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बिहार को लेकर वोट की "राज" नीति

घटते मराठी वोट बैंक पर कब्जे की जंग

विजय यादव, मुंबई




एक बार फिर राज ठाकरे और बिहार के बिच जंग छिड़ गई है. एक दुसरे पर शाब्दिक वार किये जा रहे हैं. यह वही राज ठाकरे हैं , जो कुछ साल पहले मुंबई में अपने आसपास बिहारियों की एक बड़ी फ़ौज रखते थे. आखिर इधर कुछ सालो में ऐसा क्या हो गया कि, राज " बिहारी" शब्द सुनते ही ऐसे पिनकते है, जैसे लाल कपडे को देख सांड. मुंबई की राजनीति में पैर पसारते संजय निरुपम इन्ही राज ठाकरे के सानिध्य में पत्रकार से नेता बन गए. शिवसेना के किले से राजनीतिक जन्म लेनेवाले संजय निरुपम आज भले ही राज के लिए परप्रांतीय हों, किसी समय वह राज के सबसे चहेते रहे. संजय श्रीवास्तव से संजय निरुपम बने इस बिहारी बाबु को राज्यसभा में भेजने के लिए सबसे पहले राज ठाकरे ने ही सहमति की मुहर लगाई थी. ताजा विवाद ११ अगस्त के उस आजाद मैदान आन्दोलन को लेकर है, जिसका गुनाहगार बिहार के सीतामढ़ी से पकड़ा गया. राज ठाकरे का सवाल है कि, मुंबई से हर गुनाहगार यूपी-बिहार ही क्यूँ भागता है ? यह सच नहीं है कि, मुंबई का हर अपराधी यूपी-बिहार में ही शरण लेता है . अगर पुलिस के रिकार्ड पर एक नजर डाले तो पता चलता है कि, मुंबई पुलिस अपराधियों की टोह में देश के तमाम शहरों में जाती रही है. यह बात अलग है कि, राज ठाकरे को अपने चश्मे से सिर्फ यूपी-बिहार दिखता है. शायद यहाँ वह कहावत चरित्रार्थ होती है कि, जिस रंग का चश्मा लगाओगे दुनिया उसी रंग की दिखेगी. महाराष्ट्र पुलिस पर हमले और अपराधियों के अन्य राज्यों में फरार होने की हाल ही में कई घटनाये सामने आई , लेकिन राज ठाकरे ने कभी मुह नहीं खोला . २३ अगस्त २०११ को अहमदनगर के संगमनेर में स्थानीय बदमाशो ने हमला कर आधा दर्जन पुलिसवालों को घायल कर दिया.२८ मार्च को गढ़चिरोली में पुलिस दल पर हमला , जिसमे १२ जवान शहीद हो गए , जबकि २८ को अस्पताल पहुचाया गया. ८ अप्रैल २०१२ को जालना जिले के गोंदी में पुलिस को घायल किया. १८ अप्रैल २०१२ को दादर में तोड़क कारवाई के दौरान हमले में कई पुलिसवाले घायल हुए . १३ मई २०१२ को विरार में पुलिस बल पर तलवार और चापर से हमला हुआ.बचाव में पुलिस को गोली चलानी पड़ी . हाल ही में २८ अगस्त २०१२ को नासिक में गुटखा के कालाबाजारियों ने एफडीए अधिकारी और पुलिस पर हमला कर दिया. दिल दहला देनेवाली सबसे बड़ी घटना २५ जनवरी २०११ की है, जब तेल माफियाओं ने नासिक के अतिरिक्त जिला कलेक्टर यशवंत सोनावणे को दिनदहाड़े जिन्दा जला दिया. इसी तरह अपराधियों की गिरफ्तारी के लिए राज्य से बाहर गई पुलिस को कई बार विरोध का सामना करना पड़ा है. जनवरी २०११ में हथकड़ी तोड़कर फरार आरोपी को पकड़ने रत्नागिरी पुलिस को कर्नाटक जाना पड़ा . मार्च २०१२ में मुंबई की मालाड पुलिस को राजस्थान में अपराधी पकड़ते समय भारी विरोध और हमले का सामना करना पड़ा. जिस गुजरात की आज राज ठाकरे तारीफ करने से नहीं थकते उसी गुजरात के अमरेली में अप्रैल २००१ में सब-इन्स्पेक्टर नंदकुमार देठे को अपनी जान गवानी पड़ी. नंदकुमार देठे मुंबई के दिंडोशी थाने में कार्यरत थे. गुजरात वह हीरा चोर को पकड़ने गए थे, जहाँ गावं के करीब ५०० लोगों ने उन्हें घेर लिया और देखते ही देखते उन पर जानलेवा हमला कर दिया. देठे की मदद में उस समय स्थानीय पुलिस भी नहीं आई. इस घटना के बाद मुंबई पुलिस सकते में आ गई थी. राज ठाकरे को इस जवान की शहादत पर बीते १२ सालों में शायद ही कभी दुःख हुआ हो .

