खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से क्यों नहीं होगा रोजगार के अवसर का सृजन..?
शंकर दास,
मेंबर, सेंट्रल कमेटी,
भारत की कम्युनिष्ट पार्टी (मॉर्क्सवादी-लेनिनवादी).
केन्द्र सरकार ने देश के खुदरा व्यापार को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोलने का निर्णय लिया है। सरकार का यह निर्णय उसके बहुप्रचारित ‘सुधार कार्यक्रम’ का हिस्सा है जो, उनके अनुसार, देश को विकास और समृद्धि की ओर ले जाएगा। पूंजीवादी मीडिया लम्बे समय से यह प्रचार कर रही थी कि, सरकार को नीतिगत लकवे से बचने के लिए इस तरह का निर्णय लेना ही होगा। इसके पक्ष में माहौल बनाने के लिए वे जोरदार ढंग से यह तर्क रख रहे थे कि विदेशी निवेश आने से रोजगार के अवसरों का सृजन होगा। क्या यह बात सच है? जब कुछ विख्यात और नामी-गिरामी अर्थशास्त्री (जिन्हें इस गरीब देश में भारी वेतन देकर ऊंचे पद पर बैठाया गया है) इसके पक्ष में सकारात्मक जवाब देते हुए हां कह रहे हैं, तो मेहनतकश जनता अपना दोटूक फैसला देते हुए नहीं कर रही है। बात साफ है, इसे समझने के लिए अर्थशास्त्री होने की जरूरत नहीं है। उन्हें जिन्दगी का सामान्य सा अनुभव ही यह सीखा देता है। यही अनुभव बताता है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) से रोजगार सृजन नहीं होगा, उल्टे यह बड़े पैमाने पर जनता की आजीविका को खत्म कर देगा। चूंकि सरकारी मीडिया में रोजगार सृजन के नाम पर मुख्यत: नौजवानों को निशाना बनाया जा रहा है, इसलिए इस मामले में कुछ कहना हमारा कर्तव्य है।
क्या है एफडीआई ?
एफडीआई (फॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट, या प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) एक तरह का विदेशी पूंजी निवेश है, जिसे सीधे तौर पर उत्पादन और वितरण में निवेश किया जाता है। इसमें आम तौर पर प्रबंधन में भागीदारी, संयुक्त उपक्रमों की स्थापना, तकनीकी और विशेषज्ञता का हस्तांतरण आदि शामिल होता है। स्वाभाविक रूप से, एफडीआई का लक्ष्य होता है किसी देश में उत्पादन एवं सेवा क्षेत्र में पकड़ बनाने के साथ-साथ वहां के स्थानीय बाजार पर कब्जा करना।
यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि, भारत के खुदरा बाजार में तथाकथित भारतीय कम्पनियों के साथ संयुक्त उपक्रम के रूप में बहु-ब्रांड सेक्टर में पिछले करीब दो वर्षों से एफडीआई पहले से मौजूद है। एकल ब्रांड में खुदरा क्षेत्र में तो है ही। मुख्यधारा की किसी भी राजनीतिक पार्टी ने अब तक इसका विरोध नहीं किया है, जबकि एकल ब्रांड में विद्यमान एफडीआई ने बहु-ब्रांड खुदरा व्यापार में एफडीआई से कम नुकसानदेह नहीं है। यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि तथाकथितबड़ी भारतीय कम्पनियां (हमने तथाकथित इसलिए कहा है, क्योंकि वैश्विक पूंजी के इस युग में ज्यादातर मामलों में इन कम्पनियों में विदेशी पैसा लगा हुआ है), जैसे कि टाटा, बिरला, अम्बानी, पैन्टालून, गोयनका आदि पिछले कई वर्षों से खुदरा व्यापार में लगे हुए है और वे देश के विभिन्न शहरों में एक के बाद एक सुपरमार्केट खोल रहे हैं। वे भी छोटे दुकानदारों एवं अन्य लोगों की आजीविका को उसी तरह नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस मामले में भी कोई भी बड़ी राजनीतिक पार्टी अपना मुंह नहीं खोलती है। इसलिए हम खुदरा बाजार में केवल एफडीआई ही नहीं, बल्कि संपूर्ण संगठित खुदरा व्यापार के बारे में चर्चा करेंगे, ताकि हमारी दृष्टि समग्र, ईमानदार और वैज्ञानिक बनी रहे।
वे क्या करती हैं?
