डॉ० ज्योति प्रकाश, भोपाल.
यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि हमारे सामने अभी भी यह साफ़ नहीं है कि, आज ही सही, हम उस त्रासदी की आँच में झुलस रहे भोपाल गैस पीड़ितों के लिए ऐसा कुछ क्या कर सकते हैं जो समर्थ रहते हुए भी हमने तब केवल इसलिए बिल्कुल नहीं किया कि हम प्रत्यक्ष-परोक्ष स्वार्थों से आकण्ठ घिरे हुए थे?
सत्ताइस साल पूरे हो गये। हल्ला-गुल्ला, दिखावा भरपूर हुआ। पच्चीस साल पहले भी, बीते पच्चीस साल पूरे होने पर भी और अब छब्बीसवें साल की शुरूआत में भी। यह हमारे समाज का अँधेरा पक्ष ही है कि सियापा पढ़ने में हमारी बराबरी का और कोई दूसरा नहीं मिलेगा। कोसने और दोषारोपण करने में भी इस धरती पर हमारी कोई सानी नहीं है। बस, भरसक सकारात्मक योगदान करना भी उतना ही गहरा दायित्व है यह अधिकतर हम भुला देते हैं। शायद जानते-बूझते हुए ही।
यह सत्य है कि पच्चीस साल पहले की २ दिसम्बर १९८४ की ठिठुरती उस त्रासद रात के बाद ऊगे सूरज की पहली किरण की गर्माहट ने हममें मानवीयता की क्षीण सी एक लौ सुलगायी थी किन्तु उसके बुझने में भी कुछ अधिक समय नहीं लगा।
उसके बाद बीते इन पच्चीस सालों में धुएँ के कुछ गुबार बीच-बीच में उठते अवश्य दिखे हैं लेकिन अनुभव की आँच में अब तो यह अन्तर करना भी कठिन हो गया है कि हमारे बीच में करवट सी लेती दिखती यह छटपटाहट कितनी हमारी आत्मा की आर्तनाद रही है और कितनी श्मशान की आँच में अपने लिए रोटी सेंकने की सम्भावना को टटोलने वाली बेशर्म लालसा?
आँखों-देखी बयान करने वालों और किस्सा-गोयों की बातों पर विश्वास करें (और फिर अविश्वास भी करें तो आखिर क्यों?) तो लब्बो-लुबाब यही है कि अरबों-खरबों का वारा-न्यारा कर नीयत से जुड़े तथ्यों पर धूल झौंकने के प्रयास में नियम-कानून-संविधान तो मामूली सी बात थी, स्वयं आदमीयत पर ही अकूत मिट्टी पूर दी गयी। हाँ, विध्वंसक प्रायोगिक विज्ञान से जुड़े तथ्यों को दोनों अंजुलियों ढूँढ़ा-खोजा भी गया और आदमीयत से आँखें चुराते हुए उन्हें गिने-चुने दरिन्दों को ‘उचित’ दामों पर बेचा भी गया!
पहली बार, जब विस्तार से यह सुना कि एक बड़े राजनेता ने अपने एक चहेते प्रशासकीय अधिकारी के नातेदार उड्डयन कर्मचारी के हाथों कैसे चार हजार करोड़ की रकम विदेश पहुँचाई तो भरोसा नहीं हुआ था। फिर, बाद के सालों में यह सामने आया कि उस अत्यन्त मारक गैस मिक (एमआईसी) के प्रभाव के लपेटे में आये, मरे या जैसे-तैसे बच रहे से, जीवों की जाँच से उस समय गिने-चुने ‘विज्ञानियों’ के सामने आया एक भी गम्भीर प्राणि-विज्ञानी तथ्य न तो सार्वजनिक हुआ और न ही सचाई के साथ शासन के हाथों में पहुँचा।
इकट्ठे किये गये विसरा के अवशेष भी मौजूद नहीं होने की बातें बीच-बीच में कानों में पड़ती रही हैं — उन्हें ‘विदेशी हितों’ को बेच दिये जाने के मौखिक आरोपों के बीच। और, यह पैसों का खेल नहीं तो क्या है कि इन अत्यन्त गम्भीर आरोपों को हमारे कानों में उड़ेलने वाले ‘मुखारविन्द’ उन ‘विज्ञानियों’ के ही रहे हैं जो उस त्रासद काल में, वैसे तो, शारीरिक रूप से एक ही टीम में हुआ करते थे लेकिन, सम्भव है, बन्दर-बाँट से उपजी किसी गहरी कड़वाहट ने उन्हें मानसिक रूप से परस्पर धुर विरोधी खेमों में बाँट दिया था।