"राज" का दुःख 

 यह एक अहम् सवाल है कि, जिस राज ठाकरे के शिवसेना में रहते हुए संजय निरुपम पत्रकार से नेता बने. शिवसेना के मुखपत्र हिंदी सामना में बिहारी पत्रकारों की फ़ौज तैयार हुई. बिहार का प्रमुख त्यौहार छठ पूजा पटना की तर्ज पर मुंबई के जुहू किनारे मनाया जाने लगा . आज अचानक उसी बिहार से इतनी नफ़रत क्यूँ ? . इसका सीधा सा जवाब "राज" नीति है. यह सारा खेल वोट बैंक को लेकर है. महाराष्ट्र की करीब कुल १० करोड़ की अवादी का १५ प्रतिशत हिस्सा यानि करीब डेढ़ करोड़ लोग अकेले मुंबई में बसे है. अगर आसपास के क्षेत्र ठाणे , मिरारोड़-भायंदर, वसई, विरार ,नई मुंबई आदि को जोड़े तो यह संख्या और भी बढ़ सकती है. इनमे ५० प्रतिशत अन्य राज्यों से आये हुए लोगों की है. इन बाहरी लोगों में करीब २५ लाख हिन्दीभाषी है. इनमे बिहारियों की संख्या ७ लाख के करीब है. संजय निरुपम के सहारे शिवसेना कभी इन्ही वोटो पर अपना कब्ज़ा जमाना चाहती थी, लेकिन उसका हर प्रयास असफल हुआ. पहली शुरुआत २३ फरवरी १९९३ को हिंदी सामना का प्रकाशन . जहाँ संजय निरुपम को कार्यकारी संपादक बनाये जाने के साथ ही बिहार रिश्ते की नई शुरुआत हुई. इसके बाद पुरे हिंदी सामना परिवार में संजय श्रीवास्तव (संजय निरुपम) के साथ बड़ी संख्या में बिहार से जुड़े पत्रकार शामिल हुए. इसके कुछ सालों बाद मुंबई के जुहू स्थित समुद्र तट पर भगवा झंडे तले छठ पूजा की शुरुआत हुई. भीड़ जुटाने के लिए राज ठाकरे की मौजूदगी में शारदा सिन्हा , मनोज तिवारी जैसे बिहारी गायकों को खासकर बिहार से बुलाया गया. राज ठाकरे और शिवसेना का बिहार प्रेम अनवरत चलता रहा और १९९६ में शिवसेना ने उन्हें राज्यसभा में भेज दिया. इतना सब कुछ करने पीछे शिवसेना का एक ही मकसद था. बिहारी वोटों को अपने पक्ष में करना, लेकिन सफलता नहीं मिली. इसके बाद मुंबई मनपा सहित लोकसभा और विधानसभा के कई चुनाव हुए . सभी चुनावों में शिवसेना को बिहारी मत नहीं मिला. उल्टे कट्टर वाद मराठी वोट खिसकने लगा . मराठी वोट बैंक की राजनीति करनेवाली शिवसेना अब समझ गई थी, कि बिहारी वोट उनके पक्ष में आनेवाला नहीं है. यही से संजय निरुपम व बिहारियों से शिवसेना व राज ठाकरे की दूरियां बढ़ने लगी. आखिर एक दिन ऐसा भी आया कि, संजय निरुपम को मराठा किले से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. बिहारी वोटों का शिवसेना के साथ नहीं जाने का कारण संजय निरुपम का हवाई नेता होना भी बताया जाता है. संजय निरुपम आज भी मुंबई के बिहारियों में अपनी पकड़ नहीं बना पाए है. इसका ताजा उदहारण हाल ही में हुए मुंबई मनपा चुनाव में दिखा. उनके निर्वाचन क्षेत्र में पोयसर ऐसा इलाका है, जिसे लोग मिनी बिहार के नाम से भी जानते है. पोयसर में करीब ७० प्रतिशत बिहारी है. अपनी पूरी प्रतिष्ठा लगा देने के बाद भी पोयसर की सीट जीता नहीं पाए. यहाँ से निरुपम की सिफारिस पर कांग्रेस ने रश्मि मिस्त्री को उम्मीदवार बनाया था. ऐसा नहीं है कि, शिवसेना ने हिंदी वोट के लिए सिर्फ बिहारी पर दावं लगाया हो. इसके पहले उत्तर प्रदेश के भदोही जिले से ताल्लुक रखने वाले घनश्याम दुबे को शिवसेना विधानपरिषद का सदस्य बना चुकी है. लेकिन यह जुगत भी काम नहीं आया. आज घनश्याम दुबे के पुत्र योगेश दुबे खुद कांग्रेस की कांवर ढो रहे है. कांग्रेस की ताकत पर अभी तक एक भी चुनाव नहीं जीत सके. 


