के.एन. रामचन्द्रन
के.एन. रामचन्द्रन |
भाकपा (माले) की विभिन्न राज्य कमेटियों ने भी इस तरह के बयान जारी किये थे और कामरेड कोटेश्वर राव की फर्जी मुठभेड़ में हत्या की निन्दा करते हुए विरोध सभाओं का आयोजन करके सभी प्रगतिशील व जनवादी ताकतों से निन्दा करने की अपील की थी। बहरहाल, भाकपा (माले) के इस रूख की प्रशंसा करते हुए भी, आन्दोलन के कुछ मित्रों एवं भाकपा (माओवादी) के समर्थकों ने यह सवाल किया था कि ऐसे मौके पर भी हम भाकपा (माओवादी) की दिशा की आलोचना क्यों कर रहे हैं। इसलिए हम समझते हैं कि यह हमारा कर्तव्य है कि भाकपा (माओवादी) के साथ हम अपने मतभेदों की उत्पत्ति और उसके क्रम विकास के इतिहास की विवेचना करें। इसके पहले जब कामरेड श्याम और हाल में कामरेड आजाद की फर्जी मुठभेड़ में हत्या की गई थी, तब भी हमने इसी तरह का बयान जारी किया था। उन बयानों में भी हमने राज्य की कार्यवाही की निन्दा की थी । साथ ही, पीपुल्स वार गु्रप (पीडब्ल्यूजी) और फिर भाकपा (माओवादी) के नेतृत्व से अपील की थी कि वे जिस रास्ते पर चल रहे हैं, उसकी समीक्षा करें। हमारा मानना है कि भले ही भाकपा (माओवादी) यह दावा करती हो कि वह प्रतिक्रियावादी भारतीय राजसत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए काम कर रही है, मगर वह अराजकतावादी दिशा का अनुसरण कर रही है, जो स्वयं उन्हें और साथ ही पूरे क्रान्तिकारी आन्दोलन को नुकसान पहुंचा रहा है। इस संदर्भ में, हम मानते हैं कि गलतफहमी से बचने के लिए उनके साथ हमारे मतभेदों की उत्पत्ति और उसके क्रमिक विकास की व्याख्या करना महत्वपूर्ण है।
कामरेड चारू मजूमदार के नेतृत्व में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों ने 1964 से ही भाकपा की संशोधनवादी दिशा और माकपा की नव-संशोधनवादी दिशा के खिलाफ वैचारिक-राजनीतिक संघर्ष छेड़ दिया था। फिर जोतने वाले को जमीन के नारे के साथ नक्सलबाड़ी जनउभार हुआ, जिसने कृषि क्रान्ति और राजसत्ता के क्रान्तिकारी दखल के सवाल को भारतीय जनता के एजेण्डा पर वापस ला दिया था। जहां तक विरासत का सवाल है, तो मौजूदा भाकपा (माले) और भाकपा (माओवादी), जिसका गठन 2004 में भाकपा (माले) पीपुल्स वार ग्रुप, पार्टी यूनिटी और माओवादी कम्युनिस्ट केन्द्र के विलय से हुआ है, दोनों ही इस विरासत के साझीदार हैं।
भाकपा (माले) का गठन 1969 में हुआ था और 1970 में इसका प्रथम महासम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसे भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास को बुलन्द करते हुए आठवां महासम्मेलन कहा जाता है। लेकिन, 1971 के आते-आते इसे गंभीर धक्कों का सामना करना पड़ा और यह टुकडों में विभाजित हो गया। इसके पश्चात, जिस तरह 1973 में भाकपा (माले) पीपुल्स वार ग्रुप और 1977 के भाकपा(माले) पार्टी यूनिटी का गठन किया गया था, वैसे ही 1973 में भाकपा (माले) की केरल राज्य कमेटी का पुनर्गठन किया गया था। इन सबका गठन 1970 के आठवें महासम्मेलन की दिशा को बुलन्द करते हुए किया गया था। भाकपा (माले) लिबरेशन समेत इन सभी ग्रुपों चारू-परस्त और लिन पियाओ-विरोधी कहा जाता था। केरल कमेटी ने 1973 से माल लाइन मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इसमें उन सभी मार्क्सवादी-लेनिनवादी ताकतों की एकता का आव्हान किया गया जो बुनियादी तौर पर 1970 की पार्टी दिशा को स्वीकार करते थे। कामरेड केजी सत्यमूर्ति, जो पीडब्ल्यूपी के केंद्रीय कमेटी के सदस्य थे, तथा आन्ध्र प्रदेश के विप्लवी रचयतालु संघम (विरसम) के नेताओं के लेख और कविताओं को इसमें उस समय तक प्रकाशित किया जाता रहा जब तक कि इस पत्रिका पर प्रतिबंध नहीं लगा दिया गया। आपातकाल के दौरान इस पत्रिका का प्रकाशन निलम्बित ही रहा। उस समय जो दमनकारी माहौल व्याप्त था, उसकी वजह से एकता प्रयासों को जारी नहीं रखा जा सका। आपातकाल उठने के बाद जब जेलों में बन्द कामरेड बड़ी संख्या में बाहर आये, तो फिर से एकता की कोशिशें शुरू हो सकी।
