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बिन प्रभात कैसे खिलेगा कमल...?

जगदीष शुक्ला, जौरा(मुरैना).
कुदरत ने कमल को यूं तो बैसे ही नाजुक मिजाज बनाया है, ऊपर से उसकी पांखुरियों को फैलाने के लिये सूरज की किरणों की पहरेदारी भी मुकर्रर कर दी है। मतलब कमल खिलने की दो शर्तें काफी अहम हैं। एक तो कीचड़ और दूसरी सूरज की किरण यानि प्रभात। प्रदेश में नौकरशाही के मनमाने मिजाज और अराजकता को यदि कीचड़ मान लिया जाए तो उसके खिलने के लिये दूसरी शर्त प्रभात होना भी लाजिमी है। क्योंकि, सूरज निकलेगा तभी प्रभात होगा। बात मानें या न मानें, कमल खिलाने के लिये प्रभात जरूरी है, लेकिन सियासी कानाफूसी जो संकेत दे रही है उसके मुताबिक प्रभात हाशिये पर हैं। अकेले प्रभात ही क्यों, उनके साथ प्रदेश का एक बहुत बड़ा तबका भी अपने आप को हाशिये पर सिमटा हुआ देख रहा है। ये हम नहीं कह रहे प्रभात भी शायद अनुशासन के पार्टीगत संस्कारों के चलते नहीं कह पाएं, लेकिन प्रदेश के सियासी हालात इस बात को चीख- चीखकर बयां कर रहे हैं कि प्रदेश की राजनीति में प्रभात हाशिये पर न सही, लेकिन वह अपने मुकाम पर भी नहीं हैं। 

  बिन प्रभात कैसे खिलेगा कमल...?
ज्यादा वक्त नहीं बीता प्रदेश के सत्तारुढ़ दल के नये सूबेदार की ताज पोशी का फैसला, जिस गोपनीय ढंग से लिया गया, किसी से छिपा नहीं है। ऐसी साजिश अपने ही हमसफर से कि खुद प्रभात भी अपने मन की वेदना का दबा नहीं सके। तमाम राजनैतिक बंदिशों के बावजूद अनुशासन की लक्ष्मण रेखाओं को पार कर उनकी पीड़ा फूट पड़ी। सत्ता और संगठन में जिस कदर नये सूरमा का अदब देखा जाता है, वह किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कतई जायज नहीं कहा जा सकता। प्रदेश की राजनीति में जिस तरह उनका वन-वे ट्रेफिक चल रहा है, वह भले ही गलत ना हो, लेकिन उसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल भी नहीं कहा जा सकता। जिले के प्रभारी मंत्री से लेकर प्रदेश के कद्दावर सियासी वजीर, जिस तरह उनके क्षेत्र में दौरा करने से कतराते हैं, वह भी किसी से छिपा नहीं है। 
जिले में प्रशासनिक अधिकारियों की तैनाती का सवाल हो अथवा अन्य कोई सियासी फैसला, प्रदेश के सियासी वजीरों को इस संबंध में फैसला लेना तो दूर सोचने तक का अधिकार नहीं है। मुरैना जिले के अब तक रहे प्रभारी मंत्रियों के दौरा कार्यक्रमों से इस की पुष्टि की जा सकती है। आखिर सरकार के मुखिया की घोषणाओं के बावजूद अपने प्रभार क्षेत्र में दौरा क्यों नहीं कर सके?
यही नहीं, प्रभात झा के हटते ही प्रदेश का एक बड़ा तबका भले ही अपनी पीड़ा का इजहार ना करे, लेकिन वह अपने आप को कहीं न कहीं असुरक्षित जरुर महसूस कर रहा है, उसके मन में एक अज्ञात दहशत पैठ कर गई है। एक समूचा वर्ग जो अटल जी के समय इस पार्टी को अपनी पार्टी समझकर काम करता था, आज उसी पार्टी में यह वर्ग बेगाना जैसा हो गया है। 
जिले में एक नहीं ऐसी कई घटनायें गिनाई जा सकतीं हैं, जिनमें एक खास वर्ग को निशाना मानकर कार्यवाही को अंजाम दिया गया। इन घटनाओं के पीछे भले ही उनका कोई हाथ ना हो, लेकिन यदि ऐसा है तो इससे अधिक निरंकुश अधिकारी किसी जन कल्याणकारी सरकार, जो सुशासन और सुरक्षा का विश्वास देकर सत्ता में आई हो उसका हिस्सा नहीं हो सकते। हां, इसकी एक वजह अंचल में किसी सक्षम नेता का अभाव हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि, एक खास वर्ग को इतना त्रसित किया जाए कि वह अपने आप को असुरक्षित महसूस करने लगे।
  बिन प्रभात कैसे खिलेगा कमल...?
जिले के सियासी हालात भी इस बात की पुष्टि करते हैं, संसदीय क्षेत्र के दोनों जिलों से लेकर मण्डल तक में इस वर्ग को पार्टी के नेतृत्व तो दूर प्रतिनिधित्व तक का मौका नहीं दिया गया। 
नौकरशाही का भी कमोबेश यही आलम है। पार्टी कार्यकर्ता की वकत ना तो पहले थी और ना आज है। उपेक्षित कुंठित कार्यकर्ता की भौंतरी तलवार विरोधी दलों पर कितना प्रभावी वार कर सकेगी, विचारणीय विषय है, अगर किसी पार्टी हितैषी को इसके लिए समय और साहस हो तो।

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