संगठित खुदरा व्यापार का भारत में थोड़ा अनुभव और दुनिया का व्यापक अनुभव दर्शाता है कि, सभी जगहों पर वे सबसे पहले अपने निकटतम प्रतिद्वन्द्वी को समाप्त कर देते हैं। हमें दिमाग में यह बात रखना चाहिए कि संगठित खुदरा व्यापार का अर्थ है, बड़े पैमाने पर निवेश और बड़ा निवेश अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए बड़ा मुनाफा चाहता है। इसका मतलब है कि इससे इजारेदारी, एकाधिकार की स्थिति निर्मित होना पूरी तरह निश्चित है। इसलिए संगठित खुदरा व्यापारी द्वारा शुरूआत में तो छोटे बिचैलियों को खत्म करने के लिए उत्पादकों को बेहतर भुगतान किया जाता है। इस तरह, संगठित खुदरा व्यापार के पहले चरण में ही एक हिस्से की आजीविका खत्म हो जाती है। तब एक खास परिस्थिति बनती है जहां अपना उत्पाद बेचने वाले तो बहुत से लोग (किसान व छोटे उत्पादक) होते हैं, मगर खरीददार केवल एक (संगठित खुदरा व्यापार करने वाली कम्पनी) होती है। अर्थशास्त्र में इस परिस्थिति को खरीददार की इजारेदारी कहते हैं। ऐसी परिस्थिति निर्मित होने पर खरीददार की इजारेदारी कायम करने वाली कम्पनी विक्रेता के लिए शर्तें व कीमत तय करती है। संगठित खुदरा व्यापार का पूरा इतिहास दर्शाता है कि इस कारोबार में लगी बड़ी कम्पनियों ने दक्षिण अमेरिका समेत दुनिया के विभिन्न हिस्सों में किस तरह किसानों को बर्बादी की ओर धकेला है। औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में भी यही किया जाता है। वे आपूर्तिकर्ता कम्पनियों पर अपने सामान की कीमत कम करने के लिए जबरदस्त दबाव डालती हैं। इस दबाव का नीचे की ओर असर होता है और इन कम्पनियों में मजदूरों का वेतन कम हो जाता है और काम की दशा अमानवीय हो जाती है।
आपूर्ति चक्र के दूसरे छोर पर, संगठित खुदरा कारोबारी शुरूआत में तो असंगठित खुदरा अपना सामान या किराना दुकानदारों से कम कीमत पर बेचते हैं, जिससे उनके निकटतम प्रतिद्वन्द्वी बेमौत मारे जायें। नतीजे में एक बहुत बड़ी आबादी की आजीविका खतरे में पड़ जाती है। सरकारी अधिकारी कभी-कभी कहते सुने जाते हैं कि संगठित खुदरा कारोबारी खुदरा बाजार के 20 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से पर कब्जा नहीं कर सकते हैं। यह बेहयाई से बोला गया सफेद झूठ है। दुनिया के कई देशों में, जैसे कि सिंगापुर में, 60 प्रतिशत से ज्यादा खुदरा कारोबार पर इनका कब्जा है। यदि हम 20 प्रतिशत के आंकड़े को सही मान लें, तो भी भारत जैसे देश के लिए यह संख्या काफी बड़ी है, जहां चार करोड़ किराना दुकानों पर करीब बीस करोड़ लोगों की जीविका निर्भर है। इसके अलावा, अन्य दो से तीन करोड़ लोग दुकान मजदूर के रूप में तथा सप्लायर कम्पनी और दुकान के बीच कड़ी का काम करके अपनी जीविका चलाते हैं। यदि संगठित खुदरा व्यापार से इस विशाल आबादी के बीस प्रतिशत की आजीविका खत्म होती है, तो यह संख्या पांच करोड़ से कम नहीं होगी।
इसके अलावा, जब संगठित खुदरा कम्पनी अपने निकटतम प्रतिद्वन्द्वी को खत्म करने में कामयाब हो जाएगी, तब फिर से एक खास परिस्थिति निर्मित हो जाती है। इस परिस्थिति में खरीददार तो ढेर सारे होते हैं, मगर विके्रता एक होता है। यह एक दूसरे किस्म की इजारेदारी है। ऐसी परिस्थिति में विक्रेता कम्पनी कीमतें तय करती है, जो जरूरत से ज्यादा होती है। तथापि खरीददार के पास दूसरा विकल्प नहीं होता, क्योंकि प्रतियोगी तो पहले ही मारा गया है। इस तरह एक छोर पर खरीददार की इजारेदारी आपूर्ति चक्र में आगे चलकर विक्रेता की इजारेदारी में बदल जाती है और संगठित खुदरा कारोबारी सुपर मुनाफा कमाने लगता है।
क्या यह सब सिद्धान्त कहने की बात है या हकीकत?