1978-79 के दौरान दोनों संगठनों के बीच पहला सम्पर्क स्थापित हुआ और एकता वार्ता की गई। 1976 में माओ त्सेतुंग का देहान्त हो गया था। भाकपा(माले) की केरल राज्य कमेटी ने 1977 में ही पूंजीवादी राहियों की निन्दा की थी जो माओ की मृत्यु के पश्चात चीन की सत्ता पर काबिज हो गये थे। साथ ही, उनके तीन दुनिया सिद्धान्त का विरोध किया था। केरल राज्य कमेटी इन सवालों पर सही दृष्टिकोण अपनाने पर काफी जोर दे रही थी और इसे मार्क्सवादी-लेनिनवादी ताकतों की एकता के लिए एक महत्वपूर्ण बिन्दु मानकर चल रही थी। नतीजे में, तत्कालीन भोजपुर ग्रुप, जो आगे चलकर भाकपा (माले) लिबरेशन बना, के साथ एकता वार्ता आगे नहीं बढ़ सकी, क्योंकि वह चीन के नये नेतृत्व और उसके तीन दुनिया सिद्धान्त को बुलन्द करता था (आज तक वह चीन को समाजवादी देश ही मानता है)। इसी तरह, भाकपा (माले), पीपुल्स वार ग्रुप और भाकपा (माले) पार्टी यूनिटी के साथ अन्य कई सारे सवालों पर एकमत होने के बावजूद, उन दोनों के साथ भी एकता वार्ता असफल रही, क्योंकि वे भी चीन में पूंजीवादी पुनर्स्थापना जैसे महत्वपूर्ण सवालों पर एक स्पष्ट नजरिया अपनाने के लिए तैयार नहीं थे। उस समय कामरेड एसए राउफ, जो पीपुल्स वार गु्रप के नेताओं में से एक थे, उससे अलग हो गये थे, क्योंकि वह संगठन चीन के पूंजीवादी राहियों की निन्दा करने के लिए तैयार नहीं था। उन्होंने कामरेड कोण्डापल्ली सीतारामैय्या के उस बयान का विरोध किया था जिसमें सशस्त्र संघर्ष को निलम्बित रखने का आव्हान किया गया था। भाकपा (माले) की केरल राज्य कमेटी ने कामरेड एसए राउफ के साथ चर्चा की और दोनों ने आपस में विलय करने का फैसला लिया। इस तरह, अक्टूबर 1979 में केन्द्रीय पुनर्गठन कमेटी, भाकपा(माले) का गठन किया गया।
इसके बावजूद, पीपुल्स वार ग्रुप और पार्टी यूनिटी दोनों के साथ चर्चा जारी रही। विरसम के कामरेड केवी रमना रेड्डी और वरवरा राव ने 1980 में केरल में आयोजित जन संस्कृति मंच के स्थापना सम्मेलन में भाग लिया। पीपुल्स वार गु्रप और पार्टी यूनिटी के साथ जन संगठनों के स्तर पर सम्पर्क बना रहा, हालांकि वर्ग एवं जन संगठनों के ढांचे और चरित्र के प्रति दृष्टिकोण के बारे में और जनदिशा का अनुशरण करने के बारे में मतभेद लगातार तीव्र होता गया था।
सन् 1987 में केन्द्रीय पुनर्गठन कमेटी-भाकपा (माले) का भाकपा (माले) रेड फ्लैग के रूप में नवगठन किया गया। इसके बाद दोनों संगठनों के साथ जन संगठनों के स्तर पर संयुक्त गतिविधियां ज्यादा मजबूत हुई। 1991-94 के दौरान पीपुल्स वार गु्रप के साथ तीन दौर की उच्च स्तरीय वार्ताएं हुईं, लेकिन निम्न विषयों पर नजरिए में मतभेदों की वजह से नाकामयाब रहीं। इनमें क्रमश: 1) नव-उपनिवेशीकरण और इसके तहत कृषि क्षेत्र के उत्पादन सम्बन्धों में आ रहे बदलाव के बारे में; 2) तीन दुनिया सिद्धान्त के बारे में; 3) पार्टी निर्माण की बोल्शेविक शैली के बारे में; 4) वर्ग एवं जन संगठनों के निर्माण के बारे में; तथा 5) संघर्ष के सभी रूपों का इस्तेमाल करने के बारे में । एकता वार्ता के असफल रहने के पीछे कारण यही था कि पीपुल्स वार गु्रप सशस्त्र संघर्ष को संघर्ष का एकमात्र रूप मानने समेत अपने संकीर्णतावादी दृष्टिकोण से चिपका हुआ था। इसके बावजूद, जब 1990 में अखिल भारतीय क्रांतिकारी सांस्कृतिक संघ (एआईएलआरसी) का निर्माण किया गया था, तो पीडब्ल्यूजी और पार्टी यूनिटी के सांस्कृतिक संगठनों के साथ केरल का सांस्कृतिक मोर्चा भी उसमें शामिल था। यह सम्बन्ध 1995 तक जारी रहा। इसके बाद यह संगठन पीपुल्स वार गु्रप के संकीर्णतावादी रवैए की वजह से निष्क्रिय हो गया। कामरेड केवी रमना रेड्डी ने भाकपा(माले) रेड फ्लैग के मुखपत्र रेड स्टार में 1995 तक लिखना जारी रखा था।
गौरतलब होगा कि, जब क्रान्तिकारी मजदूर संगठन की अखिल भारतीय संयुक्त कार्यवाही कमेटी का गठन किया गया था और इसके बैनर तले 1992 में साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के खिलाफ संसद मार्च आयोजित किया गया था, पीपुल्स वार गु्रप के राजनीतिक नेतृत्व में कार्यरत महाराष्ट्र के टेÑड यूनियनों ने भी इसमें हिस्सा लिया था। यह साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के खिलाफ संसद पर किया गया पहला प्रदर्शन था। पीपुल्स वार ग्रुप द्वारा 1994 में वारंगल में आयोजित किसान रैली में रेड फ्लैग के कामरेडों ने भी हिस्सा लिया था। इसके बाद पीपुल्स मार्च तथा रेड स्टार पत्रिकाओं में उन वैचारिक व राजनीतिक मुद्दों पर खुली बहस चलाई गई थी, जिनके बारे में बुनियादी मतभेद थे। उपरोक्त सारे दृष्टांतों से देखा जा सकता है कि कई मुद्दों पर बुनियादी मतभेदों के रहते हुए भी दोनों पक्षों ने सम्पर्क बनाये रखा था और यहां तक कि खुली बहस भी चलाते थे। दोनों के बीच सम्बन्ध शत्रुतापूर्ण नहीं था। भाकपा (माले) रेड फ्लैग ने पीडब्ल्यूजी और पार्टी यूनिटी के विलय का इस उम्मीद के साथ स्वागत भी किया कि, इससे वैचारिक व राजनीतिक दिशा पर पुनर्विचार किया जा सकता है, क्योंकि पार्टी यूनिटी का हमेशा से जन दिशा की ओर ज्यादा झुकाव रहा था।
माओ त्सेतुंग विचारधारा या माओवाद..?