खैर, जो हो चुका उसका सियापा ही पढ़ते रहने का अब कोई अर्थ नहीं है। अब तो आवश्यक यह है कि हम अपने-अपने भीतर स्वयं ही यह देखने-समझने का हर सम्भव प्रयास करें कि हम जो, केवल अपनी ओढ़ी हुई तटस्थता के ही कारण, उस भीषण त्रासदी को होने से रोकने में असमर्थ रहे थे; अब उस त्रासदी की आँच में झुलस रहे पीड़ितों के लिए ऐसा कुछ क्या कर सकते हैं जो समर्थ रहते हुए भी हमने तब केवल इसलिए बिल्कुल नहीं किया कि हम प्रत्यक्ष-परोक्ष स्वार्थों से आकण्ठ घिरे हुए थे? इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहा जाये कि हमारे सामने अभी भी यह साफ़ नहीं है। जबकि, हमारी ईमानादारी यदि हमें यह बतला सके तो हमारे लिए अपनी आगामी दिशा का निर्धारण करना आसान हो जायेगा।
‘मुआवजा’ ऐसी त्रासदियों का अविभाज्य अंग है, इस पर कोई बहस हो ही नहीं सकती है। लेकिन यह ऐसी अप्राकृतिक त्रासदियों का केवल तात्कालिक पक्ष है। इसलिए मुआवजे के इस दायित्व से पीड़ितों के बीच दयनीयता और कदाचित् भिखमंगी पनपाने के पाप की ओर उन्मुख करने वाली मनसिकता का बीजारोपण न हो, यह भी तमाम बहसों से परे होना चाहिए। मुआवजे की माँगों से जुड़े हर व्यक्ति को समझना होगा कि आर्थिक समायोजन कभी भी सहज-स्वाभाविक जीवन का स्थानापन्न नहीं हो सकता। इसलिए मुख्य प्रयास त्रासदी की स्याह पट्टी पर लिख दी गयी विभीषिका की इबारत के प्रत्येक अक्षर को अचूक ढंग से मिटाने की ओर प्रेरित होना चाहिए।
सारा, या कहें कि अधिकांश, प्रयास इसी एक दिशा पर केन्द्रित होना चाहिए कि त्रासदी, इससे सीखे सबक और अभी तक उठाए गए कदमों की समीक्षा के साथ ही साथ सरकार-उन्मुख राहत की चाह के स्थान पर ऐसी माँग करने वाले पूरी ईमानदारी से यह आत्म-चिन्तन करें कि यथार्थ-पीड़ितों के बीच वे, शब्दों के कोरे बही-खातों से ऊपर उठकर यथार्थ में भी, अपनी-अपनी बौद्धिक-आर्थिक सम्पदा का कितना कुछ और कैसे बाँट सकते हैं? कि, सदी की घटी इस सबसे संहारक औद्योगिक त्रासदी के दुष्परिणामों के पीड़ितों के बीच, पीढ़ी-दर-पीढ़ी, उभरने की सम्भावनाएँ कैसे जड़ से मिटा दी जायें?
भोपाल गैस त्रासदी के पचीस साल बीतने पर ही सही, हम आज भी ऐसा करने की दिशा में एक छोटा सा कदम बढ़ा पायें तभी उस त्रासद काली रात की यादगार से निकले सबक को आदमीयत के इतिहास के सुनहरे अक्षरों से लिख सकेंगे। तभी, हम यह अत्यन्त आवश्यक दावा भी कर पायेंगे कि हमें न केवल अन्धी धन-लोलुपता की आँच में जलने-झुलसने का गम्भीर अनुभव है बल्कि, हमने इसकी त्रासदी से निकला पाठ भी इतने अमिट रूप से ग्रहण कर लिया है कि अब पच्चीस साल पहले जैसा कोई दुहराव फिर कभी हो नहीं सकेगा।
सपना ही है स्याह-सर्द रात के बाद की गर्माहट
दिसंबर 31, 2012
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