सरकार के निर्णय का पक्ष लेते हुए नव-उदारवादी राज के पैरोकार सिद्धान्तकार प्राय: ही यह प्रचार करते हैं कि उपरोक्त विवरण महज सिद्धान्त की बात है, हकीकत नहीं। लेकिन दुनिया के कई देशों में संगठित खुदरा व्यापार के बारे में किये गये अनेक अध्ययनों के आधार पर इस प्रचार का पर्दाफाश किया जा सकता है। बहरहाल, यहां हम भारतीय बाजार के अन्य क्षेत्रों में हुए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अनुभव का उल्लेख करना चाहेंगे, क्योंकि यह हमारे आँखों के सामने की बात है। एक संक्षेप केस स्टडी के बतौर हम एफएमसीजी (फास्ट मोविंग कंज्यूमर गुड्स), खासकर कोला बाजार में एफडीआई के अनुभव को सामने रखना चाहेंगे ।
आज से ठीक 35 साल पहले, 1977 में नवगठित जनता पार्टी की सरकार ने भारी जन दबाव के चलते वैश्विक दैत्य कोका कोला को भारत से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। तब एक मध्यम दर्जे की भारतीय कम्पनी, चौहान ब्रदर्स की पारले ग्रुप ने थम्प्स अप की शुरूआत की, जो भारत का लोकप्रिय साफ्टड्रिंक ब्रांड बनकर उभरा था। उसी समय पर कई अन्य साफ्टड्रिंक एवं कोला कम्पनियों का निर्माण हुआ और वे 1991 तक अपना कारोबार करती रहीं। तब 1991 में भूमण्डलीकरण के नाम पर स्थाई तौर पर नव-उदारवादी राज की शुरूआत हुई। इसी के चलते भारत में पहले पेप्सी ने प्रवेश किया और उसके बाद कोका कोला ने दुबारा कदम रखा। कोका कोला ने भारत में मौजूद ब्रांडों पर जबरदस्त दबाव डालना शुरू किया। उसने असीम नकदी भण्डार, विज्ञापन, बाजार की ताकत और सबसे बढ़कर सरकार के संरक्षण के बल पर ड्युक, कैम्पा कोला, डबल कोला, गोल्स स्पॉट जैसे भारतीय ब्रांडों को खत्म कर दिया। रमेश चैहान ने थम्स अप को केवल 600 लाख डालर में कोका कोला कम्पनी को बेच दिया। आज भारतीय साफ्टड्रिंक और कोला बाजार पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पूर्ण वर्चस्व है। आज 97 प्रतिशत बाजार पर कोक और पेप्सी का नियंत्रण है।
यह केवल एफएमसीजी का ही मामला नहीं है। अन्य क्षेत्रों का भी यही अनुभव है जहां एफडीआई को आने दिया गया है। विलय एवं अधिग्रहण के जरिए हड़प कर जाना, मौजूदा कम्पनियों को मैदान से बाहर करना और उन्हें खत्म कर देना ही इनकी सफलता का राज है। खुदरा कारोबार में यह तो और भी खतरनाक है, क्योंकि भारत जैसे देश में बड़े संगठित उद्योगों में रोजगार की संख्या काफी कम है और जो है वह भी खत्म किया जा रहा है तथा अपेक्षाकृत एक बहुत बड़ी आबादी अपनी आजीविका के लिए खुदरा व्यापार पर निर्भर है। खुदरा बिक्री तो सामने नजर आती है। मगर इसके पीछे अनेक गतिविधियां होती है, जो सीधे दिखाई नहीं पड़ती। अनाज व फल-सब्जी के उत्पादन, औद्योगिक उत्पादन, भण्डारण सुविधा, परिवहन आदि सभी पीछे चलने वाली गतिविधियां हैं। इन गतिविधियों में एक बड़ी आबादी पहले से लगी हुई है। केन्द्र सरकार ने खुदरा व्यापार में एफडीआई के लिए कुछ शर्तों का