लेकिन माओवादी कम्युनिस्ट केन्द्र (एमसीसी) के साथ विलय और भाकपा (माओवादी) के गठन के बाद जब 2004 में इसने अपना पार्टी महासम्मेलन आयोजित किया, तो वह ज्यादा जड़सूत्रवादी हो गई। साथ ही, इसने अपने मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में माओ विचारधारा को हटाकर उसकी जगह माओवाद को अपना लिया। इन दो अवधारणाओं के बीच बुनियादी अन्तर है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी ताकतों की समझ के मुताबिक माओ त्से तुंग ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (तीसरे अन्तर्राष्ट्रीय) की शिक्षाओं के आधार पर जनता की जनवादी क्रान्ति के सिद्धान्त और व्यवहार को विकसित किया था और इसे चीन की ठोस परिस्थितियों में सफलतापूर्वक लागू किया था। आगे चलकर माओ ने चीन की ठोस परिस्थितियों में समाजवादी क्रान्ति की अगुवाई की थी। इस दीर्घ क्रान्तिकारी व्यवहार के दौरान उन्होंने किसी खास परिस्थिति में अन्तर्विरोधों को द्वन्द्वात्मक नजरिए से कैसे समझा जाये, इसके बारे में दृष्टि विकसित की थी। उन्होंने सोवियत संघ में सत्ता पर कब्जा कर लेने वाले पूंजीवादी राहियों के खिलाफ 1963 में महान बहस चलाकर वैचारिक व राजनीतिक संघर्ष विकसित किया था। इसी तरह, उन्होंने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर पूंजीवादी राहियों के खिलाफ संघर्ष करते हुए सांस्कृतिक क्रान्ति की अवधारणा का विकास किया था। इस सांस्कृतिक क्रान्ति का अर्थ था सर्वहारा के अधिनायकत्व के तहत वर्ग संघर्ष को जारी रखने का सिद्धान्त और व्यवहार, जो मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शिक्षाओं पर आधारित था। सांस्कृतिक क्रान्ति 1967 में अपने चरम पर पहुंची थी। तब तक ल्यू शाओ ची और तेंग शियाओ पिंग को सभी पदों से हटा दिया गया था तथा पूंजीवादी राहियों के प्राधिकार को चुनौती देते हुए जनता की राजनीतिक सत्ता के केन्द्रों के रूप में जन कम्युन पूरे चीन में उभर कर सामने आने लगे थे।
माओ त्सेतुंग के इन अवदानों का सार संग्रह कर मार्क्सवादी- लेनिनवादी धारा ने माओ विचारधारा को अपने मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया था। पूंजीवादी राही, जिन्होंने समाजवादी सोवियत संघ में सत्ता पर कब्जा कर लिया था और उसे एक सामाजिक साम्राज्यवादी देश में तब्दील कर दिया था और विश्व प्रभुत्व के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ प्यार और तकरार का खेल खेलने लगे थे, तब उनके विरूद्ध संघर्ष करते समय माओ विचारधारा को बुलन्द करने वाली यह मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा पूरी दुनिया में उभर कर सामने आयी थी।
लेकिन इसी दरम्यान 1966 में लिन पियाओ की किताब जनयुद्ध की विजय दीर्घजीवी हो का प्रकाशन हुआ और इसके साथ ही चीन में एक संकीर्णतावादी दिशा हावी होने लगी, जो लाल झण्डे को खत्म करने के लिए लाल झण्डा उठाए हुए थी। हालांकि वे सांस्कृतिक क्रान्ति को बुलन्द करने का दावा करते थे, किन्तु उन्होंने सेना का इस्तेमाल कर उस जनउभार का दमन किया जो माओ के आव्हान पर उमड़ रही थी। उस समय वर्ग संघर्ष जिस यातनापूर्ण रास्ते पर चलते हुए विकसित हो रहा था, वह इस लेनिनवादी सबक को एक बार फिर सही साबित कर रही थी कि दक्षिणपंथी और वामपंथी भटकाव एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और ये दोनों ही अन्तत: साम्राज्यवादियों एवं उसके अनुचरों की सेवा करते हैं।
लिन पियाओ की इस किताब में एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के देशों की राजसत्ता और समाज का चरित्र चित्रण क्रान्ति से पहले के चीन के समान अर्ध-सामन्ती, अर्ध- उपनिवेशिक के रूप में किया गया था। उसने यह कहना शुरू किया कि यह लेनिनवाद का युग, यानी कि, साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्ति का युग समाप्त हो गया है। तब तक दुनिया भर में मार्क्सवादी-लेनिनवादी ताकतों का यही विश्लेषण था। लिन पियाओ के अनुसार एक नये युग का उदय हो चुका है जो साम्राज्यवाद के पूर्ण ध्वंस और समाजवाद के विश्वव्यापी विजय का युग है तथा माओ विचारधारा इस नये युग का मार्क्सवाद-लेनिनवाद है। माओ त्सेतुंग एवं चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता जन युद्ध के चीनी रास्ते के बारे में बार-बार कहा करते थे कि इसे चीन की अनोखी परिस्थितियों में व्यवहार के जरिए विकसित किया गया था। लेकिन लिन पियाओ ने जनयुद्ध के रास्ते को रणनीतिक दिशा के रूप में पेश करते हुए इसे दुनिया के सभी देशों के लिए प्रायोज्य बताया। नक्सलबाड़ी जनउभार के बाद बीजिंग डेली में भारत पर बंसत का बज्रघोष शीर्षक से एक लेख छपा था, जिसमें लिन पियाओ की उपरोक्त दिशा का पक्षपोषण किया गया था।