हिंदीभाषियों का बढ़ता वर्चस्व
मुंबई व ठाणे जिले की कई ऐसी सीटे है, जहाँ हिंदीभाषियों का वर्चस्व है. यही वजह है कि, २००९ के विधानसभा चुनाव में ९ सीटों पर हिन्दीभाषी उम्मीदवार जीते . इसी तरह बड़ी संख्या में मनपा चुनाव जीतने में भी हिन्दीभाषी सफल रहे. यही वजह है कि, समय-समय पर हिन्दीभाषी वोटरों को लुभाने के लिए सभी राजनीतिक दल चारा डालते रहते है.कभी भाजपा कभी कांग्रेस तो कभी राकांपा मुंबई में हिंदीभाषियों को पुचकारती नजर आती है. मुंबई के हिंदीभाषियों में उत्तर प्रदेश के लोगो की भी बड़ी संख्या है. मुंबई में लम्बे समय से स्थापित हिंदीभाषियों में उत्तर प्रदेश के लोगो का ही नाम आता है. इनमे कई बड़े उद्योगपति है तो कई राजनीति में अपनी मजबूत पकड़ रखते है. राजनीति की दृष्टि से देखे तो इनमे ज्यादातर लोग कांग्रेस के ही समर्थन में खड़े नजर आते है. राज ठाकरे की यही पीड़ा बार-बार यूपी-बिहार पर हमले के लिए उकसाती रहती है.

