के नाम पर भुलाया नहीं जा सकेगा। आज देश में दूर दराज के गावों तक रहने वाला आदमी अब इतना सीधा-साधा और भावुक नहीं रहा है, जितना की की वो अस्सी और नब्बे के दशक में हुआ करता था और वो इंदिरा मय्या के नाम पर ब्लेकमेल हो सके। उसे तो आज तक कांग्रेस के मंत्रियों शरद पंवार, कमलनाथ और योजना आयोग द्वारा अपने बारे में गढ़ी गयी नई-नई परिभाषाएं याद हैं। जिस से उसको बार-बार अपना चूल्हे की लौ मद्धम होती हुई दिखने लगती थी। ऐसे में पिछले पांच सालों की गलतियों को केवल एक भाषण भर में भुलाया जाना इतना आसान भी नहीं है।
रहा सवाल राहुल के उपाध्यक्ष बनने का, तो ये कोई इतना बड़ा फै सला भी नहीं है, जितना की गांधी परिवार के चाटुकार कांग्रेसी दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी पार्टी में तो वैसे भी उपाध्यक्ष बनाने की परम्परा प्रचलित नहीं है। जहां तक मुझे याद पड़ता है, अर्जुन सिंह; राजीव गाँधी के जमाने में और जीतेन्द्र प्रसाद; नरसिम्हा राव के समय में इस पद पर रह चुके हैं। आज की स्थिति में उपाध्यक्ष का पद तो केवल ऐसा है, जैसे टू सीटर के बीच किसी बच्चे को बैठा दिया गया हो।
अगर राजनीतिक दृष्टिकोण से इस ताज पोशी को देखें तो ये एक बहुत संभाल के लिया गया फैसला है, क्योंकि राजनीतिक विश्लेषक अभी भी राहुल की अगुवाई में बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात की पराजय को भूल नहीं पाए हैं। 
कुल मिलाकर राहुल का ग्लेमर अभी तक कोई करिश्मा नहीं कर पाया है। ये बात अलग है की अर्बन मीडिया राहुल को आज भी ब्रेकिंग न्यूज मटेरियल के रूप मे प्रस्तुत कर देता है। इसके पीछे भी उनकी न जाने क्या मजबूरी हो। 
चेतावनी के तौर पर हमारे देश के राजनीतिक दलों को ये भूलना नहीं चाहिए कि, गरीब विरोधी और जनविरोधी नीतियों के बाद जनता के बीच अच्छे परिणाम की उम्मीद लेकर जाना बेमानी है। यदि यूपीए 2 को मैं सामंतवादी कांग्रेस शासन की संज्ञा दूं तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी।
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