बीजिंग डेली में छपे इस लेख ने उन तमाम कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को असीम उत्साह से भर दिया था, जो भारत में माकपा की नव-संशोधनवादी दिशा के खिलाफ लड़ रहे थे। मगर इस लेख के नजरिए में एक खामी थी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका की अगुवाई में साम्राज्यवादी खेमे द्वारा थोप दी गई नव-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के देशों की ठोस परिस्थितियों में जो परिवर्तन आया था उसे इस लेख में नकार दिया गया था। भारत की परिस्थिति का ठोस विश्लेषण करने से इन्कार करके, भारत के सभी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी समूहों ने इसका यंत्रवत अन्धा अनुकरण किया। 1969 में आयोजित चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नौवें महासम्मेलन में लिन पियाओ की यह संकीर्णतावादी, वाम दुस्साहसवादी दिशा हावी हो गई थी, जिसका प्रतिफलन इस महासम्मेलन द्वारा स्वीकृत बुनियादी दस्तावेजों में देखने में आया था। यहां तक कि इस महासम्मेलन में स्वीकृत चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान में लिन पियाओ को माओ का उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया गया था। इस दुस्साहसवादी दिशा के बहाव में आकर तरह-तरह के सूत्र निकाले गये थे, जैसे कि सशस्त्र संघर्ष ही संघर्ष का एकमात्र रूप है, वर्ग और जन संगठन संशोधनवाद के राजपथ हैं, तुम जितना ज्यादा पढ़ोगे उतना ही मूर्ख बनोगे, आदि । इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत कम समय में ही दुनिया भर में नवोदित मार्क्सवादी- लेनिनवादी आन्दोलन को धक्का खाना पड़ा और वे टूट-फूट का शिकार हो गये।
1973 में आयोजित चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के दसवें महासम्मेलन में इन सूत्रों को खारिज कर दिया गया। लेकिन तब तक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में चाऊ एन लाई की अगुवाई में मध्यपंथियों का बोलबाला कायम हो गया था। उन्होंने इसका कोई विश्लेषण पेश नहीं किया कि आखिर यह दुस्साहसवादी दिशा हावी कैसे हो सकी थी। इसका कारण यह था कि पूंजीवादी राहियों के खिलाफ जनउभार का दमन करने में लिन पियाओ के साथ उन्होंने भी भूमिका निभाई थी। इन मध्यपंथियों ने जल्द ही पूंजीवादी राहियों की वापसी और सत्ता के पदों पर आसीन होने का रास्ता खोल दिया। इस घटनाक्रम को बहाना बनाकर भारत में मुट्ठीभर लिन पियाओवादी, जो महादेव मुखर्जी के नेतृत्व में मुख्य रूप से बंगाल में बचे रह गये थे एवं चन्द अन्य लोगों ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के दसवें महासम्मेलन को खारिज कर दिया और इसके नौवें महासम्मेलन में प्रतिपादित नये युग के सिद्धान्त की वकालत करते रहे। हालांकि, वे अब माओ विचारधारा ही कहते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर, पेरू की कम्युनिस्ट पार्टी (जिसे शाइनिंग पाथ, या उज्जवल पथ के नाम से जाना जाता है) के चेयरमेन गोन्जालो ने 1980 के दशक के आरम्भ में अपने मार्ग दर्शक सिद्धान्त के रूप में मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद और गोन्जालो विचारधारा की अवधारणा पेश की थी। 1984 में क्रान्तिकारी अन्तर्राष्ट्रीयतावादी आन्दोलन (आरआईएम) का गठन हुआ था, जिसने थोड़े समय बाद ही माओवाद को अपने मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार कर लिया। लेकिन भारत में माओवाद को पहली बार स्वीकार करने का श्रेय माओवादी कम्युनिस्ट केन्द्र (एमसीसी) को जाता है, जो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 1969 के दिशा की कट्टर अनुयायी है। ऐसा प्रतीत होता है कि पीपुल्स वार ग्रुप और पार्टी यूनिटी द्वारा एमसीसी के साथ अपनी एकता के लिए इस संकीर्णतावादी अवधारणा को स्वीकार किया गया था। हालांकि, दक्षिण अमेरिकी देशों में कुछ पार्टियां माओवाद कहती हैं, मगर इसके बारे में उनकी व्याख्या दर्शाती है कि वे इसके बारे में क्रान्तिकारी अन्तर्राष्ट्रीयतावादी आन्दोलन के विचारों व व्याख्या से सहमत नहीं हैं।