मुंबई में घटता मराठी वोट 

 मुंबई में लगातार मराठी मतों में कमी आ रही है. १ मई १९६० को महाराष्ट्र गठन के समय मुंबई में जहाँ मराठी मतों की ४१.६४ प्रतिशत हिस्सेदारी थी , वहीँ आज घटकर ३७.४० प्रतिशत हो गई है. मुंबई व आसपास के उपनगरों में मराठी मतों की घटती संख्या शिवसेना, मनसे और राकांपा के लिए जरुर बौखला देने वाली खबर है. मराठी भाषियों की घटती संख्या पर १९८० के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल ने एक टिपण्णी की थी " महाराष्ट्र में बम्बई ( मुंबई) दिखता है, लेकिन बम्बई में महाराष्ट्र नहीं दिखता. यह वही दौर था , जब शिवसेना का उदय हो रहा था. शिवसेना प्रमुख बल ठाकरे ने इसी मुद्दे पर राजनीति शुरू किये और देखते ही देखते कांग्रेस के लिए सर दर्द बन चुके कम्युनिस्टों को लगभग खात्मे की कगार पर ला दिया. आज मुंबई में अकेले शिवसेना ही नहीं बल्कि राज ठाकरे का मनसे और शरद पवार की राकांपा भी मराठी मतों के सहारे चल रही है. ऐसे में जातीय संघर्ष का बढ़ाना जायज है. शरद पवार ने हाल ही में अपने कार्यकर्ताओं को शिवसेना की तर्ज पर कार्य करने की हिदायत भी भारी सभा में दे चुके है. मराठी समाज का युवा वर्ग उस नेता को ज्यादा पसंद करता है , जो आक्रामक हो, जो बात-बात पर लड़ने की क्षमता रखता हो. यह सभी गुण राज ठाकरे में मौजूद है. एक तरह से देखा जाय तो, राज ठाकरे भी वही जातीय राजनीति कर रहे है , जो यूपी-बिहार में मुलायम , मायावती , नितीश और लालू यादव करते आ रहे है.

घातक हो सकती है भाषाई राजनीति
महाराष्ट्र में जिस तरह से भाषाई राजनीति हिंसा का रूप ले रही है, वह आनेवाले किसी खतरनाक परिणाम का सूचक है. यह समस्या तब और बढ़ जाती है, जब राज्य की सत्ता में बैठे दल राज ठाकरे जैसे लोगों को बढ़ावा दे रहे हो. राज ठाकरे मुंबई में परमिट व्यस्था लागु किये जाने की बात कर रहे है. बिहारियों को घुसपैठिया कहा जा रहा है. अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए ऐसी मानसिकता को बढ़ावा देना राष्ट्र हित में उचित नहीं है. खालिस्तान,नागालैंड, बोडोलैंड जैसी मांगें ऐसी ही राजनीति का परिणाम है. इंदिरा गाँधी ने पंजाब में अकालियों की राजनीति ख़त्म करने के लिए भिंडरावाला को संरक्षण दिया. अब यही संरक्षण राज ठाकरे को . महाराष्ट्र में यही स्थिति रही तो, वह दिन दूर नहीं जब, मराठालैंड की मांग उठने लगे. महाराष्ट्र सरकार भी इसी तर्ज पर राज ठाकरे को बढ़ावा दे रही है . किसी समय कोलकाता देशा का सबसे बड़ा व्यावासिक केंद्र हुआ करता था. आज वहां की हालत किसी से छुपी नहीं है. १९६७ में ठीक मुंबई तरह वामपंथियों ने कोलकाता में नारा दिया " बिहारी महामारी" . नतीजा सभी के सामने है. असुरक्षा के चलते बिहारी कोलकाता छोड़ने लगा . देखते ही देखते जुट मीलों की चिमनियाँ बंद होने लगीं. चाय के बागन वीरान हो गए . तमाम औद्योगिक कंपनिया मुंबई, गुजरात और दिल्ली की ओर कुछ करने लगी. आज खुद बंगाली समाज अपन शहर छोड़कर दुसरे राज्यों में नौकरी के लिए भटक रहा है. कुछ ऐसी ही कहानी महाराष्ट्र में राज ठाकरे द्वारा दुहराई जा रही है. परिणाम भी सामने आने लगे है. पिछले ५ साल में करीब ४० प्रतिशत कंपनिया मुंबई से गुजरात के सूरत और अहमदाबाद जा चुकी है. अपने स्वार्थ के लिए कांग्रेस ने वहा भी भाषावाद का जहर घोलना शुरू कर दिया है. ९ सितम्बर को सूरत में कांग्रेस की ओर से उत्तरभारतीय सभा का आयोजन किया गया था. जहाँ मुख्य अतिथि पधारे संजय निरुपम ने नरेंद्र मोदी पर उत्तर भारतीयों के साथ सौतेला व्यवहार किये जाने का आरोप लगा आये.

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