उल्लेख किया है। इसमें से एक शर्त यह कि ये कम्पनियों के पीछे चलने वाली गतिविधियों में भी निवेश करना होगा। वे तो यही करना चाहते हैं, ऐसे में यह शर्त अर्थहीन है। वे तो उत्पादन से लेकर वितरण हर स्तर पर नियंत्रण कायम करना ही चाहते हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से ज्यादा रोजगार के अवसर पैदा नहीं होंगे, क्योंकि इनके बाजार में प्रवेश से खुदरा बाजार का आकार आटोमेटिक बढ़ नहीं जायेगा। उल्टे, चूंकि उत्पादन से लेकर वितरण तक सभी गतिविधियां अत्यन्त केन्द्रीकृत हो जायेंगी, इसलिए कुल मिलाकर रोजगार की संख्या कम ही होगी।
रोजगार, कैसा रोजगार?
यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि संगठित खुदरा कारोबार के हिस्से के रूप में खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से नये रोजगार के अवसरों का सृजन तो दूर, मौजूदा रोजगार भी कम होगा। यह निश्चित ही हमारे देश की करोड़ों जनता की आजीविका के साधन को खत्म कर देगा। इस भारी विनाश के एवज में वे सामने और पीछे की गतिविधियों को चलाने के लिए कुछ नये रोजगार पैदा करेंगे। मगर हमारे देश के नौजवानों के लिए इसमें खुश होने जैसी कोई बात नहीं है। दुनिया का अनुभव और भारत का अनुभव, जैसा कि हम कह चुके हैं, दर्शाता है कि ज्यादातर मामलों में संगठित खुदरा व्यापारी अपने मजदूरों से ज्यादा समय तक काम लेते हैं और कम मजदूरी देते हैं। ज्यादातर कम्पनियां अपने मजदूरों को अधिकार देने के मामले में बहुत कुख्यात हैं। वे ट्रेड यूनियन की गतिविधियों और सामूहिक मोलभाव की प्रक्रिया को मान्यता नहीं देते हैं। वालमार्ट के दुनिया भर में फैले स्टोरों एवं अन्य गतिविधियों में करीब दस लाख मजदूर लगे हैं। उसके द्वारा अपने श्रमिकों के साथ बदसलूकी के कई मामले अदालतों में चल रहे हैं। इनमें कम वेतन, खराब कार्यदशा, अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल तथा कम्पनी की कट्टर यूनियन-विरोधी नीति से सम्बन्धित मामले शामिल हैं। वालमार्ट का सालाना कारोबार काफी ज्यादा है, मगर उसमें काम करने वाले कर्मचारी उतने ही नाखुश हैं। और भी कई बातें हैं। वालमार्ट के 70 प्रतिशत कर्मचारी एक साल के भीतर ही काम छोड़ जाते हैं। बड़े टर्नओवर (सालाना कारोबार) के बावजूद बेरोजगारी की दर को कम करने में कम्पनी का कोई योगदान नहीं है। ओक्लाहोमा स्टेट यूनिवर्सिटी द्वारा किये गये अध्ययन में यह बात सामने आयी है, जिसमें कहा गया है कि ‘जिन देशों में वालमार्ट की उपस्थिति है, वहां इसने काले लोगों की बेरोजगारी दर को तुलनात्मक रूप से कम किया है, लेकिन अगर अन्य सामाजिक-आर्थिक मानकों को ध्यान में रखा जाए तो इस कम्पनी ने उनकी तुलनात्मक आमदनी पर सीमित प्रभाव ही डाला है।’ स्पष्ट है कि कम्पनी ने रोजगार नहीं, बल्कि अर्ध-रोजगार का सृजन किया है।
साम्राज्यवाद के भारतीय अनुचर और पैरोकार देश के नौजवानों की आँखों में धूल नहीं झोंक सकते।