संक्षेप में कहा जाये तो भाकपा(माओवादी) द्वारा जिस रूप में माओवाद की वकालत की जाती है, वह मार्क्सवाद-लेनिनवाद की बुनियादी समझ से एक विचलन, एक भटकाव के अलावा और कुछ नहीं है। वर्तमान समय में, नेपाल की यूसीपीएन (माओवादी), हालांकि अब भी नाम के लिए माओवाद को बुलन्द करती है, मगर वह अपने व्यवहार में बुनियादी बदलाव ला चुकी है और उसने भाकपा(माओवादी) की संकीर्णतावादी दिशा की आलोचना की है। ऐसी खबर भी मिली है कि भाकपा(माओवादी) की फ्रंट संगठन की संकीर्णतावादी नजरिए की वजह से उन्हें जन संघर्षों की अन्तर्राष्ट्रीय लीग (आईएलपीएस) से अलग कर दिया गया है। इसका नेतृत्व करने वाली फिलीपीन्स की कम्युनिस्ट पार्टी भी माओवाद को बुलन्द करती है, मगर वह काफी हद तक जन दिशा पर अमल कर रही है। क्रान्तिकारी अन्तर्राष्ट्रीयतावादी आन्दोलन (आरआईएम) और इसके घटक संगठनों के काफी कमजोर हो जाने से भाकपा(माओवादी) इस संकीर्णतावादी अवधारणा की मुख्य ध्वजा वाहक बन गई है।
नव-उपनिवेशिक चरण में कृषि क्रांति
इस माओवादी अवधारणा के तहत मार्क्सवाद को जड़सूत्र में बदल दिया गया है। मार्क्सवादी शास्त्रीय साहित्य को प्रतिमा बना दिया गया है। इसलिए माओवादी इन प्रतिमाओं को पूज रहे हैं और उन कारणों का विश्लेषण करने की जरूरत नहीं समझते हैं, जिसके चलते सभी भूतपूर्व समाजवादी देशों का पूंजीवादी रास्ते में अध:पतन हो गया है और ज्यादातर भूतपूर्व कम्युनिस्ट पार्टियां संशोधनवादी हो गई हैं। पार्टी तथा वर्ग एवं जन संगठनों के निर्माण की बोल्शेविक शैली को त्यागकर, केवल सशस्त्र दस्तों और उसके हथियारों की श्रेष्ठता पर निर्भर होकर इसने क्रान्ति को वीरों के खेल में बदल दिया है। जहां लेनिन ने सिखाया था कि क्रान्ति जनता का उत्सव है और माओ ने ऐलान किया था कि जनता, केवल जनता ही इतिहास का निर्माण करती है, वहीं माओवादियों के अनुसार, वे वीर हैं जो इतिहास रचते हैं।
माओवादी अपने चारों ओर नजर डालने तथा दुनिया और भारत में आ रहे व्यापक बदलावों को देखने से इन्कार करते हैं। इसलिए, जब अमेरिका, यूनान, इटली या दूसरी जगहों पर सर्वहारा और जन समुदाय विद्रोह कर रहा है, तो इन देशों के माओवादी यह सोच-सोच कर दुबले हुए जा रहे हैं कि वहां छापामार युद्ध कैसे शुरू किया जाए। वे इस बात का मूल्यांकन करने में असफल रहे हैं कि उत्तरी अफ्रीका और पश्चिमी एशिया में किस तरह जनविद्रोेह फूट पड़ा है और इसके प्रति कम्युनिस्टों का रवैया क्या होना चाहिए। भारत में दूसरी हरित क्रान्ति के बाद कृषि का कारपोरेटीकरण और ज्यादा तीव्र हो गया है, जिससे कृषि क्षेत्र में बड़े बदलाव आए हैं। इसके बावजूद, माओवादी अब भी भारत को अर्ध-सामन्ती कहते हैं तथा सामन्तवाद और भारतीय जनता के बीच अन्तर्विरोध को प्रधान अन्तर्विरोध मानते हैं। वे यांत्रिक रूप से यह बात दुहराते हैं कि इस अन्तर्विरोध के समाधान से अन्य सभी अन्तर्विरोधों का समाधान हो जाएगा और यह राजनीतिक सत्ता दखल की ओर ले जाएगा।
भाकपा(माओवादी) के दस्तावेजों में नव-उपनिवेशवाद शब्द को कई दफा दुहराया गया है। लेकिन उन्होंने उस रूपांतरण का कोई विश्लेषण पेश नहीं किया है जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादी शोषण के तरीकों में आया है। यानी कि, लूट के उपनिवेशिक तरीकों का नव-उपनिवेशिक तरीकों में बदलाव का उन्होंने विश्लेषण पेश नहीं किया है। यह स्पष्ट है कि उन्होंने नव-उपनिवेश और अर्ध-उपनिवेश शब्दों का समानार्थी के रूप में इस्तेमाल किया है, जैसा कि 1970 के पार्टी कार्यक्रम में किया गया था। उनका विश्लेषण है कि भारत नव-उपनिवेशिक तौर पर निर्भर अर्ध-सामन्ती देश है। यह बेतुकेपन की हद है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अवधि में साम्राज्यवादी लूट और आधिपत्य के उपनिवेशवाद से नव-उपनिवेशवाद में रूपांतरण का मूल्यांकन करने में वे असफल रहे हैं।
परिणामस्वरूप, साम्राज्यवादी देशों में अपने समानधर्मी संगठनों के समान भारत के माओवादी भी उन कारणों का विश्लेषण कर पाने में असफल रहे हैं, जिसके चलते अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी, जिसका सट्टेबाज चरित्र अपने चरम पर पहुंच गया है, आज बार-बार संकट में फंसती जा रही है। वे अब भी यही दुहराते रहते हैं कि उपनिवेशिक दिनों के समान आज भी साम्राज्यवाद अपने सामाजिक आधार के रूप में सामन्तवाद का इस्तेमाल कर रहा है। जबकि पूंजी और बाजार की ताकतों की घुसपैठ तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से आयातित तकनीकी के चलते कृषि क्षेत्र में व्यापक बदलाव आ रहा है। इससे कृषि क्षेत्र में नये रूपों में विनाश हो रहा है। लाखों गरीब व मध्यम किसान आत्महत्या कर रहे हैं और करोड़ों किसानों को नव-उदारवादी परियोजनाओं के लिए उनके जमीन और पेशे से विस्थापित किया जा रहा है।
साम्राज्यवाद द्वारा उपनिवेशिक काल में सामन्तवाद का अपने सामाजिक आधार के रूप में इस्तेमाल किया गया था। लेकिन आज ऐसा करने के बजाय वह व्यवस्थित ढंग से इसका स्वरूप बदल रहा है और कृषि क्षेत्र को अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की व्यवस्था के साथ जोड़ रहा है। इन रूपांतरणों को समझने से इन्कार करने की वजह से भाकपा(माओवादी) की पूरी रणनीति सामन्तवाद-विरोधी कार्यभारों पर टिकी हुई है। यह उनके पार्टी कार्यक्रम और कार्यनीतिक दिशा से भी जाहिर होता है। चूंकि वे नव-उपनिवेशीकरण के तहत कृषि क्षेत्र में आये व्यापक बदलावों को मानने से इन्कार करते हैं, इसके आधार पर उनके पास कोई कृषि कार्यक्रम और किसानों का जन संगठन नहीं है, इसलिए उन्होंने जोतने वाले को जमीन के नारे के साथ कृषि क्रांति को आगे ले जाने के लिए व्यवहारत: कुछ नहीं किया है। नतीजा है कि, वे सामन्तवाद को प्रधान लक्ष्य होने की बातें तो करते हैं, लेकिन इनकी गतिविधियां वास्तविक किसानों से दूर जंगली इलाकों में सशस्त्र दस्तों के एक्शन तक सीमित होकर रह गई हैं।
भाकपा(माओवादी) द्वारा किये गये दुनिया और भारत की मौजूदा परिस्थिति के विश्लेषण से किसी के लिए भी इस बात की व्याख्या कर पाना कठिन है कि दुनिया के कई देशों में वर्तमान में जनविद्रोह क्यों हो रहा है। यूरोप और उत्तरी अमेरिका के नामालूम माओवादी समूहों की अवस्था भी ऐसी ही है। नतीजे में, जब विभिन्न इलाकों में बड़े जन आन्दोलन फूट पड़ते हैं और माओवादियों को इनमें से किसी आन्दोलन पर प्रभाव डालने का अवसर मिलता है, जैसे कि पश्चिम बंगाल के लालगढ़ इलाके में हुआ, तो वे इन इलाकों को अपने छापापार दस्तों की तैनाती के लिए इस्तेमाल करते हैं। कुछ एक्शन करते हैं, जैसे कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को पटरी से उतार देना, जिसमें कई लोग मारे गये थे और लाखों लोगों को लगभग दो साल तक भारी असुविधाएं सहनी पड़ी थी, क्योंकि रेल विभाग ने अपर्याप्त सुरक्षा के नाम पर इस रूट पर रात में रेल चलाना बन्द कर दिया था।
छत्तीसगढ़ में, माओवादी दंतेवाड़ा जिले के जंगली इलाके को अपना मुक्त क्षेत्र कहते हैं। इस इलाके का दौरा करने के बाद जॉन मिरडाल ने भारत पर लाल सितारा (रेड स्टार ओवर इंडिया) नाम से एक किताब लिखी है। असल में, यह किताब खुद का तथा अपने पहले के अच्छे बौद्धिक कार्यों का मजाक बनाने जैसा है। यह एडगर स्नो द्वारा काफी पहले रचित महान किताब चीन पर लाल सितारा (रेड स्टार ओवर चाइना) की फूहड़ यांत्रिक नकल है। बहरहाल, माओवादियों का अन्ध समर्थन करने वाले मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा जो कहा जा रहा है, उसके विपरीत छत्तीसगढ़ में जो हो रहा है उसकी कहानी कुछ और ही है। छत्तीसगढ़ गठन के बाद जब कांग्रेस की सरकार ने शिवनाथ नदी के निजीकरण का प्रयास किया था या बाद में जब भाजपा की सरकार ने राजनांदगांव जिले में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) बनाने के लिए भूमि अधिग्रहण का ऐलान किया था, तो वहां एक शक्तिशाली जन आन्दोलन छेड़ा गया था। इसमें भाकपा(माले) ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। इस आन्दोलन के कारण नदी के निजीकरण को रोकने में आंशिक सफलता मिली और सेज को रद्द करना पड़ा था। अन्य नव-उदारवादी परियोजनाओं के खिलाफ भी इस तरह के जन आन्दोलन हो रहे हैं। लेकिन बस्तर में एस्सार जैसे एक कारपोरेट ग्रुप ने समृद्ध लौह अयस्क की लूट के लिए 200 किलोमीटर से ज्यादा लम्बी पाइप लाइन का निर्माण किया है। झारखण्ड, पश्चिम बंगाल के लालगढ़ तथा आन्ध्र-ओड़िसा बार्डर के तथाकथित माओवादी नियंत्रित इलाकों का मामला भी ऐसा ही है। जनता को गोलबन्द कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, कारपोरेट घरानों और खनन माफिया निकाल बाहर करने के बजाय, माओवादी प्राय: ही उनसे भारी रकम लेकर उनके टट्टू जैसा आचरण करते हैं।
कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय के मार्गदर्शन में बोल्शेविक सिद्धान्तों पर निर्मित कम्युनिस्ट पार्टियोंं की वर्ग और जन संगठनों से घिरे पार्टी निर्माण की एक महान परम्परा रही है। इन पार्टियों ने अपने सदस्यों और समर्थकों की लेवी के अलावा जनता और जन संगठनों से फण्ड जमा किया। किन्तु माओवादियों द्वारा अपनाई गई ताकत के बल पर लेवी लेने का तरीका, खासकर जब वे अपने विकास के शैशवकाल में हैं, उनके अपने कैडरों को भ्रष्ट कर देता है। अनेक स्थानों पर माओवादियों समेत विभिन्न ग्रुपों और छोटे-छोटे दस्तों द्वारा मनी एक्शन का संकीर्णतावादी तरीका भी अपनाया जाता है। इस वजह से इन सभी समूहों के बीच व्यापक भ्रष्टाचार मौजूद है, क्योंकि इस तरह इकट्ठा किए गए पैसे का कोई लेखाजोखा नहीं होता या पैसा जमा करने के लिए किसी उसूल का पालन नहीं किया जाता। आन्ध्र प्रदेश एवं कुछ अन्य राज्यों में कैडर बनने के लिए पैसे मांगे जाते हैं। इनमें से कई लोगों को जनता पर निर्भर रहने की भावना किसी दूसरे लोक की बात लगती है। माओवादी इसे यह कहकर उचित ठहराते हैं कि, आधुनिक हथियारों की खरीद और गुप्त ठिकानों के रखरखाव के लिए इसकी जरूरत है। अब इसे सही ठहाराने के लिए चाहे जो भी तर्क दिया जाए, इस तरीके की वजह से कैडरों में कम्युनिस्ट मूल्यों का क्षरण जरुर हुआ है।
राज्य और शासक वर्ग की पार्टियों से सम्बन्ध
भाकपा(माओवादी) यह दावा करती है कि वे एक रणनीति के तहत सभी किस्म के चुनावों का बहिष्कार करती है। लेकिन अपने तीस वर्षों के इतिहास में, वे अब तक किसी भी इलाके में बहिष्कार के लिए जनता को गोलबन्द कर पाने में कामयाब नहीं हुए हैं। मतदाताओं को धमकाने, रास्तों व पोलिंग बूथों पर विस्फोट करने और यदा-कदा लोगों को सजा देने के बावजूद, वह किसी भी जगह बहिष्कार पर अमल करवा पाने में सफल नहीं हो सके। यहां तक कि दंतेवाड़ा अंचल में भी लगभग 60 प्रतिशत मतदान होता है। दूसरी ध्यान देने वाली बात यह है, कि माओवादी दंतेवाड़ा में, जहां एक समय भाकपा ताकतवर थी, उसे कमजोर करने में सफल रहे हैं, किन्तु वहां भाजपा मुख्य ताकत बनकर उभरी है और वहां लगातार चुनाव जीत रही है।
साथ ही, यह एक खुला रहस्य है कि भाकपा(माले) पीपुल्स वार ग्रुप ने 1980 के दशक में चुनाव के बहिष्कार का नारा देने के बाद भी चेन्ना रेड्डी के समय कांगे्रस के पक्ष में प्रचार किया था। इसी तरह, उसने 1990 के दशक में एनटी रामाराव के नेतृत्व वाले तेलगु देशम पार्टी का समर्थन किया था। 2004 के आन्ध्रप्रदेश विधानसभा चुनाव के समय कांगे्रस का समर्थन किया, क्योंकि कांगे्रस के नेता राजशेखर रेड्डी ने माओवादियों के साथ वार्ता का वायदा किया था। बिहार में एमसीसी भी इसी रास्ते पर चलती रही है। इससे लालू प्रसाद कई बार लाभान्वित हुए हैं। झारखण्ड में पिछले दो विधानसभा चुनावों के दौरान माओवादियों ने शीबू सोरेन की झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का समर्थन किया था। उनके समर्थन का तरीका यह है कि वे अन्य उम्मीदवारों को धमकाते हैं और अपने प्रभाव क्षेत्र में उन्हें प्रचार नहीं करने देते। यह दर्शाता है कि वे मौजूदा संसदीय व्यवस्था को छद्म लोकतांत्रिक कहते हुए चुनावों का बहिष्कार करते हैं, मगर अपने आचरण से इसे और ज्यादा छद्म बना देते हैं। ताजा उदाहरण है पश्चिम बंगाल के हाल के चुनाव में माओवादियों द्वारा माकपा के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा के विरोध में ममता बनर्जी के तृणमूल कांगे्रस का समर्थन, जो केंद्र की संप्रग सरकार की घटक है। उन्होंने इन सभी मामलों में चुनाव बहिष्कार का नारा देने के बाद शासक वर्ग की मुख्य पार्टियों का समर्थन किया है। उन्होंने कभी भी किसी वामपंथी ताकत का समर्थन नहीं किया है। यह भाकपा(माओवादी) द्वारा अपनाई गई पूरी तरह अवसरवादी और गैर-सैद्धान्तिक भाड़े की नीति है, जिसने पूरे देश में कम्युनिस्ट आन्दोलन की छवि को काफी धूमिल किया है।
चुनावों में दिये गये समर्थन के एवज में आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने उन्हें वार्ता के लिए हैदराबाद आमंत्रित किया। लेकिन जैसा कि माओवादियों के अलावा अन्य सभी को शुरू से ही पता था कि इस वार्ता से कुछ निकलकर आने वाला नहीं है और यही हुआ। लेकिन राज्य मशीनरी ने इस मौके का फायदा उठाया और माओवादी टीम के जंगल से बाहर आने और वापस जाने के रास्ते की हवाई निगरानी करवाया। वार्ता असफल होने के थोड़े दिनों के भीतर ही विशेष बलों द्वारा लगभग सभी माओवादी दस्ते और मुख्य कैडरों का सफाया कर दिया गया। फिर भी इन घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया गया। उनके पोलित ब्यूरो सदस्य आजाद और फिर किशनजी को वार्ता का लालीपॉप दिखा कर घेरा गया और हत्या कर दी गई।
पहली बात यह है कि एक ऐसा संगठन जो केवल रणनीति की बातें करता है, उसके लिए अपने विकास के मौजूदा चरण में राज्य के साथ वार्ता के लिए क्या है? दूसरा, आन्ध्रप्रदेश की घटना के कडुवे अनुभव के बाद वे कोई सबक लेने से इन्कार क्यों कर रहे हैं? किशनजी की हत्या से जो बात उभरकर सामने आती है, वह यह है कि शासक वर्ग के नेताओं के बारे में वे भारी भ्रम का शिकार हैं, जबकि वे राज्य के खिलाफ पूर्ण युद्ध की घोषणा का दावा करते हैं। यदि वे माओ की सैन्य रचनाओं को फिर से पढ़ें तो कम से कम ऐसी बचकानी गलतियों से बच तो सकते हैं।
अतिवाद आखिरकार राज्य की ही मदद करता है
श्रीलंका में तमिल जनता के संघर्ष तथा लिट्टे ने किस तरह इस संघर्ष के लक्ष्य को काफी क्षति पहुंचाई, इसका अनुभव उन सबके लिए आँख खोलने वाला होना चाहिए, जो माओवादियों के प्रति नरमदिल हैं। हमारे देश में, जब असम में उल्फा के नेताओं और कैडरों द्वारा दो दशकों तक चाय बागान के मालिकों से भारी धन जमा किया जाता था, तो उन्हें भारी मुनाफा भी होता था, क्योंकि उन्होंने इसकी आड़ में हजारों-हजार मजदूरों की वेतन में वृद्धि एवं अन्य सुविधाएं देने से इन्कार कर दिया था। माओवादियों का जहां भी प्रभाव है, वहां बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, औद्योगिक घराने और खनन माफिया उन्हें लेवी देकर अपना काम खुलेआम कर सकते हैं। इसी तरह, अतिवाद की उपस्थिति को एक बहाना बनाकर राज्य द्वारा सुरक्षा बलों की संख्या को कई गुना बढ़ा दिया गया है। यहां तक कि, जन आन्दोलन पर भी अतिवाद का ठप्पा लगाकर वहां सुरक्षा बलों को तैनात किया जा रहा है। कानून और व्यवस्था के नाम पर सभी जगह यह किया जा रहा है। यहां तक कि दशकों पुराने सशस्त्र विद्रोह के नाम पर सेना भेजी गई है और आफ्सपा जैसे काले कानून थोपे गये हैं। हाल ही में राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधी केंद्र (एनसीटीसी) के गठन की कोशिश की जा रही है। इस तरह, अतिवाद के नाम पर राजकीय आतंक तेज किया जा रहा है। यह सब करने के लिए, यदि किसी इलाके में कोई अतिवादी संगठन नहीं है, तो उन्हें पैदा किया जाएगा, जैसा कि मणिपुर में रॉ द्वारा विद्रोही गुटों को किया गया है। या वे यह प्रचार करने लगेंगे कि अतिवादी प्रभाव बढ़ रहा है, जिस तरह राज्य द्वारा कारपोरेट मीडिया के सहयोग से माओवादियों को काफी प्रचारित किया जा रहा है इस मामले में भारतीय राजसत्ता द्वारा अमेरिकी प्रशासन की नकल की जा रही है, जो स्वयं बड़े आतंकवादी हैं, मगर आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध का ऐलान कर रखा है!
कुछ मित्र निश्चित रूप से यह सवाल पूछेंगे कि आप माओवादियों की आलोचना कैसे कर सकते हैं, जबकि वे अपना खून बहा रहे हैं, उनके नेता भी मारे जा रहे हैं? आप उनकी आलोचना कैसे कर सकते हैं जबकि वे राज्य के खिलाफ युद्ध चला रहे हैं? निश्चित ही, हम भाकपा(माओवादी) के कैडरों की कुर्बानी का सम्मान करते हैं। यही कारण है कि, हमने आजाद और किशनजी की हत्या और इसके पहले भी तमाम हत्याओं की निन्दा की है। माओ ने बारम्बार सलाह दी थी कि हमें खून की एक बूंद भी व्यर्थ नहीं करनी चाहिए, अनावश्यक कुर्बानी से बचना चाहिए। लेकिन, उनके तीस वर्षों से ज्यादा समय के व्यवहार के बाद भी, भाकपा(माओवादी) का नेतृत्व अब तक के अपने कार्य के मूल्यांकन के लिए तैयार नहीं है। वाम दुस्साहसवाद की पहली लहर में 1960 के दशक में गठित लगभग सभी मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टियों को गंभीर धक्का लगा था और वे बिखर गई थीं। आगे चलकर, दुनिया के सभी हिस्सों में माओवादी गु्रपों का सफाया हो गया, जैसे कि पेरू में शाइनिंग पाथ (पेरू की कम्युनिस्ट पार्टी) के साथ हुआ। फिलीपीन्स की कम्युनिस्ट पार्टी का विकास रूक सा गया है। नेपाल में वे राजशाही को उखाड़ फेंकने में केवल तभी अग्रणी भूमिका निभा सके, जब उन्होंने अपनी दिशा बदली और जन दिशा अपनाई। हालांकि, अब नेपाल में भी भटकाव नजर आने लगा है।
भारत में, माओवादी नेताओं का दावा और राज्य का प्रचार चाहे कुछ भी क्यों न हो, उनकी ताकत कम हो रही है। केवल इतना ही नहीं, सभी भूतपूर्व समाजवादी देश पूंजीवादी रास्ते में अध:पतित हो चुके हैं और विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन एक गंभीर धक्के से जूझ रहा है। इन पहलुओं पर चिन्तन किये बगैर तथा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारी बदलावों पर विचार किये बगैर, लगभग 125 करोड़ की आबादी वाले भारत जैसे विशाल देश में, जहां एक सुसंगठित और केंद्रीकृत राज्य मशीनरी है, कुछ सशस्त्र कार्यवाहियों के दम पर क्रान्ति की अगुवाई कैसे की जा सकती है? यदि भाकपा(माओवादी) का नेतृत्व, इन सभी बातों से विरक्त रहकर, आत्मघाती रास्ते पर चलना जारी रखता है, तो क्या कोई भी उन्हें उचित ठहरा सकता है?
हमारा यह मत है कि नेतृत्व की निर्ममता से आलोचना की जानी चाहिए और यदि वे क्रान्तिकारी अग्रगति में अपना योगदान देता हैं तो उन्हें अपनी दिशा बदलने के लिए कहना चाहिए । हम माकपा (सीपीएम) नेतृत्व की ज्यादा तीखी आलोचना करते हैं, क्योंकि कम्युनिस्ट आन्दोलन में आज भी संशोधनवाद मुख्य खतरा बना हुआ है । कम्युनिस्ट ताकतों के सामने कार्यभार है अतीत से सबक लेना, पार्टी का पुनर्गठन करना तथा सभी क्रान्तिकारी वर्गों एवं तबकों को गोलबन्द कर जनता की जनवादी क्रान्ति को आगे ले जाना । इसलिए, हम उनके कैडरों से इस अराजक राजनीति से बाहर आने और क्रान्तिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी खेमे में शामिल होने की अपील करते हैं ।